Tuesday, 11 May 2021

आचार्य शुक्ल के कथन/UGC/NET/JRF/PYQ HINDI SHAHITYA

जगन्नायप्रसाद चतुर्वेदी के लिए " यह बेधड़क कहा जा सकता है कि शैली कि जो विशिष्टता और अर्य गर्भित वक्रता गुलेरी जी में मिलती है और किसी लेखक में नहीं.. 

समालोचना के दो प्रधान वर्ग होते हैं- निर्णयात्मक और व्याख्यात्मका ' ' इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्ले वालों को कुछ परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए , स्वतंत्र समालोचना के रूप में नहीं । - 

महावीर प्रसाद दविवेदी की आलोचनात्मक पुस्तकों के लिए " यदपि द्विवेदी जी ने हिंदी के बड़े - बड़े कवियों को लेकर गंभीर साहित्य समीक्षा का स्थाई साहित्य नहीं प्रस्तुत किया पर नई निकली पुस्तकों की भाषा आदि की खरी आलोचना करके हिंदी साहित्य का बड़ा भारी उपकार किया । यदि द्विवेदीजी ना उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित व्याकरण विरुद्ध और उटपटांग भाषा चारों और दिखाई पड़ती थी , उसकी परंपरा जल्दी ना रूकती । उसके प्रभाव से लेखक सावधान हो गए और जिनमें आषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार किया 

आचार्य शुक्ल मिश्रबंधु विनोद को बड़ा भारी इतिवृत्त संग्रह कहा है ।  

प्रसाद जी ने अपना क्षेत्र प्राचीन हिंदू काल के भीतर चुना और प्रेमी जी ने मुस्लिम काल के भीतर प्रसाद के नाटकों में स्कंदगुप्त श्रेष्ठ है और प्रेमी के नाटकों में रक्षाबंधन । 

केवल प्रो नगेंद्र की सुमित्रानंदन पंत पुस्तक ही ठिकाने की मिली - 

छायावाद की आलोचना के संबंध में ' काव्य अधिकतर भावव्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है..

अयोध्यासिंह उपाध्याय के लिए ' गप्त जी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि है . प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमाने वाले कवि नहीं है । सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें है ।" -

मैथिली शरण गुप्त के लिए ' उनका जीवन क्या था ; जीवन की विषमता का एक छोटा हुआ दृष्टांत था।

पंडित सत्यनारायण कविरत्न के लिए " उसका प्रधान लक्ष्य काव्यशैली की ओर था , वस्तु विधान की ओर नहीं । अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहूत संकोच हो गया ।" 

छायावाद के लिए" हिंदी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को- विशेषतः श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधर पांडेय को समझना चाहिए। "  छायावाद के लिए ' असीम और अज्ञात प्रियतम की पति अत्यंत चित्रमय भाषा में अनेक प्रकार के प्रेमोदगारों तक ही काव्य की गतिविधि प्रायः बंध गई । - 

छायावाद के लिए ' छायावाद शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही ना रहकर काव्यशैली के संबंध में भी प्रतीकवाद ( सिंबालिज्म ) अर्थ में होने लगा । " छायावाद को चित्रभाषा या अभिव्यंजन पदधति कहा है- आचार्य शक्ल ने ' छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए । एक तो रहस्यवाद के अर्थ में , जहां उसका संबंध काव्य वस्तु से होता है अर्थात जहां कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यजना करता है । छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्धती विशेष की व्यापक अर्थ में हैं । "

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