आत्मकथा लेखन लेखक की अपनी एक
विशिष्ट प्रक्रिया होती है। हिंदी आत्मकथा इतिहास में “क्या भूलूँ क्या याद करूँ” का विशेष महत्व है। “क्या भूलूँ क्या याद करूँ” में बच्चन ने निःसंकोच भाव से अपने जीवन की उन घटनाओं और प्रसंगों का उल्लेख
किया है जिनका गहरा संबंध उनके लेखन और व्यक्तित्व के विकास से रहा है। इसमें उनकी
जाति, परिवार शिक्षा,
परिवेश और मित्रों की
महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आत्मकथा बिना तटस्थता, आत्मालोचन और
जीवन की कथा को युगीन संदर्भो से जोड़े-कोई भी आत्मकथा प्रभावशाली नहीं हो सकती है।
इनके अतिरिक्त लेखन की विशिष्ट शैली आत्मकथा को पठनीय बनाती है।
बच्चन के जिस कवि व्यक्तित्व से आज पूरा हिंदी संसार परिचित
है- उसका स्रोत इस आत्मकथात्मक कृति में आसानी से ढूँदा जा सकता है। इसलिए इस
आत्मकथात्मक कृति को पढ़ने का अर्थ एक रचना का आस्वादन करना ही नहीं है, बल्कि उन मार्मिक स्थितियों से गुजरना भी है
जिसके कारण बच्चन के रचनात्मक व्यक्तित्व का निर्माण और विकास होता है और 'मधुशाला' 'मधुबाला',
'निशा निमंत्रण' जैसी काव्य-कृतियाँ रची जाती हैं। क्या लूँ
क्या याद करूँ स्पष्टतः बतलाती है कि इसे पढ़ने का अर्थ लेखक के बचपन से लेकर पहली
पत्नी श्यामा की मृत्यु तक के जीवन क्रम को जानना ही नहीं, अपितु उस समय के समाज को समझना भी है. जब भारत
में जातिवादी और धार्मिक संस्थाएँ मजबूत थी, सामाजिक जिंदगी में उनका बोलबाला था और तत्कालीन ब्रिटिश
साम्रज्यवाद उनके सहयोग से शासन और दमन के रास्ते पर बढ़ रहा था। इन बातों का
संकेत जगह-जगह इस कृति में मिल जाएगा।
हरिवंशराय बच्चन ने अपने चारों आत्मकथा खण्डों में अपने
सम्पूर्ण जीवन, व्यक्तित्व और
कृतित्व को विविधा कोणों से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। उन्होंने आत्मकथा
विधा को नया सस्कार और नया धरातल ही नहीं दिया अपितु उसे एक नई चेतना भूमि नव
सामाजिकता और नय चितनधारा भी दी उन्होंने जीवन की समग अनुभूति अनुभवों तथा अपने
सुख दुखों को जीवत रूप दिया। उनके द्वारा स्थापित साहित्यिक मान्यताएँ अधिक सटीक
और जीवन के लिए उपयोगी है क्यो कि इनमें गूढ चितन के साथ साहित्यिक जीवन के सभी
पहलुओं का दिग्दर्शन मिलता है।
बच्चन की इस आत्मकथा में संघर्ष का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है- अस्तित्व रक्षा के लिए
किया गया प्रयास। यह प्रयास एक तरफ जहाँ युगीन परिवेश को पूरी तल्खी के साथ चित्रित
करता है, वहीं दूसरी तरफ यह भी दिखलाता है कि किस प्रकार
सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और
राजनीतिक विसंगतियों से आत्मकथा का नायक टकराता है, उनसे जूझता है और फिर मुक्त होकर आगे बढ़ जाता है। इसमें
उसके परिवार की वे सारी घटनाएँ और परपराएँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो उसे
नैतिक रूप से मजबूत बनाती हैं और विपीन परिस्थितियों में सही काम करने की प्रेरणा
देती है।
क्या भूलू क्या याद करूँ आत्मकथा का प्रथम अंश: उनका व्यक्तित्व एवं जीवन-दर्शन। डाँ. हरिवंश राय बच्चन
'साहित्य के युग-पुरूष तो
थे ही, एक श्रेष्ठ
आत्मकथाकार भी थे। उनके द्वारा लिखित 'क्या भूलू क्या याद करूं' विवेकपूर्वक, योजनाबद्ध रीति से लिखा गया प्रथम आत्मकथा खण्ड है 'क्या भूलू क्या याद करू आत्मकथा खाण्ड उनकी पूरी योजना का
एक तिहाई भाग है। इसमें लेखक ने अपने यौवन ज्वार के क्षणों का व्यापक वर्णन इस
विशदता से किया है कि उनके साहस और सत्यकथन की प्रशंसा करनी पड़ती है। डाँ. बच्चन ने अपने मन-मस्तिष्क
पर अंकित होने वाले बचपन और युवावस्था के संस्कारों के साथ साथ पूर्वजन्म के
संस्कारों के बल पर आत्मतत्व का भी यथेष्ट सकेत अनेक स्थलों पर दिया है।
क्या भूलू क्या याद करूँ' की रचना 1963 से 1989 तक हुई जिसमें लेखक ने अपने कायस्थ जातिवर्ण के नाम, उदभव विकास, और महत्व पर विस्तृत चर्चा करते हुए अपने अमोढा वंश,
की सात पीदियों की कक्षा
विस्तार से लिखी है। बच्चन ने इसमें अपने जन्म, शैशव, शिक्षा के अभ्यास, गृह परिवार,
परिवेश आदि का वर्णन
करते हुए स्कूल कालेज के मित्रों एवं गुरूजनों से बच्चन के सम्बन्धों और सम्पकों
की विस्तृत जानकारी प्रदान की है इसी खण्ड में लेखक के शैशव काल एवं यौवनारम्भ के
प्रणय और भावुकता के विशिष्ट क्षणों एवं गुणों का वर्णन किया है। जिससे उनका
उदात्र धीर गम्भीर व्यक्तित्व उभरकर सामने आया हैं। प्रत्येक मनुष्य के दो रूप होते
है एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त। उसका आकार प्रकार, आचार विचार अर्थात् जिसमें उसकी कोन्द्रियों एवं समस्त
ज्ञानेन्द्रियो की क्रिया व्यक्त होती है।
बच्चन की आत्मकथा क्या भूलू क्या याद करू में साहित्यिक
जीवन से संघर्ष करने वाले जुझार लोगों के लिए अनुकरणीय है। उनकी आत्मकथा 'क्या भूल क्या याद करूँ' बच्चन के विराट व्यक्तित्व पर ही प्रकाश नहीं
डालती अपितु उनके जीवन के एक एक परत को बड़ी नजाकत नफासत से उधाडती चलती है। जिससे
उनका जुझारू, संघर्षशील एवं
सवेदनाशील विशाल व्यक्तित्व स्वतः प्रस्फुटित होकर सामने आ गया है।
हरिवंशराय बच्चन की क्या भूलूँ क्या याद करूँ पर केंद्रित
इस इकाई में उनकी आत्मकथा के पहले भाग पर विचार किया गया है जिसमें लेखक के जन्म
से लेकर पहली पत्नी श्यामा की मृत्यु तक का मार्मिक वर्णन है। यह सही है कि
आत्मकथाकार का अपना एक समाज और अपनी एक संस्कृति होती है। बिना उससे टकराये,
आत्मकथा की रचना संभव
नहीं है और वह संस्कृति है अपने जीवन की सच्चाइयों का यथार्थ चित्रण लेखक, आत्मकथा लेखन के बहाने समाज और संस्कृति के इस 'सच' से टकराता है। बच्चन भी उस आत्मकथा में बार बार अपने जीवन
की सच्चाइयों से टकराते हैं। इस इकाई को पढ़कर आप उनके जीवन के इस 'सच' और इससे टकराने की प्रक्रिया को समझ सकते हैं। यह सही है कि
लेखक के जीवन में बहुत सारी बातें ऐसी होती है जिसे वह कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, निबंध जैसी
प्रचलित विधाओं में व्यक्त नहीं कर पाता है। खासकर जीवन की वैसी सच्चाइयाँ जो समाज
और लेखन की मर्यादाओं से अनुशासित होती है। बच्चन अपने जीवन के जिस सच को प्रकट
करना चाहते हैं उसके लिए उपयुक्त विधा आत्मकथा ही है। कारण, आत्मकथा की संरचना ऐसी होती है कि लेखक उसमें
एक सीमा तक छूट ले सकता है। चाहे वह जाति का प्रसंग हो अथवा समाज का। व्यक्ति हो
अथवा परिवार का। वह इसमें कथा कहने की भिन्न भिन्न शैलियों का प्रयोग कर सकता है
इस इकाई को पढ़कर आप देखेंगे कि बच्चन लेखन के स्तर पर रचना की अनेक शैलियों का
प्रयोग करते हैं और आत्मकथा को रोचक पठनीय तथा प्राणवान बनाते हैं। आत्मकथा में न
ही कोई विषयवस्तु निर्धारित हेती है और न ही अंतर्वस्तु। पर लेखक इस बात का ध्यान
रखता है कि जो भी प्रसंग अथवा घटनाएँ। उससे उसके जीवन का सीधा जुड़ाव हो।
क्या भूलें क्या याद करूँ में बच्चन ब्रिटिशकालीन भारतीय
जीवन के ऐसे अनेक प्रसंगों घटनाओं का उल्लेख करते हैं जिनका गहरा संबंध तत्कालीन
समाज से है। पर उन्हें वे अपने जीवन से जोड़कर देखते हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवेश किस स्तर पर एक लेखक को
प्रभावित करते हैं और उनका चित्रणा आत्मकथात्मक कृति में वह किस प्रकार करता
है, इस इकाई को पढ़कर देखा जा
सकता है। विचार तथा थोड़ा और स्पष्ट करें तो दृष्टिकोण का रचनाकार के जीवन
हत्वपूर्ण होता है। पर बड़ा रचनाकार अपनी दृष्टि को रचना पर आरोपित नहीं करता है
बल्कि घटनाओं और प्रसंगों के माध्यम से अपने विचारों को स्पष्ट कर देता है।
क्या भूलूँ क्या याद करूँ बच्चन सामाजिक स्वदियों, मान्यताओं, समस्याओं आदि के खिलाफ और रचना तथा रचनाकार के बारे में जगह
जगह अपनी राय व्यक्त करते हैं। इस इकाई को पढ़कर आप देखेंगे कि बच्चन अपने भावों
और विचारों को किसी घटना अथवा प्रसंग के साथ जोड़कर प्रस्तुत करते हैं-सीधे सीधे
आरोपित नहीं। उसका औचित्य बतलाते हैं और मानवीय मूल्यों के आधार पर उन्हें मानने
और समझने की वकालत करते हैं।
निष्कर्षतः हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा का यह पहला भाग एक
लेखक के लेखकीय व्यक्तित्व के बनने की प्रक्रिया से हमें परिचित करता है। इस क्रम
में उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर टिप्पणी करता है तथा यह बतलाता है कि
लेखन के लिए जितनी जरूरत सामाजिक प्रतिबद्धता की होती है, उतनी निजी जिंदगी में ईमानदारी की भी। बिना
अपनी निजी जिंदगी में ईमानदार हुए कोई भी लेखक अपने समाज के संपूर्ण सच को प्रकट करने का
दावा नहीं कर सकता। क्या भूलूँ क्या याद करूँ के माध्यम से लेखक ने इस सच को प्रकट
करने का साहस पाठक सामज के सामने किया है और यही इस आत्मकथा की सबसे बड़ी विशेषता
है।
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