मार्क्सवाद//काल मार्क्स ( Karl Marx )//ugc/net/jrf/hindi/litrature
वस्तुतः अपने
समय के काव्यशास्त्रीय समीक्षक अथवा चिन्तक की अपेक्षा महान राजनीतिज्ञ और
क्रान्तिकारी विचारों के उन्नायक थे । उन्होंने जिस समाजवादी विचारधारा को जन्म
दिया , उसका स्वरूप इतना व्यापक था कि कला अथवा साहित्य भी उसकी सीमा
के बाहर न रह सके । उनका समाजवाद सम्पूर्ण मानव - जीवन से सम्बन्धित था , इसलिए उसने जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया ।
मार्क्स की
महान् कृति है . ' दास केपिटल ' , जो
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ( Dialectical Materialism ) पर
आधारित है । कार्ल मार्क्स का समाजवाद भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की सृष्टि है ।
इस वाद का मूलाधार है- वर्ग संघर्ष । कला
और साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवादी विचारधारा का जन्म इसी द्वन्द्वात्मक
भौतिकवाद से हुआ है । मार्स की दार्शनिक मान्यता मास ने अपनी द्वन्द्वात्मक
भौतिकवाद की मान्यता के आधार पर स्पष्ट किया है कि मानवीय जीवन और इतिहास के मूल
में आर्थिक और वर्ग भेद प्रमुख हैं । उत्पादन और वितरण के साधनों में समाज और
संस्क ति में परिवर्तन होता है । इस दृष्टि से व्यष्टि की अपेक्षा समष्टि का महत्व
अधिक है तथा वर्ग संघर्ष प्रगति का स्रोत है । इस आधार पर मार्क्स ऐसे समाज की
कल्पना करते हैं जो वर्ग और आर्थिक विषमता से रहित हो । उनका विश्वास है कि ऐसी ही
समाज - व्यवस्था में वास्तविक मूल्यों की स्थापना हो सकती है ।
साहित्य , कला , ज्ञान और विज्ञान आदि सभी इसी आर्थिक और वर्ग
- व्यवस्था पर आधारित है । मावर्स के अनुसार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अपने
अन्तर्विरोधों के कारण नष्ट हो जाती है और इसका स्थान सर्वसहारा वर्ग द्वारा
संचालित व्यवस्था ग्रहण कर लेती है । मार्क्स ने विकास की इस प्रक्रिया को पदार्थ
स्तर पर स्वीकार किया है और इसे आर्थिक व्यवस्था के रूप में मानते हुए स्थूल एवं
गोचर परिस्थितियों तथा उनके संघर्ष के आधार पर मानव - संस्कृति के विकास की
व्याख्या का प्रयास किया है । उन्होंने इसके लिए गेहूँ के पौधे का तथा जड़ प्रकृति
के लिए चट्टानों का उदाहरण दिया है , जिसमें वाद ( Thesis
) , प्रतिवाद ( Anti - thesis ) एवं संवाद ( Synthesis
) के मेल से यह विकासक्रम ऊर्ध्वगामी होता है । इस प्रक्रिया के
अनुसार ही मानव - समाज सभी क्षेत्रों में परिवर्तन और विकास होता रहता है ।
कला और साहित्य
विषयक मान्यताएँ मार्क्स की मान्यता अनुसार , " भौतिक जीवन की उत्पादन पद्धति से सामान्य सामाजिक , राजनीतिक
और बौद्धिक जीवन की प्रक्रियाएं निरूपित होती हैं । यही कला के उद्गम का भी आधार
है । मानव - अस्तित्त्व उसकी चेतना से निर्धारित नहीं होता , अपितु उसके विपरीत उसका सामाजिक अस्तित्त्व उसकी चेतना को निरूपित करता है
। इससे स्पष्ट है कि मार्क्स मानव की सामाजिक स्थिति को चेतना का आधार मानते हैं ।
सामाजिक स्थिति का अर्थ है आर्थिक स्थिति । यही सम्पूर्ण मानवीय जीवन का आधार है ।
युग की कसोटी मानव - चेतना नहीं , अपितु भौतिक जीवन के
अन्तर्विरोध , उत्पादन की सामाजिक शक्तियों तथा उत्पादन
सम्बन्धों का वर्तमान संघर्ष है ।
लेलिन के
अनुसार- ' Literature like all products of the human mind is
ultimetely determined by the society's economic relationship : its means of
material production मार्क्स के अनुसार , " साहित्ययुगीन अर्थव्यवस्था और उससे विकसित सामाजिक तन्त्र की अभिव्यक्ति
है । " इस प्रकार साहित्य प्रचार का साधन है । इसकी उपयोगिता इसकी चेतना के
आधार पर है । मार्क्स का कथन है- " Philosophers have
only interpreted the world in various ways , the point is ... to change it साहित्य सामाजिक जीवन की व्याख्या और समीक्षा से आगे बढ़कार युनियादी
बदलाव का साधन बनकर मानव - मुक्ति के संघर्ष की व्यापक प्रक्रिया का अंग बन सकता
है । वस्तुतः साहित्य मनुष्य की सामाजिक चेतना और सामाजिक चिन्ता की देन है ।
इसलिए उसमें मानव जीवन की वास्तविकता और सम्भावना की अभिव्यक्ति होती है । वह
यथार्थ और चेतना के सम्बन - बोध का माध्यम ही नहीं , सामाजिक
चेतना के निर्माण और सामाजिक जीवन की रूपान्तरणशीलता का साधन भी है । इस द ष्टि से
साहित्य मानय समाज के विकास का परिणाम और प्रमाण भी है । वह मनुष्य की सामाजिक
चेतना की उपज है और सामाजिक चेतना को उपजाने वाला भी । साहित्य शोषक समाज व
व्यवस्था के विरुद्ध मुक्तिगामी वर्ग के वैचारिक संघर्म का एक शक्तिशाली माध्यम और
हथियार भी होता है । साहित्य में आत्माभिव्यक्ति मायर्स साहित्य में कलाकार या
रचनाकार की स्वतन्त्रता के विरोधी हैं । उनके अनुसार व्यक्ति स्वातन्त्र्य का
सिद्धान्त असंगत और पान्तिपूर्ण है ।
मार्क्स का कथन
है "जो लेखक अपने लेखन को व्यावसायिक बनाता है , उसे भौतिक जरूरतों का साधन समझता है , वह अपनी
आन्तरिक स्वतन्त्रता के अभाव में बाहरी स्वतन्त्रता से भी वंचित किए जाने के काबिल
होता है । ( प्रेस की स्वतन्त्रता सम्बन्धी बहस से अतः व्यक्ति कभी भी स्वतन्त्र
नहीं होता , वह तो परिस्थितियों का दास होता है । जैसी
सामाजिक स्थिति होती है वैसी ही व्यक्ति की दशा होती है । व्यक्ति का निर्माण समाज
के द्वारा ही होता है । व्यक्तिगत समाज की कृति है और इस व्यक्तित्व की कृति है
साहित्य । इस प्रकार साहित्य कृति की कृति है । साहित्य में सामाजिकता अनिवार्य
रूप से आती है , क्योंकि कला - स जन व्यक्तिगत चेतना का
परिणाम नहीं है , वह तो सामाजिक चेतना का प्रतिफल है ।
कलात्मक सर्जन
और आस्थावन मार्क्स का विचार है कि आर्थिक उत्पादन केवल आवश्यकता को
संतुष्ट करने के लिए ही वस्तु उपलब्ध नहीं कराते . अपितु ये वस्तु की आवश्यकता भी
उत्पन्न करते हैं । जब उपभोग अपनी आरम्भिक , बुनियादी , अपरिष्क त अवस्था और तात्कालिकता से मुक्त हो जाता है तब वह स्वयं वस्तु
से उत्पन्न एक इच्छा बन जाता है । वस्तु की आवश्यकता की इच्छा वस्तु के बोध से
प्रभावित होती है । इस प्रकारसिद्धान्त और वाद एक कला - वस्तु कलात्मक अभिरुचि से
सम्पन्न ऐसे पाठक और दर्शक समुदाय को तैयार करती है जो सौन्दर्यानुभूति के योग्य
होता है । इस प्रकार उत्पादन केवल चेतना के लिए वस्तु ही उत्पन्न नहीं करता,
अपितु यह वस्तु के लिए चेतना भी पैदा करता है , जो कलात्मक सर्जन के आस्वाद का आधार है ।
साहित्यालोचनके मानदण्ड कला - साहित्य की समालोचना के दो मानदण्ड होते हैं- राजनीतिक और
कलात्मक । इस प्रकार अच्छे और बुरे के बीच प्रयोजन ( मनोगत इच्छा ) अथवा परिणाम (
सामाजिक व्यवहार ) द्वारा अन्तर कम किया जा सकता है । इनमें आदर्शवादी प्रयोजन पर
बल देते हैं और परिणाम की उपेक्षा करते हैं , जबकि भौतिकवादी परिणाम
पर बल देते हैं और प्रयोजन की उपेक्षा करते हैं । किन्तु मार्क्सवादी (
द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ) प्रयोजन और परिणाम दोनों की एकता पर बल देते हैं ।
जनसामान्य की सेवा करने का प्रयोजन उसका समर्थन प्राप्त करने के परिणाम से अभिन्न
रूप से जुड़ा हुआ है , अतः दोनों की एकता जरूरी है । इसलिए
कला या साहित्य का मूल्यांकन कलाकार या साहित्यकार के कथनों के आधार पर नहीं ,
बल्कि समाज में आम जनता पर उसके कार्यों का ( मुख्य रूप से उसकी
रचनाओं का ) जो असर पड़ता है उसके आधार पर करना चाहिए ।
इस प्रकार
मार्क्स साहित्य के मूल्यांकन का एकमात्र मानदण्ड सामाजिक उपयोगिता को मानते हैं ।
उनके अनुसार साहित्य सामाजिक कृति है , अतः उसका मूल्यांकन भी
सामाजिक उपयोगिता की द ष्टि से होना चाहिए । समाजवादी यथार्थवाद ' समाजवादी यथार्थवाद ' यथार्थवादी आन्दोलन का नव्यतम
विकास है । इसके मूल सिद्धान्तों को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है
1. समाजवादी द ष्टि के आधार पर वस्तुगत यथार्थ का
उनके क्रान्तिकारी विकास की अनुरूपता में चित्र ।
2. समाज -
विकास की द्वन्द्वात्मक तथा ऐतिहासिक प्रक्रिया के बीच प्रगतिशील तथा प्रतिगामी
शक्तियों की परख एवं उनका चित्रण ।
3. जीवन के
रचनात्मक पक्ष पर विशेष बल देते हुए सम्पूर्ण कलात्मक क्षमता के साथ उसका चित्रण ।
4. नई उभरती हुई वास्तविकता को समर्थन देते हुए
जर्जर तथा हासमूलक शक्तियों का विरोध ।
5. समाज में
व्याप्त वर्ग - संघर्ष तथा वर्गीय असंगतियों का गहरा और सूक्ष्म विश्लेषण तथा
उद्घाटन ।
मनुष्य के
सम्पूर्ण व्यक्तित्व का चित्रण तथा जीवित सक्रिय एवं सामाजिक मनुष्य की प्रतिष्ठा
करते हुए सक्रिय नायक की सृष्टि करना । लेखक की भविष्य दृष्टि को मूर्त रूप देना , जो उसकी कृति के बीच से उभरती हुई समाजवादी द ष्टि को सार्थक बनाती है ।
आलोचना -दृष्टि प्रश्न उठता है पूर्वाग्रहयुक्त आलोचना दृष्टि का । क्या कोई
समीक्षक पहले से एक विशिष्ट सिद्धान्त का आदर्श मानकर उसकी कसौटी पर सम्पूर्ण
साहित्य को परखकर उसके साथ न्याय कर सकता है ।
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