कलगी
बाजरे की/ अज्ञेय/ की कविता/UGC/NET/JRF/ HINDI
हरी
मिछली घास
दोलती
कलगी छरहरी बाजरे की
अगर
मैं तुमको ललाती सांझ के
नभ
की अकेली तरिका अब नहीं कहता,
या
शरद के भोर की नीहार - न्हायी हुई
हटकी
कली चपे की , वगैरह , तो नहीं कारण
कि
मेरा हृदय , उथला या कि सूना है या कि मेरा प्यार मैला है ।
बल्कि
केवल यहीं :
ये
उपमान मैले हो गए हैं
देवता
इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच
कभी
बासन अधिक घिसने से मुल्लमा छूट जाता है
मगर
क्या तुम , नहीं पहचान पाओगी
तुम्हारे
रूप के- तुम हो , निकट हो,
इसी
जादू के निजी किस सहज,
गहरे
बोध से, किस प्यार से मैं कहा रहा हूँ
अगर
मैं यह कहूँ- चिछली घास हो तुम लहलहाती हवा में
कलगी
छाहरी बाजो की आज हम शहरातियों को,
पालतू
मालंच पर
संवरी
नही के फूल से
मृति
के विस्तार का –
ऐश्वर्य
का- औदार्य का कहीं सच्चा ,
कहीं
प्यारा , एक प्रतीक बिछली घास है .
या
शरद की माँझ के सून गगन की
पीठिका
पर दोलती
कलगी
अकेली बाजर की और सचमुच ,
इन्हें
जब जब देखता हूँ
यह
खुला बीरान संसृति का घना हो सिमट आता है
और
मैं एकांत होता हूँ
समर्पित
शब्द जादू है –
मगर
क्या यह समर्पण कुछ नहीं है ?
सन् 1960 के बाद की हिन्दी कविता नवीन काव्याभिरुचि ,
नवीन सौन्दर्य - बोध
और नये संवेदन की कविता है । रोमाण्टिक भावुकता के स्थान पर यथार्थपरक बौद्धिकता ,
संयम ,
सुरुचि ,
संतुलन और भद्रता के
स्थान पर सच्चाई , साहस और खरापन , मसृण और कोमल के स्थान पर परुष और अनगढ़ की स्वीकृति ,
समझौता और
यथास्थितिवाद के स्थान पर संघर्ष और विद्रोह का आग्रह ,
परम्परागत मूल्यवादी
दृष्टि के स्थान पर अनास्था और मूल्यहीनता का स्वर ,
अलंकृत भाषा के स्थान
पर बेलौस सपाटबयानी तथा आक्रोश , क्षोभ उत्तेजना , तनाव और छटपटाहट आदि संक्षेप में साठोत्तर कविता की प्रमुख
विशेषताएँ हैं । '
कलगी बाजरे की ' कविता उक्त विशेषताओं को दृष्टि में रखकर '
अज्ञेय '
द्वारा लिखी गई है ।
अत : इस कविता में कवि बाजरे की कलगी में सौन्दर्य की सृष्टि करता है । कवि के लिए
नभ की अकेली तरिका तथा चम्पे की कली में सौन्दर्य नहीं दीखता ,
उसे नये उपमान तथा
नये प्रतीक कविता के लिए अनिवार्य लगते हैं ।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं फँच ।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है ।
कलगी अकेली बाजर की अज्ञेय की वह बहुचर्चित
कविता है, जिसमें उन्होंने नष्ट विंच और प्रतीक नए रचनाशिल्प तथा नयाँ शब्दरचना को
अपनाया है । इसका प्रभाव उनकी पुरानी कविताओं से बिलकल भिन्न है । उनकी दृष्टि में
परंपरागत प्रतीक बार - बार प्रयुक्त होते रहने के कारण मैले अर्थात् अनुपयुक्त हो
गए हैं । अत : ' कलगी बाजरे की ' कविता में चे अपनी प्रिया के लिए नाष्ट प्रतीक का प्रयोग करते हैं । इस
कविता में परिवर्तित ग्राकृतिक सौंदर्य बोध दृष्टिगत होता है । तुम हरी विकली
अर्थात् बिछाई हुई पास के समान प्रसन्न हो । बाजरे की दुबली - पतली फुर्तीली झूलती
कलगी या तुरा हो । आगर मैं तुम्हें . ललाती संध्या में आसमान की अकेली तारिका या
नक्षत्र कहता । किंतु अब नहीं कहता । या शरद ऋतु की प्रभात में ओस से न्हायी हुई
कुमुद , ताजगी भरी चम्पे की कली आदि तो नहीं कहता , तुम्हें लगता कि मेरा दिल छीछला है या रिक्त - सूना है या तो फिर मेरा
प्यार ही मैला अर्थात् अनुपयुक्त है । सिर्फ, सिर्फ यही
बात है कि यह परंपरागत उपमान अब मैले या अनुपयुक्त हो गए हैं , अर्थहीन हो गए हैं । देवता भी इन सब प्रतीको छोड़कर चले गए हैं । सब
प्रतीक अर्थहीन बन चुके हैं ।
जैसे वर्तन को बार - बार या अधिक मिसने उसका
मुलम्मा घट जाता है , कलई निकल जाती है । तो क्या तुम अपने रूप को पहचान न पाओगी तुम तो
तुम्हारे रूप के ही निकट हो , यही इसका जादू है ।
अपने ही सहज , गहरे बोझ से , किस प्यार से में यह कह रहा हूँ । हाँ अगर मैं यह कहूँ कि तुम बिछली घास
हो , हरी - भरी , खुशी
से हवा में दोलती दुबली - पतली , फुर्तीली बाजरे
की कलगी हो ! तो क्या यह अच्छा नहीं हैं ।
आज हम शहरों में रहनेवालों को पाले हुए मालंच
पर सँवरी जुटी के फूल से भले ही लगती हो । वह अपने प्रेम के विषय में नगरवासियों
से कुछ सुनना नहीं चाहता । किंतु सृष्टि का विस्तार , ऐश्वर्य
और औदार्य का , कहीं सच्चा कहीं प्वारा एक प्रतीक
बिछली घास है । प्राकृतिक उपभान विस्तृत , संपन्न
हैं । बड़ी उदारता से प्रकृति इन उपमानों को देती हैं । वे सच्चे और प्यारे होते
हैं ।
कवि कहते हैं कि सच्चा और प्यारा प्रतीक विकली
पास है वा शरद ऋतु की संध्या के सूने - खाली आसमान के आसन या पीठिका पर झूलती
अकेली बाजरे की कलगी सच कहूँ- जब जब इन्हें मैं देखता है । तो यह खुला उजड़ा हुआ
संसार केंद्रीतभूत सधन होकर , संकुचित हो जाता है
और मैं अकेला हो जाता हूँ ' समर्पित ' शब्द जादू ही हैं । तो क्या वह प्यार में किया गया समर्पण कुछ भी नहीं ।
अज्ञेय ने प्रकृति के बिराट रूप का चित्रण करते हुए सौंदर्यानुभूति , अनुभवों का खुलापन , अटूट प्रेम , समर्पण आदि का दर्शन कराया है । उनकी दृष्टि से वह आत्मानुभूति और मुक्ति
का क्षण है ।
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