Sunday, 16 May 2021

कलगी बाजरे की/ अज्ञेय/ की कविता/UGC/NET/JRF/ HINDI

हरी मिछली घास  

दोलती कलगी छरहरी बाजरे की

अगर मैं तुमको ललाती सांझ के

नभ की अकेली तरिका अब नहीं कहता,

या शरद के भोर की नीहार - न्हायी हुई

हटकी कली चपे की , वगैरह , तो नहीं कारण

कि मेरा हृदय , उथला या कि सूना है या कि मेरा प्यार मैला है ।

बल्कि केवल यहीं :

ये उपमान मैले हो गए हैं

देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच

कभी बासन अधिक घिसने से मुल्लमा छूट जाता है

मगर क्या तुम , नहीं पहचान पाओगी

तुम्हारे रूप के- तुम हो , निकट हो,

इसी जादू के निजी किस सहज,

गहरे बोध सेकिस प्यार से मैं कहा रहा हूँ

अगर मैं यह कहूँ- चिछली घास हो तुम लहलहाती हवा में

कलगी छाहरी बाजो की आज हम शहरातियों को,

पालतू मालंच पर

संवरी नही के फूल से

मृति के विस्तार का

ऐश्वर्य का- औदार्य का कहीं सच्चा ,

कहीं प्यारा , एक प्रतीक बिछली घास है .

या शरद की माँझ के सून गगन की

पीठिका पर दोलती

कलगी अकेली बाजर की और सचमुच ,

इन्हें जब जब देखता हूँ

यह खुला बीरान संसृति का घना हो सिमट आता है

और मैं एकांत होता हूँ

समर्पित शब्द जादू है

मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है ?

सन् 1960 के बाद की हिन्दी कविता नवीन काव्याभिरुचि , नवीन सौन्दर्य - बोध और नये संवेदन की कविता है । रोमाण्टिक भावुकता के स्थान पर यथार्थपरक बौद्धिकता , संयम , सुरुचि , संतुलन और भद्रता के स्थान पर सच्चाई , साहस और खरापन , मसृण और कोमल के स्थान पर परुष और अनगढ़ की स्वीकृति , समझौता और यथास्थितिवाद के स्थान पर संघर्ष और विद्रोह का आग्रह , परम्परागत मूल्यवादी दृष्टि के स्थान पर अनास्था और मूल्यहीनता का स्वर , अलंकृत भाषा के स्थान पर बेलौस सपाटबयानी तथा आक्रोश , क्षोभ उत्तेजना , तनाव और छटपटाहट आदि संक्षेप में साठोत्तर कविता की प्रमुख विशेषताएँ हैं । '

कलगी बाजरे की ' कविता उक्त विशेषताओं को दृष्टि में रखकर ' अज्ञेय ' द्वारा लिखी गई है । अत : इस कविता में कवि बाजरे की कलगी में सौन्दर्य की सृष्टि करता है । कवि के लिए नभ की अकेली तरिका तथा चम्पे की कली में सौन्दर्य नहीं दीखता , उसे नये उपमान तथा नये प्रतीक कविता के लिए अनिवार्य लगते हैं ।

देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं फँच ।

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है ।

कलगी अकेली बाजर की अज्ञेय की वह बहुचर्चित कविता हैजिसमें उन्होंने नष्ट विंच और प्रतीक नए रचनाशिल्प तथा नयाँ शब्दरचना को अपनाया है । इसका प्रभाव उनकी पुरानी कविताओं से बिलकल भिन्न है । उनकी दृष्टि में परंपरागत प्रतीक बार - बार प्रयुक्त होते रहने के कारण मैले अर्थात् अनुपयुक्त हो गए हैं । अत : ' कलगी बाजरे की ' कविता में चे अपनी प्रिया के लिए नाष्ट प्रतीक का प्रयोग करते हैं । इस कविता में परिवर्तित ग्राकृतिक सौंदर्य बोध दृष्टिगत होता है । तुम हरी विकली अर्थात् बिछाई हुई पास के समान प्रसन्न हो । बाजरे की दुबली - पतली फुर्तीली झूलती कलगी या तुरा हो । आगर मैं तुम्हें . ललाती संध्या में आसमान की अकेली तारिका या नक्षत्र कहता । किंतु अब नहीं कहता । या शरद ऋतु की प्रभात में ओस से न्हायी हुई कुमुद , ताजगी भरी चम्पे की कली आदि तो नहीं कहता , तुम्हें लगता कि मेरा दिल छीछला है या रिक्त - सूना है या तो फिर मेरा प्यार ही मैला अर्थात् अनुपयुक्त है । सिर्फसिर्फ यही बात है कि यह परंपरागत उपमान अब मैले या अनुपयुक्त हो गए हैं , अर्थहीन हो गए हैं । देवता भी इन सब प्रतीको छोड़कर चले गए हैं । सब प्रतीक अर्थहीन बन चुके हैं । 

जैसे वर्तन को बार - बार या अधिक मिसने उसका मुलम्मा घट जाता है , कलई निकल जाती है । तो क्या तुम अपने रूप को पहचान न पाओगी तुम तो तुम्हारे रूप के ही निकट हो , यही इसका जादू है । अपने ही सहज , गहरे बोझ से , किस प्यार से में यह कह रहा हूँ । हाँ अगर मैं यह कहूँ कि तुम बिछली घास हो , हरी - भरी , खुशी से हवा में दोलती दुबली - पतली , फुर्तीली बाजरे की कलगी हो ! तो क्या यह अच्छा नहीं हैं ।

आज हम शहरों में रहनेवालों को पाले हुए मालंच पर सँवरी जुटी के फूल से भले ही लगती हो । वह अपने प्रेम के विषय में नगरवासियों से कुछ सुनना नहीं चाहता । किंतु सृष्टि का विस्तार , ऐश्वर्य और औदार्य का , कहीं सच्चा कहीं प्वारा एक प्रतीक बिछली घास है । प्राकृतिक उपभान विस्तृत , संपन्न हैं । बड़ी उदारता से प्रकृति इन उपमानों को देती हैं । वे सच्चे और प्यारे होते हैं । 

कवि कहते हैं कि सच्चा और प्यारा प्रतीक विकली पास है वा शरद ऋतु की संध्या के सूने - खाली आसमान के आसन या पीठिका पर झूलती अकेली बाजरे की कलगी सच कहूँ- जब जब इन्हें मैं देखता है । तो यह खुला उजड़ा हुआ संसार केंद्रीतभूत सधन होकर , संकुचित हो जाता है और मैं अकेला हो जाता हूँ ' समर्पित ' शब्द जादू ही हैं । तो क्या वह प्यार में किया गया समर्पण कुछ भी नहीं । अज्ञेय ने प्रकृति के बिराट रूप का चित्रण करते हुए सौंदर्यानुभूति , अनुभवों का खुलापन , अटूट प्रेम , समर्पण आदि का दर्शन कराया है । उनकी दृष्टि से वह आत्मानुभूति और मुक्ति का क्षण है ।


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