अंधेरे में/ मुक्तिबोध/UGC/NET/JRF/HINDI
'कविता के नये
प्रतिमान' में डॉ० नामवर सिंह ने 'अंधेरे में'
की
व्याख्या की । पहले तो समीक्षकों ने कविता के नये प्रतिमान में उठाये गये अनेक
पक्षों का खण्डन किया । पत्र- पत्रिकाओं में चर्चा रही । पुस्तक विवादास्पद होने
से लाभ तथा हानि दोनों हुए । लाभ तो यह हुआ कि पुस्तक की बिक्री भली प्रकार हुई और
हानि यह हुई कि डॉ. नामवर सिंह को प्रतिष्ठा पर प्रश्न चिड़ लग गया ।
कविता को कविता के रूप में ही
देखना चाहिए । वाद के घेरे में कवि को डालकर उसे प्रतिबद्ध कवि कहना उसके साथ
अन्याय करना है । आज के युग में कौन ऐसा कवि है जो दीन - दलितों का पक्षधर न हो ?
कौन
ऐसा है जो लघु मानव का पक्ष न ले ? कौन ऐसा है जो सत्ता
में सुधार न चाहता हो ? यह माक्र्सवाद की देन
नहीं अपितु युग की मांग है । यदि मार्क्सवाद के बाण अचूक होते तो रूस से
मार्क्सवाद ध्वस्त न होता । भारत के मार्क्सवादियों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी
चाहिए ।
'मुक्तिबोध'
मानवतावादी
थे , मेरी ऐसी मान्यता है । मानवतावाद
में मार्क्सवाद की कतिपय विशेषताएँ समाविष्ट हो जावें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं । '
मुक्तिबोध
की समस्त कविताओं को मैंने पढ़ा । मैंने कहीं भी नहीं पाया जहाँ '
मुक्तिबोध
' ने अपने को मार्क्सवादी कहा हो ।
तदुपरान्त डॉ ० रामविलास शर्मा तथा डॉ ० नामवर सिंह में जो दर चला,
खण्डन
मंडन चला , उसके विषय में मैं कुछ नहीं कहता
। दोनों ही मार्क्सवादी है परन्तु पत्र पत्रिकाओं ने डॉ० रामविलास शर्मा के कथन का
समर्थन किया । डॉ ० रामविलास शर्मा जैसा वयोवृद्ध सिद्धान्तवादी आलोचक भारत के
मार्क्सवादियों में दूसरा नहीं है ।
अंधेरे में कविता की व्याख्या
अनेक समीक्षकों ने की है । इस कविता को विवेचित ,
विश्लेषित
करने वाली पुस्तकें आज बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं । प्राय : समीक्षकों ने '
अंधेरे
में कविता में परम अभिव्याक्ति की खोज माना है । कवि भी कविता के अन्त में कई
प्रकार का संकेत करता है ।
'अंधेरे में'
कविता
' मुक्तिबोध की कालजयी कविता है ।
इस कविता के मर्मस्परों कथ्य और शिल्प की नवीनता ने आलोचकों के अन्तस्थल में अनेक
प्रश्न उत्पत्र कर दिये है। शहर के बाहर एवं पहाड़ी के उस पार अंधेरे तालाब के
प्रशान्त तथा श्याम शीशे में किसी स्खेत आकृति का उभरना अर्थ व्यंजक है । भविष्य
सूचक युगधर्म को उज्वलता का उद्योजक वह चेहरा करीता है : कुछ अस्पष्ट है । मुसकान
साभिप्राय है । तालाब के आसपास के सघन वन - यक्ष हरे - भरे । जो बहसंख्यक जड़ीभूत
सर्वहारा वर्ग की जीवन्तता के प्रतीक है । अचानक वर्ग संघर्ष की भावना ,
उनके
मावों पर बिजली की तरह कौच जाती है । सर्वा उदेलन छा जाता है और वृक्षों के
अन्धेरे में छिपी तिलस्मी खोह का शिला - द्वार खुल जाता है ।
क्रान्तिमवाहक गुहान्धकार में
प्रविष्ट होकर देखते कि जिजीवषा के विकट संघर्ष में संलय दिव्य पुरुष युद्ध करते
करते लोहुलुहान हो गया है । अकस्मात सुनसान जंगलों से आती हुई हवा ने फूंक मार कर
एकाएक मशाल बुझा दी । कवि भयानक बढे के अंधेरे में आहत ,
क्षत
- विक्षत और अशल होकर कमरे में बन्द पड़ा है । शक्तिहीन है । उसी समय
उसकी यथार्थ अभिव्यक्ति उस तक पहंद पाने के लिए बन्द कमरे का दरवाजा खटखटाती है ।
कवि को विलम्ब होता है । घुग्घू कहता है कि का तुम्हारे कर से रूठकर चला गया । वह
तुम्हारा गुरू या तुम उसके शिष्य हो । तुम्हारा गुरू तुम्हारा परम अभिव्यक्ति थी ।
आगे चलकर दूरागत प्रोसेशन को वाह्य ध्वनि से कवि चौक पड़ता है । इतनी रात को
प्रोसेशन में कवि को कुछ लोगों ने देख लिया । कवि को छाती को संगोन से चोर देने के
लिए उसे गोली से दाग देने के लिये उनको क्षुल्य भीड़ मानो लपक सो पड़ती है। कवि
किसी तरह अपनी जान बचाता है । उसी समय कवि का स्वर टूट जाता है । आगे चलकर
जनक्रान्ति का साथ देता है --
भागता मैं दम छोड़
घूम गया कई मोड़
पागल के माध्यम से बुद्धिजीवी
वर्ग की वास्तविकता को स्पष्ट किया गया है । बुद्धिजीवी ऊपर से तो आदर्श और
सिद्धान्त की बातें करता है परन्तु कायर है । पागल कहता है कि आज आत्मीयता है कहाँ
? सारे आत्मीय सम्बन्धों को तो अर्थ
की वेदी पर अर्पित कर दिया गया है । कवि परेशान है परन्तु सर्वहारा वर्ग से
तादात्म्य स्थापित करता है । उसके मन में स्फूर्ति जागती है । आशा का संचार हो
जाता है । उसके सम्मुख नये दृश्य उभरते हैं - तिलक और गांधी । बाँह में पड़े बच्चे
को कवि को सीप गयी ।
मर गया एक युग
मर गया एक जीवनादर्श ।
कवि अब विद्रोही है,
उसे
बन्दी बनाया जाता है । उसे दारुण यातनाये दो जाती है । प्रात काल कवि देखता है कि
गुहावाला व्यक्ति भीड़ में चला जा रहा है । वह व्यक्ति कवि की परम अभिव्यक्ति उसकी
गुरू, उसे अब उसकी निजता में मिल ही
कैसे सकती है कवि इस परम अभिव्यक्ति की खोज में निरन्तर लगा है।
जहाँ मिल सके मुझे,
मेरी वह खोई हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म - संभवा ।
परन्तु जैसा कहा गया है कि वह परम
अभिव्यक्ति अब मात्र कवि की न रहकर सबकी बन गई है । शमशेर के शब्दों में ,
" यह कविता देश के आधुनिक जन इतिहास का स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात् का एक दहकता
इस्पाती दस्तावेज है । यह कविता अपनी वातावरण निर्माण क्षमता ,
तथा
घनीभूतता की दृष्टि से भी नये काव्य में अद्वितीय है । इसमें एक ओर युग का समूचा
इतिहास अपने बाहरी द्वन्द्वों को लिये मौजूद है । हिन्दी के स्वस्थतम आधुनिक काव्य
सृष्टि का सर्वोपरि विजय चिह्न है । यह कविता '
डॉ.
नामवर सिंह ने ' मुक्तिबोध '
को
आदर्शवादी बनाने का भरसक प्रयत्न किया । आश्चर्य का विषय है कि जिस “मुक्तिबोध'
को
उनके जीवन काल में किसी मार्क्सवादी ने उन्हें नहीं उठाया । उनके निधन के बाद वही
मार्क्सवादी उन्हें सबसे बड़ा कवि सिद्ध करने में जुट गये । यही नहीं ,
किसी
- किसी सामान्य समीक्षक ने तो उन्हें ' अज्ञेय '
से
भी ऊँचा उठा दिया ।मुक्तिबोध के कविकर्म का प्रतिनिधि उपादान है ।
No comments:
Post a Comment