हिंदी साहित्य भक्ति आंदोलन का परिचय
हिंदी साहित्य मध्यकाल राजनीतिक दृष्टि
से मुस्लिम शासकों के उत्थान पतन का युग रहा है । व्यावहारिक दृष्टि से मुस्लिमों
शासन का यह काल भारतीयों की दृष्टि से परतंत्रता का ही माना जा सकता है । किंतु
अकबर जैसे कुछ शासकों को अपवाद रूप में मान्य कर सकते हैं । मुस्लिम शासकों की
धार्मिक दमन की नीति उनकी साम्राज्य विस्तार की लालसा ,
वैभव संपन्नता एवं विलासी प्रवृत्ति के कारण इस काल के
साहित्य तथा संस्कृति को प्रभावित एवं प्रेरित के कारण इस काल के साहित्य तथा
संस्कृति को प्रभावित एवं प्रेरित किया है । स्वधर्म की रक्षा के लिए भक्ति आंदोलन
का आरंभ हुआ ।
अनेक महापुरुषों का इस काल में आविर्भाव हुआ और उन्होंने निर्मल आशाहीन जनता
के मन में भक्ति के माध्यम नवचेतना निर्माण की । भक्ति में श्रद्धा प्रेमभावना
स्पष्ट होती है । वैदिक जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि धार्मिक संप्रदायों के द्वारा जनसाधारण में भक्ति
भावना निर्माण करने के साथ साथ एकता, सामंजस्य भी निर्माण किया । सगुण निर्गुण,
प्रेममार्गी आदि अनेक शाखाओं धाराओं कबीर,
जायसी, सूदास, तुलसीदास, रैदास पीपा, मलूकदास, धन्ना , आदि संतों की काव्यपरंपरा अक्षुण्ण रूप से प्रवाहित होती है
।
भारतीय धर्म साधना कर्म, ज्ञान और भाव पर आधारित है । ज्ञान और कर्म का दृष्टिकोण
अधिकतर सामाजिक रहा और भाव प्रधानता ' भक्ति आंदोलन ' के नाम से पहचानी गई । इसी आंदोलन का सामान्य परिचय देना
आवश्यक है ।
भक्ति आंदोलन का सामान्य परिचय: इ.स. 1359 से 1857 का काल हिंदी साहित्य की दृष्टि से
भक्तिकाल के नाम से जाना जाता है । मुस्लिम शासकों का यह काल मुस्लिमेतरों के लिए
अनेक अन्याय , अत्याचारों
से तापदायक रहा । गैर - मुस्लिमों पर लागू किए गए ' जजिया ' कर , असमर्थक जनता को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य करना ,
हिंदू , धर्म एवं संस्कृति को नष्ट करने के लिए प्रयत्न करना ,
मंदिरों तथा मूर्तियों को नष्ट किया गया । फिर भी लगभग 400
सालों तक के संघर्षो में भी भारतीय धर्म एवं उदात्त संस्कृति नष्ट नहीं हुई ।
नैतिक मनोबल को प्रबल साहस प्रदान किया , इसका बिच तत्कालीन साहित्य में उभरकर आया है । स्वधर्म
रक्षक आंदोलनों के सूत्रपात और मुस्लिम धार्मिक दमन नीति का विरोध करने के लिए ही
साहित्य के क्षेत्र में भक्ति आंदोलन का उदय हुआ । मुस्लिमों में साम्राज्य
विस्तार की लालसा प्रबल थी अत : मुस्लिम शासकों की सेना सात-आठ सौ सालों तक संघर्ष
में व्यस्त रही ।
इन युधों का प्रभाव साहित्य पर अधिक पड़ा । राज्याश्रमित साहित्यकार हमेशा
अपने आश्रयदाताओं की वीरता की प्रशंसा करते रहे । कवि अपने पूर्वजो द्वारा किए गए
युद्धों को लेकर ऐतिहासिक, प्रशस्तिपत्रक काव्य ग्रंथों की रचना करने लगे । साम्राज्य विस्तार के साथ ही
मुस्लिम शासक ऐश्वर्य एवं विलास प्रेमी थे। औरंगजेब के अतिरिक्त लगभग सभी मुस्लिम
शासकों में यही प्रवृत्ति दिखाई देती हैं । कहा जाता है कि मुस्लिम शासकों का जीवन
मांस ,
मदिरा और नारी पर बहुत कुछ आश्रित था । इसका प्रभाव अन्य
शासकों एवं कवियों पर पड़ा ।
राज्याश्रय में श्रृंगारी काव्य रचना रसिकता , विलासिता के भावों से परिपूर्ण रही है । यह रसिकता धार्मिक
क्षेत्र में प्रविष्ट हो गई और ' रसिक भक्ति शाखा ' जैसी विकृत धार्मिक परंपराओं का निर्माण हुआ । हिंदुओं
हिंदी घटक 9 ते 10 धार्मिक आंदोलन को ठोस संरक्षण दक्षिण भारत में मिला ।
ग्यारहवीं - बारहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में हिंदू राज्य पतनोन्मुख हो रहा था,
उसी समय दक्षिण के विभिन्न राज्यों में भारतीय संस्कृति एवं
धर्म की एक नव - चेतना निर्माण हो रही थी । आठवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी के
मध्य तक अनेक आचार्य एवं महापुरुष दक्षिण भारत में ही आविर्भूत हुए । शंकराचार्य ,
रामानुजाचार्य , निम्बार्क , माध्वचार्य , सायणाचार्य , वल्लभाचार्य आदि के नाम ले सकते । सकता है कि मुस्लिम
आक्रमण के विरोध में उत्तर भारत में नव-उद्दी आंदोलन की पृष्ठभूमि ,
प्रवर्तन एवं पथप्रदर्शन दक्षिण के धार्मिक प्रणेताओं ,
विचारकों ने ही किया है ।
भारतीय संस्कृति की प्रकृति मूलतः धार्मिक रही । भारतीय इतिहास की सभी महान
उपलब्धियाँ धार्मिक भावना से संबद्ध रही है । रामराज्य या धर्मराज्य में प्रजा
कल्याण तथा राजा के सर्वस्व त्याग की भावना निहित है । ऋग्वेद से रामायण तक कम अधिक
मात्रा में धर्म की भावना दिखाई देती है । भावना प्रधान कर्म ही भक्ति - भावना बन
गया । श्रद्धा , प्रेम
,
रसिकता भक्ति से जुड़ गए ।
श्री संप्रदाय : इस संबध में प्रथम प्रयास श्री संप्रदाय के प्रथम आचार्य श्री
रघुनाथाचार्य या नाबमुनि को है । इनका आविभाव नवीं शताब्दी में त्रिचनापल्ली में
हुआ था । आगे चलकर इस 1017-1137 में श्री रामानुज ने अपने ग्रंथ - वेदांतसार ,
वेदांत संग्रह , वेदांतदीप , गीताभाष्य आदि ग्रंथों में ब्रह्मसूत्रों एवं गीता की नवीन
व्याख्या प्रस्तुत की और अपनी अन्य रचनाओं में श्री संप्रदाय के सिद्धांतों को
स्पए रूप दिया । इस संप्रदाय के सिद्धांतों को 'विशिष्मावाद' की संज्ञा दी गई । इस मतानुसार आत्मा और परमात्मा ,
जीव और ब्रह्म मूलतः एक ही हैं,
किंतु दोनों में शक्ति एवं गुण के परिणाम की भिन्नता है ।
आत्मा और परमात्मा के एकत्व में भी गुण और परिणाम की भिन्नता है । जीव का ब्रह्म
में लय हो जाने में लघुता , हीनतादि का अनुभव होता है यद्यपि वह ब्रह्म का ही अंश है ।
शंकराचार्य अद्वैत जीव की हीनता , लघुता को मायापोषित अजान मानते हैं तो समानुज ने इसे
वास्ताविक रूप में मान्य किया है । अपनी अल्प शक्ति के कारण जीव अधिक हिंदी पटक ०9
ते 10 शक्तिशाली की भक्ति करता है । जगत् भी ब्रह्म के द्वारा निर्मित उसका एक अंश
है और वह मिथ्या नहीं है । विशिष्टाद्वैत विभिन्न रूपों में ब्रह्म की अभिव्यक्ति
मानते हैं , और
जीव और जगत् भी उसी अभिव्यक्ति के रूप हैं । रामानुज के परब्राह्य जगत् की सृष्टि
आत्माभिव्यक्तिजन्य आनंद के लिए अपनी लीला की प्रदर्शित करते हैं जो एक कलाकार
सिद्ध होते हैं ।
सनक संप्रदाय : इस संपदाय में ' वैताद्वैत सिद्धांत की स्थापना की गई है । इसके सर्वाधिक
सशक्त आचार्य निम्बार्क है । उन्होंने ब्रह्मसूत्र का नया भाष्य '
वेदांत पारिजात सौरभ तथा दशश्लोकी ग्रंथों की रचना की हैं।
इस सिद्धांत के अनुसार ब्राय और जीव का संबंधन अद्वैत है न दुबैत । एक दूसरे से
अलग रहने के कारण लय होने के बाद भी वे पुनः अद्वैत स्थिति प्राम करते हैं अत :
ट्वैत और अद्वैत दोनों स्थितियाँ उन्हें मान्य है। वेतावस्था में जीव को ब्रह्म
प्राप्ति के लिए भक्ति का साधन उपयुक्त है । इस संप्रदाय में राधा - कृष्ण की ही
उपासना का स्वीकार किया गया है ।
ब्रह्म संप्रदाय: इसके प्रवर्तक है मध्वाचार्य । इन्होंने ट्वैतवाद '
की सियात की स्थापना की । इनके मतानुसार मूलत : एक विष्णु
ही अविनाशी ब्रह्म है , शेष सृष्टि और जीव ब्रह्म से उत्पन्न है । ब्रहा स्वतंत्र है जीव परतंत्र है
अत : दोनों के एक नहीं माना जा सकता । साधना के द्वारा जीब ब्रह्म के निकटता से
प्राप्त आनंद की अनुभूति कर सकता है । जीव का ब्रह्म के निकट पहुँचना ही '
मुक्ति ' है । यह मत शंकराचार्य के मत निकट तथा भक्तिमत के अनुकूल है
।
शुद्बाद्वैतवाद: वल्लभाचार्य ने इ.स. 1479-1530 में शुद्धाद्वैतवाद की स्थापना की । शंकराचार्य ब्रह्म सत्य
,
जगत् मिथ्या और दोनों को प्रकृति से भिन्न मानते हैं । इससे
आभास होता है कि संसार में दो प्रकार की सत्ताएँ विद्यमान हैं अत : शंकराचार्य का
अद्वैतवाद अशुदा है । उनके शुद्धबैत बाद में ब्रा , जीव और जगत् तीनों मूलतः एक हैं । ब्रह्म में सत ,
चिद और आनंद गुण विदयमान है लिलालोलुप ब्रह्म स्वयं को जीव
और जगत के प्रतीयमान रूप में स्वत : व्यक्त करता है । माया को वे ब्रह्म की
इच्छाशक्ति या लीला रूप में मान्य करते हैं । यह मत अद्वैतवाद का नया संस्करण है
और भक्ति - मार्ग के अनुकूल है । मध्यकाल के धार्मिक आंदोलनों को विकसित करने एवं
उनके लिए मजबूत पृष्ठभूमि तैयार करने में विशिष्त , वैताद्वैत वैत , शुद्धाद्वैत संप्रदार्थों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
इन सिद्धांतो में अवैतवाद का खंडन करके उसे भक्ति के अनुकूल बनाया गया अर्थात्
अनेक आचार्यों ने अवैत और भक्ति में समन्वय स्थापित किया । विशेष रूप में महानुभाव
,
वारकरी , संप्रदायय , कबीरपंच , दादूपंच सिक्ख धर्म आदि में यह देखा जाता है । सामान्यतः उन
सबको '
संत मत ' कहा गया है किंतु संतों की पद्घती दर्शनिक नहीं थी वह या
व्यावहारिक एवं काव्यात्मक । भक्ति - भावना का यथार्थ रूप तो बधा समन्वित प्रेम ही
है ।
मध्यकाल में भक्ति का जो स्प विकसित हुआ उसके दो भेद हैं । एक रामानंद एवं
दूसरी वैधी । रामानंद भक्ति पर भागवत पुराण में बल दिया है । विभिन्न संप्रदायों
में इसके प्रेम प्रधान शक्ति को महत्व प्राम हुआ । चैतन्य संप्रदाय के अनुयायी रूप
गोस्वामी ने भक्ति के शांता , प्रीता , प्रेयसी , अनुकंपा तथा कांता भेद माने है और उनके शांत ,
दास्य , सख्य वात्सल्य और माधुर्य भाव को प्रतिक्षित किया है ।
इनमें माधुर्यं भाव को अधिक स्थान मिला ।
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