डॉ. नगेंद्र की आलोचना पद्धतिःugc/net jrf//हिंदी समीक्षा//
हिंदी समीक्षा के इतिहास में आचार्य नगेंद्र उस जटिल समय में पर्दापण करते हैं जब आचार्य शुक्ल आलोचना कर्म से दूर हुए थे तथा उनकी मान्यताएँ तत्कालीन छायावादी साहित्य के जीवन पर संकट के रूप में विद्यमान थीं । शुक्ल जी की मान्यताओं के विरोध में स्वच्छंदतावादी आलोचकों की एक वृहत्त्रयी उभरी थीं , जिसमें नंददुलारे वाजपेयी व शांतिप्रिय द्विवेदी के साथ डॉ. नगेंद्र को भी शामिल किया जाता है । डॉ. नगेंद्र का मूल योगदान छायावाद के महत्त्व की स्थापना से शुरू होकर वैश्विक साहित्यशास्त्र के निर्माण के प्रयास तक विस्तृत है ।
आलोचक की आलोचना पद्धति मूलतः उसके जीवन और साहित्य कावधी दृष्टिकोन का हो
किस्तार होती है । अतः सबसे पहले उत्त मूल दृष्टिकोण को समझाना आवश्यक है ।
डॉ. नगेंन्द्र अपने मूल दृष्टिकोण में रसणाटी और
व्यक्तिवादी आलोचक हैं । रसवादी
होने का अर्थ है कि वे साहित्य तथा अन्य कलाओं का उदेश्य रस की निष्पत्ति और
साधारणीकरण मानते है । रस की उत्पत्ति पूरे समाज में होती है और उसकी पद्धति मूलतः
पक्तिक ही होती है । यही कारण है कि डॉ . नगेन्द्र जब आलोचना करते हुए साहिला की
सिर्फ उद्देश्य को अनुकूलता में पहचान करते हैं तो सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भ
उन्हें आवश्यक नहीं लगते । इस प्रकार इतकी समीक्षा पद्धति साहित्य की व्याखमा
साहित्य के सिद्धांतों से करती है और साहित्य के उद्देश्य के अनुरूप शिल्प या कला
के पक्ष को पर्याप्त महत्त्व देती है ।
आधुनिक हिंदी आलोचना पर पश्चिम के प्रभाव को चर्चा प्रायः की जाती हैं । इस
दृष्टि में कहीं - कहीं डॉ. नगेद्र भी सिंगमंड फ्रायड की मनोविश्लेषणवादी
मान्यताओं से प्रभावित प्रतीत होते हैं । फ्रॉयड मान्यता श्री कि अचेतन मन में
विद्यमान दमित भाव जब जीवन शक्ति से प्रेरित होकर व्यक्त होते हैं जो साहित्य एवं
अन्य कलाओं का जन्म होता है।
डॉ. नगेन्द्र की कुछ व्यावहारिक समीक्षाएँ फ्रायड के सिद्धांतों से जुड़ी हुई
दिखती हैं । तुलसी और नारी', ' देव और उनकी कविता' के अतिरिक्त हरिकृष्ण प्रेमी के नाटकों के विवचन में भी यह
प्रभाव स्पष्ट रूप दिखाई देता है।
सैद्धांतिक रूप से देखें तो 1943 में लिखित उनके निमंध ' छायावाद परिभाषा यह प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है तथा परवर्ती निबंधों को
साहित्य प्रेरणा तथा साहित्य में आत्माभिव्यक्ति में और गहरा होता गया है । इतना
अवश्य है कि वह फ्रॉयड की मान्यताओं को वैसा का वैसा स्वीकार करके उसमें चेतन जीवन
को भी जोड़ देते हैं ।
'मिथक और साहित्य' में स्पष्टतः लिखते हैं कि साहित्य काफी अंशों में वैयक्तिक
अवचंतन की ही नहीं व्यक्ति को चेतन की मी सृष्टि है ।
डॉ. नगेंद्र ने अपनी व्यावहारिक समीक्षा का आरंभ लायावाद पर कुछ निबंधों के
माध्यम से 1937 ई .
में किया । इसके अतिरिक्त इसी समय में उन्होंने अपनी पहली पुस्तक '
सुमित्राननन पंत ' लिखी । उनकी मान्यता थी कि आचार्य शुक्ल ने जो छायावाद की
समीक्षा की थी उसके खंडन के अभी तक के प्रयास कुछ महत्वपूर्ण होते हुए भी पर्याप्त
नहीं है । वे मानते हैं कि ' शांतिप्रिय द्विवेदी ' ' छायावाद के रस का आस्वादन तो करा सका लेकिन स्वरूप स्पष्ट
नहीं कर सके । दूसरी ओर नद दुलारे वाजपेयी के संबंध में में स्पष्टतः स्वीकार करते
हैं कि ये पहले व्यक्ति है जिन्होंने " निर्भीक और नित्ति होकर छायावाद के
महत्व को स्वीकृत और प्रतिष्ठित किया । " इतना होने के बाद भी वे यह करते
थे कि वाजपेयी जी छायावाद की व्याख्या में दार्शनिकता का डॉ. नगेंद्र अनावश्यक
आवरण चढ़ाते रहें और " कलापक्ष में इन्हें जैसे कुछ कहने को न था । " इस
पृष्ठभूमि पर ने छायावाद की समीक्षा एक ऐसे दृष्टिकोण से करनी आरम की जिसमें
आध्यात्मिकता का स्थान मनोश्विलेषण ने लिया तथा कथ्य का स्थान बहुलाश में शिल्प को
मिलने लगा । पत पर लिखी उनकी पुस्तक को आचार्य शुक्ल इतना होने । यह महसूस ने भी ' ठीक - ठिकाने की पुस्तक ' कहकर प्रशंसित किया , ' कामायनी के अध्ययन की समस्याएं ' में उनका मनावैज्ञानिक और कलात्मक दृष्टि पूरी गहराई से
व्यक्त हुई ।
व्यावहारिक समीक्षा में छायावाद के अतिरिक्त जिस युग पर डॉ. नगेंद्र की लेतना
सक्रिय हुई वह है रीतिकाल उन्होंने गहरे अध्ययन और शोध के बाद ' रीतिकाल की भूमिका ' तथा ' देव और उनकी कविता ' ये दो पुस्तक लिखी।
रीतिकाव्य के संदर्भ में इन पुस्तकों को सामाजिक प्रतिमानों की दृष्टि से तो नहीं
किंतु शास्त्रीय दृष्टि से आलोचना का प्रतिमान माना जाता है । उन्होनें न केवल
भक्तिकाल और रीतिकाल के जटिल संबंधों को स्पष्ट किया बल्कि रीतिकाल के भीतर ' अपराध - बोध ' के माध्यम से भोगवादी शृंगार तथा नैतिकता जैसे विरोधी भावों
को एक साथ दद्वात्मक उपस्थिति को भी व्याख्यायित किया । रीतिकाव्य के अतिरिक्त
व्यावहारिक समीक्षा में उन्होंने ' कुरुक्षेत्र ' और ' उर्वशी ' जैसी
रचनाओं पर तो लिखा हो . समकालीन साहिता पर ही पर्याप्त लिखा । जिसमें 'नई कविता' नो समीक्षा ' जैसे विषम प्रमुख रहे । कहाते को बनाने माहित्यिक निध मानने
में रूचि नहीं दिखाई ।
समीक्षा के इतिहास में डॉ. नगेद्र का महत्व जितना व्यवहारिक समीक्षा के कारण
है उसने का अधिक सैद्धांतिक समीक्षा के कारण है । सैद्धांतिक समीक्षा के प्रति
उनका रूझान 1939 से ही होने लगा था । जप उन्होंने पश्चिम के मनोवैज्ञानिक और नए समीक्षक आई.ए.
रिपइंस यो पुस्तक ' प्रिसीपल ऑफलिटरेरी क्रिटिमिन्म ' से प्रभाजित होकर ' साहित्य में कल्पना का उपयोग ' शीर्षक से सैद्धांतिक निबंध लिखा । सैद्धातिक चिंतन को यह प्रेरणा
धीरे धीरे बढ़ती गई और 1946 में देव और उनको कविता लिखते समय उनको मानसिकता में गहरा परिवर्तन हो गया । ' आस्था के चरण ' में स्वयं लिखते हैं -रीतिकाव्य के अध्यापन के समय में
भापतारिया आलोचना से सैद्धातिक आलोचना की ओर आकृष्ट हो चला था । " इसक आर को
प्रायः पूर्ण समीक्षा गर्म सैद्धातिक समीक्षा से जुड़ी रही है ।
डॉ. नगेंद्र की सैद्धातिक आलोचना का वास्तविक विकास पर्व दशक में दिखाई देने
लगता है । जब ' साहित्य के मान', ' कविता क्या है ' और ' साहित्य का धर्म ' जैसे निबंध और ' भारतीय काव्यशास्त्र ' की भूमिका जैसा
ग्रंथ प्रकाश में आता है । सैद्धातिक चिंतन को पराकाष्ठा 1964
में रचित उनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक रस सिद्धांत ' में हुई, जिसमें उन्होंने अनुभूति तत्व को विशेष महत्व देते हुए
साधारणीकरण को एक मौलिक राणा महत्त्वपूर्ण व्याख्या की । आचार्य शुक्ल की ' रस मीमांसा ' में लोक भगल का तत्व अनिवार्यतः निहित होने के कारण छायावाद
का आत्मपरक साहित्य उसके माध्यम से अपना महत्व नहीं प्राप्त कर पा रहा था, लेकिन
नगेन्द्र द्वारा की गई आत्मनिष्ठ आनंदवादी व्याख्या से छायावादी कविताएँ , भी रसात्मक प्रतिमानों पर खरी उतरने लगी।
डॉ नगेन्द्र ने सैद्धातिक समीक्षा में एक महत्वपूर्ण कार्य यह भी किया कि
सिद्धांत - चितन की मूल रचनाओं को अनुवाद के माध्यम से हिंदी के पाठक तक पहुँचाया
। इस दृष्टि में उन्होंने संस्कृत के ' ध्वन्यालोक ' , ' वक्रोक्तिजीवित ' , ' काव्यलकार प्रवृत्ति ' आदि प्रथा को हिंदी में प्रस्तुत किया ही पश्चिम की मूल
रखनाओं जैसे- ' अरस्तु का काव्यशास्व ' ,
' काव्य में उदात्त तत्व को भी हिंदी जगत के सामने रखा । इसमें सैद्धातिक चितन उस
शास्त्रवादी स्थिति से मुक्त हुआ , जिसमें मुल मिण को पड़े बिना उसके सियांतों की चर्चा की
जाती थी ।
डॉ. नगेंद्र की समीक्षा पद्धति का अंतिम चरण यह है जहाँ वे पश्चिमी साहित्य
चितम के विषयों में रस हुए । यह प्रवृत्ति यूं तो उनके शुरुआती समय में ही दिख
चुकी थी ,
किंतु 1970 के आसपास पुनः विकसित हुई तथा ' काव्य विव ' , ' नई समीक्षा नए सदर्भ ' जैसी पुस्तका में दिखाई दी । पश्चिमी पद्धति और सिद्धांतों
को हिंदी पाठकों तक पहुंचाने का यह माह उनमें उत्तरोगार बढ़ता गया तथा अपने रचनाकाल
के उत्तरार्द्ध में उन्होंने शैली विज्ञान,
" मिथक और साहित्य ' और ' साहित्य का समाजशास्व ' जैसे नविन और गंभीर विषयों पर लिखने का साहस किया । इन
विषयों का चितन पर उनके चिंतन से मेल नहीं खाता, किंतु इतना अवश्य है कि पश्चिम के सिद्धातों को उनके मर्म
के साथ समझाने में ये प्राय : सफल रहे है ।
समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि डॉ. नगेंद्र हिंदी समीक्षा के वे स्तंभ
हैं जिनका समीक्षा कर्म परिमापण, अनुशासन, निरंतरता तथा गुणवत्ता सभी दृष्टियों से अत्यधिक महत्वपूर्ण
है,
उन्होंने न केवल हागावाय के लिए आलश्याम सैशतिक और व्यावहारिक
समीक्षा के प्रतिमान दिए, न केवल रीतिकाव्य जैसे उपेक्षित प्रसंग को समझने समझाने का भागीरथ प्रयास किया
,
बल्कि उससे आगे बढ़कर पश्चिमी साहित्य सिद्धातों का गहरा
अध्ययन करके उन मिलाकर एक वैश्विक साहित्य शास्त्र बनाने का भी प्रयास किया इस
चुनौती को वे आपले ही शब्दों में व्यस्त करते हुए कहते हैं
"भारतीय तथा पश्चिमी दर्शनों की तरह यहाँ के
काव्यशास्त्र भी एक दूसरे के पूरक हैं और इसके आधार पर हमारे अपने साहित्य की
परंपरा के अनुकूल एक संश्लिष्ट आधुनिक काव्यशास्त्र का निर्माण संभव है ।"
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