Monday, 17 May 2021

 जैन-साहित्य की विशेषताएँ/हिंदी साहित्य/UGC/NET/JRF/PYQ

जैन-साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं---

(1) विषय की विविधता- जैन साहित्य धार्मिक साहित्य होते हुए भी सामाजिक , धार्मिक , ऐतिहासिक विषयों के साथ ही लोक आख्यान की अनेक कथाओं को अपनाता है । रामायण एवं महाभारत से सम्बनित कथाओं को भी जैन कवियों ने अत्यधिक दक्षता के साथ अपनाया है । जहाँ तक सामाजिक विषयों का सम्बन है , जैन रचनाओं में लगभग सभी प्रकार के विषय पाये जाते हैं ।

(2) उपदेशमूलकता - जैन साहित्य की मुख्य प्रवृत्ति उपदेशात्मक है । इसके मूल में धर्म के प्रति दर आस्था और उसका प्रचार है । इसके लिए जैन - कवियों ने दैनिक जीवन की प्रभावोत्पादक घटनाएँ , आध्यात्मिद पोषक तत्व , चरित - नायकों , श्लाका - पुरुषों , आदर्श श्रावकों , तपस्वियों तथा पात्रों के जीवन का वर्णन किया है । इसीलिए यहाँ उपदेश उपस्थित होने पर भी शुष्कता नहीं है ।

(3) तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ चित्रण - जैन कवि राजाश्रय-रहित थे । राजाश्रय का दबाव और दरबारी अतिरंजता से उनकी रचनाएँ मुक्त हैं । इसीलिए उनकी रचनाओं में तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ चित्रण प्राप्त होता है । आदिकालीन आचार-विचार , समाज , धर्म , राजनीति आदि की वास्तविक स्थितियों पर प्रकाश डालने में ये रचनाएँ पर्याप्त रूप से सहायक होती हैं ।

(4) विश्वसनीय साहित्य आदिकालीन सिद्धनाथ साहित्य की कृतियों की जो कतिपय हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं , उनमें से अधिकांश 17 वीं शताब्दी की हैं , इसलिए उनके मूल रूप पर 17 वीं शताब्दी की भाषा के क्षेपक दिखाई देते हैं । लगभग 11 वीं से 15 वीं शताब्दी तक की बोलियों का प्रान्तीय भाषा में लिखा हुआ यह साहित्य अनेक हस्तलिखित प्रतियों के रूप में सुरक्षित है । कुछ प्रतियाँ तो मूल लेखकों की भी कही जाती हैं । साथ ही 12 वीं से लेकर 15 वीं शताब्दी के प्रत्येक चरण की रचनाएँ पर्याप्त संख्या में मिलती हैं । हस्तलिखित प्रतियाँ भी सुरक्षित हैं । इसीलिए अन्य साहित्य की अपेक्षा जैन - साहित्य आज अधिक विश्वसनीय कहा जा सकता है ।

(5) शान्त या निर्वेद प्रमुख रस - जैन - साहित्य में करुण , वीर , श्रृंगार आदि सभी रसों की सफल निष्मति हुई है । ' नेमिचन्द्र चउपई ' में करुण , ' भरतेश्वर बाहुबली ' में वीर तथा ' स्थूलिभद्र फागु ' में शृंगार रस की प्रभावपूर्ण निष्पत्ति पायी जाती है । इन सभी कृतियों के अन्त में शान्त या निर्वेद सभी रसों पर प्रभावी हो जाता है । इसलिए यह कहना असंगत नहीं होगा कि जैन - साहित्य में रसराज शान्त अथवा मूलभाव निर्वेद है ।

(6) काव्य - रूपों में विविधता- जैन साहित्य काव्य रूपों के क्षेत्र में भी सम्पन्न है । इसमें रास , फागु , छप्पय , चतुष्पादिका , प्रबन्ध , गाथा , चंचरी , गुवबिली , गीत , स्तुति , माहत्य , उत्साह आदि प्रकार पाये जाते हैं । अपभ्रंश के अनेक काव्य - रूपों का प्रयोग जैन कवियों ने अपनी रचनाओं में किया है । अधिकांश काव्य - रूप ऐसे भी हैं , जिनके उद्भव का श्रेय जैन - साहित्य को जाता है ।

(7) लोक - भाषा की प्रतिष्ठा--जैन साधु ग्राम -ग्राम एवं नगर - नगर घूमकर धर्म प्रचार करते थे , इसीलिए उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए लोक - भाषा का प्रयोग करके उसे प्रतिष्ठा प्रदान की है ।

(8) गद्य की प्राचीनतम रचनाएँ - अनेक पद्य रचनाओं के साथ जैन - साहित्य में गद्य रचनाएँ भी पायी जाती रही हैं । आराधना , अतिचार , बालशिक्षा , पड़ावश्यक , बालावबोधि , कल्याण - मन्दिर बाला , भक्तामर स्तोत्र बाला , श्रावक वृद्दतिचार आदि अनेक रचनाएँ 14 वीं शताब्दी की ज्ञात - अज्ञात जैन - लेखकों की उपलब्धि हैं । गद्य के साथ - साथ गद्य - काव्य को जन्म देने का श्रेय भी आदिकाल के हिन्दी जैन - साहित्य को ही है । 14 वीं शताब्दी की श्री माणिक्य सुन्दर सूरि - कृत पृथ्वीचन्द ' को वाग्विलास गद्य - काव्य की परम्परा का उन्मेष करने वाली प्राचीनतम एवं शीर्ष कृति माना जा सकता है ।

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