जैन-साहित्य की विशेषताएँ/हिंदी साहित्य/UGC/NET/JRF/PYQ
जैन-साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं---
(1) विषय की विविधता- जैन साहित्य धार्मिक साहित्य
होते हुए भी सामाजिक , धार्मिक ,
ऐतिहासिक
विषयों के साथ ही लोक आख्यान की अनेक कथाओं को अपनाता है । रामायण एवं महाभारत से
सम्बनित कथाओं को भी जैन कवियों ने अत्यधिक दक्षता के साथ अपनाया है । जहाँ तक
सामाजिक विषयों का सम्बन है , जैन रचनाओं में लगभग सभी प्रकार
के विषय पाये जाते हैं ।
(2) उपदेशमूलकता - जैन साहित्य की
मुख्य प्रवृत्ति उपदेशात्मक है । इसके मूल में धर्म के प्रति दर आस्था और उसका
प्रचार है । इसके लिए जैन - कवियों ने दैनिक जीवन की प्रभावोत्पादक घटनाएँ ,
आध्यात्मिद
पोषक तत्व , चरित - नायकों , श्लाका - पुरुषों ,
आदर्श
श्रावकों , तपस्वियों तथा पात्रों के जीवन का वर्णन किया है । इसीलिए
यहाँ उपदेश उपस्थित होने पर भी शुष्कता नहीं है ।
(3) तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ
चित्रण - जैन कवि राजाश्रय-रहित थे । राजाश्रय का दबाव और दरबारी अतिरंजता से उनकी
रचनाएँ मुक्त हैं । इसीलिए उनकी रचनाओं में तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ चित्रण
प्राप्त होता है । आदिकालीन आचार-विचार , समाज ,
धर्म
, राजनीति आदि की वास्तविक स्थितियों पर प्रकाश डालने में ये
रचनाएँ पर्याप्त रूप से सहायक होती हैं ।
(4) विश्वसनीय साहित्य आदिकालीन सिद्धनाथ
साहित्य की कृतियों की जो कतिपय हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं ,
उनमें
से अधिकांश 17 वीं शताब्दी की हैं , इसलिए उनके मूल रूप पर 17 वीं
शताब्दी की भाषा के क्षेपक दिखाई देते हैं । लगभग 11 वीं से 15 वीं शताब्दी तक की
बोलियों का प्रान्तीय भाषा में लिखा हुआ यह साहित्य अनेक हस्तलिखित प्रतियों के
रूप में सुरक्षित है । कुछ प्रतियाँ तो मूल लेखकों की भी कही जाती हैं । साथ ही 12
वीं से लेकर 15 वीं शताब्दी के प्रत्येक चरण की रचनाएँ पर्याप्त संख्या में मिलती
हैं । हस्तलिखित प्रतियाँ भी सुरक्षित हैं । इसीलिए अन्य साहित्य की अपेक्षा जैन -
साहित्य आज अधिक विश्वसनीय कहा जा सकता है ।
(5) शान्त या निर्वेद प्रमुख रस - जैन - साहित्य में
करुण , वीर , श्रृंगार आदि सभी रसों की सफल
निष्मति हुई है । ' नेमिचन्द्र चउपई '
में
करुण , ' भरतेश्वर बाहुबली ' में वीर तथा '
स्थूलिभद्र
फागु ' में शृंगार रस की प्रभावपूर्ण निष्पत्ति पायी जाती है । इन
सभी कृतियों के अन्त में शान्त या निर्वेद सभी रसों पर प्रभावी हो जाता है । इसलिए
यह कहना असंगत नहीं होगा कि जैन - साहित्य में रसराज शान्त अथवा मूलभाव निर्वेद है
।
(6) काव्य - रूपों में विविधता- जैन साहित्य काव्य
रूपों के क्षेत्र में भी सम्पन्न है । इसमें रास , फागु ,
छप्पय
, चतुष्पादिका , प्रबन्ध ,
गाथा
, चंचरी , गुवबिली ,
गीत
, स्तुति , माहत्य ,
उत्साह
आदि प्रकार पाये जाते हैं । अपभ्रंश के अनेक काव्य - रूपों का प्रयोग जैन कवियों
ने अपनी रचनाओं में किया है । अधिकांश काव्य - रूप ऐसे भी हैं ,
जिनके
उद्भव का श्रेय जैन - साहित्य को जाता है ।
(7) लोक - भाषा की प्रतिष्ठा--जैन साधु ग्राम -ग्राम
एवं नगर - नगर घूमकर धर्म प्रचार करते थे , इसीलिए उन्होंने अपनी
अभिव्यक्ति के लिए लोक - भाषा का प्रयोग करके उसे प्रतिष्ठा प्रदान की है ।
(8) गद्य की प्राचीनतम रचनाएँ - अनेक पद्य रचनाओं के
साथ जैन - साहित्य में गद्य रचनाएँ भी पायी जाती रही हैं । आराधना ,
अतिचार
, बालशिक्षा , पड़ावश्यक ,
बालावबोधि
, कल्याण - मन्दिर बाला , भक्तामर स्तोत्र बाला
, श्रावक वृद्दतिचार आदि अनेक रचनाएँ 14 वीं शताब्दी की ज्ञात
- अज्ञात जैन - लेखकों की उपलब्धि हैं । गद्य के साथ - साथ गद्य - काव्य को जन्म
देने का श्रेय भी आदिकाल के हिन्दी जैन - साहित्य को ही है । 14 वीं शताब्दी की
श्री माणिक्य सुन्दर सूरि - कृत पृथ्वीचन्द ' को वाग्विलास गद्य -
काव्य की परम्परा का उन्मेष करने वाली प्राचीनतम एवं शीर्ष कृति माना जा सकता है ।
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