कामायनी जयशंकर प्रसादः-
“कामायनी में भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की साहित्यिक
व्याख्या प्रस्तुत की गई है और इस बहाने विश्व की वर्तमान समस्याओं का समाधान प्रस्तुत
करने की कोशिश की गई है ।" इसके अनेक दृष्टिकोणों को समझना ही कामायनी की
वास्तविकता को समझना है । इसमें बहुत ही कम पात्र हैं ,
संक्षेप में जगत् की झाँकी , मनोभावों का सुन्दर चित्रण किया गया है । कलात्मक भूमिका पर
भी कामायनी का गौरव और महत्व असंदिग्ध है।
भाषा , प्रतीक
और बिम्ब की दृष्टि से कामायनी का कला वैभव छायावाद की समस्त विशेषाओं का निदर्शक
है ,
तो भावात्मक भूमिका पर उसमें आए रस,
प्रेम, प्रकृति, सौंदर्य, आनन्द, मानवता और जीवन के निर्माणकारी मूल्यों का विनियोग हुआ हैं
। रूपक - प्रयोग , मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के कारण तो कामायनी और भी महनीय हो गयी है।
तात्पर्य यह है कि कामायनी प्रसाद के जीवनानुभवों का निचोड है ,
उनके समस्त चिन्तन का काव्यात्मक निष्कर्ष है ।
कामायनी एक साथ मनु और श्रध्दा की पुरूष और नारी की एवं मनोभावों के विकास की कथा है । कामायनी की कथा एक अवलंब ( आधार ) माना है । कामायनी के कुल पंद्रह सर्गों का नामकरण निम्न प्रकार से किया गया हैं । कथावस्तु में कथ्य पर क्रमशः प्रकाश डाला जा रहा है-- चिन्ता,निर्वेद,संघर्ष,आशा,लज्जा,श्रद्धा,ईर्ष्या,दर्शन,काम, इडा,रहस्य, वासना,आनन्द....
जयशंकर प्रसाद ने इस रचना में मनु के माध्यम से युग - युग के मानव का और श्रध्दा के माध्यम से युग - युग की नारी का मनोवैज्ञानिक , सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । बीसवीं शताब्दी की महनीय उपलब्धि के रूप में कामायनी दार्शनिक , सांस्कृतिक , मनोवैज्ञानिक और कलात्मक वैशिष्टय का समीकृत रूप लेकर आई है । ' चिन्ता ' सर्ग से लेकर “ आनन्द ' सर्ग तक की यात्रा करता हुआ यह काव्य हिमगिरी की एक चेतनता से समरस होनेवाले मनु के जीवन का इतिहास है । इसके प्रमुख पात्र मनु , श्रद्धा और इडा हैं , जो इच्छा , क्रिया और ज्ञान के प्रतिनिधि हैं ।
चिंता-- वे
मानवजाति के आदि पुरूष और देव जाति के एक शक्तिशाली पुरूष भी माने जाते हैं । एक
समय था कि जब देव जाति की दृढ प्रतिष्ठा थी , परंतु जलप्रलय हुआ और देवजाति का विनाश हुआ । उनमें से केवल
मनु जीवित रहे।इस सर्ग के आरंभ में मनु हिमालय की एक ऊँची चोटीपर बैठे हैं । उनके चारों
ओर जल ही जल है। विनाश के इस दृश को देखकर मनु चिन्तित दिखाई देते हैं । उनका हृदय
विषादग्रस्त हैं । वे चिन्ता को संबोधित करते हुए कहते हैं - " मनन करावेगी
तू कितना ? उस
निश्चिन्त जाति का जीव अमर मरेगा क्या ? तू कितनी गहरी डाल रही हैं नींव । " उन्हें अतीत के
वैभव का बार - बार स्मरण होता है । मदिरा , विलासिनियों के साथ रतिक्रिडा ,
नृत्य , यज्ञ में प्राणियों की बलि दी जाना उन्हें सब याद आता हैं ।
देवता नित्य उत्सव मनाते हैं।आनन्द -विलास में विभोर रहते हैं । शक्ति और वासना का
अन्त सदैव ही वासना में होता है । देवजाति का इतिहास भी इस कथन को प्रमाणित करता
है । बिजली चमकने लगी , घोर वर्षा हुई , सर्वत्र जल ही जल हो गया । केवल मनु बचे , वे एक नौका में बैठकर सागर की लहरों के थपेडों में डूबने -
उभरने लगे । एक बड़ी मछली ने नौका पर प्रहार किया । इस चोट से मनु की नौका हिमालय
के उच्च शिखर पर आ टकराई और मनु बच गए । एक ऊँची शिलापर बैठकर भयावह जलप्लावन
देखने लगे । उन्हें चिन्ता ने घेर लिया , वे देवों के गत विलासमय जीवनपर विचार करने लगे । वह वैभव ,
अतुल शक्ति , प्रेमालिंगन क्या एक स्वप्न था ?
धोखा था ? उसी समय उनके मन में विचार आया कि यह जीवन क्षणभंगुर है और
मिथ्या ( झूठ ) है । मृत्यु ही नित्य और सत्य है । कुछ काल तक यह जलप्लावन होता
रहा परंतु धीरे - धीरे प्रकृति का प्रकोप शान्त हुआ । मनु ने देखा प्रलय की रात
समाप्त हो रही थी । उन्होंने स्वस्थता की सांस ली और आशा के संचार से स्वस्थ हुए ।
उदयमान ग्रह , नक्षत्रों
को देखकर मनु के मन में जिज्ञासा उठ खडी हुई और उन्हें लगा कि इनके पीछे कोई सत्ता
है ,
यही आशा थी ।
आशा
अंधकार नष्ट हो गया और प्रकृति ने एक नया रूप ले लिया । ऊषा ( सुबह ) के वर्णन से
आशा सर्ग का आरम्भ होता है । हिम पिघलने के साथ वनस्पति स्वच्छ हो गई । वायु
प्रवाहित होने लगी । आकाश में मानो किसी चतुर चितेरे ने रंग भर दिये हो । मनु को
इस बात का एहसास होने लगा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर शक्ति और सौन्दर्य का मूल है ।
प्रकृति के इस सारे बदलाव ने जीवन की आशा को संचारित किया और वे भविष्य के सुख
स्वप्न देखने लगे । उनमें आशा ज्योति जलने लगी । उन्होंने एक सुन्दर गुहा में अपना
निवासस्थान बनाया । भोजन बनाने के लिए धान की बोरियां चुनते हैं ,
जो अन्न बचता है , उसे प्रलय पीडित व्यक्ति के लिए छोड़ देते हैं । वे अपना
जीवन तप में लगा देते हैं , किन्तु फिर भी अतित की स्मृति उनसे भुलाए नहीं भूलती ।
एकान्त जीवन बडा निर्मम हो जाता है । उनके हृदय में वासना का जागरण होता है
किन्तु वहाँ मनु के अतिरिक्त कोई नहीं है । उनमें जीवनसाथी की आशा बलवती हो रही थी
।दिनकर,
मुक्तिबोध आदि अनेक सर्जकों ने इसकी कमियों की ओर इशारा
किया है ,
परंतु कामायनी की श्रेष्ठता की तुलना में उसके अभाव नगण्य
हैं और जिन पर ध्यान दिया जा सकता है। वे ऐसे हैं जिनमें आलोचक के अपने विचारों का
दबाव है ,
जरूरी नहीं कि वे रचना के ही अभाव हों । यों प्रमुख रूप से
प्रसाद कवि ही हैं, परंतु वे बीसवीं शती के हिंदी के महान नाटककारों में हैं ।
श्रध्दा - इस
सर्ग में कामभोग की बालिका ' श्रध्दा ' का आगमन तब होता है , जब मनु चिन्ता में लीन थे । ' श्रध्दा ' गंधर्व देश की रहनेवाली है , जो घुमने के लिए निकली थी । हिमालय दर्शन के लिए इधर आई थी
। वह मनु से नाटकीय ढंग से उसका परिचय पूछती है " कौन तुम ?
संसृति - जलनिधि तीर तरंगों से फेकी मणि एक ,
कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक ?
" इस प्रश्न को सुनकर
मनु का हृदय मधुर रस से ओत - प्रोत हो गया । उन्होंने देखा कि उनके सामने गांधार
देश के मुलायम रोम वाले भेडों की चर्म से ढकी हुई एक सुन्दर बाला खडी है । मनु
कहते है - " नभ धरणी बीच बना जीवन रहस्य निरूपाय । एक उल्का - सा जलता प्रांत
,
शून्य में फिरता हूँ असहाय ।। " मैं एक भाग्यहीन
व्यक्ति हूँ , जिसका
जीवन सूत्र देवों के हाथों में है । प्राणी सर्वथा असमर्थ हैं ,
मैंने देवों के विलासमय जीवन को देखा है । इस संसार में सब
कुछ नश्वर है , आज
जो वह कल नहीं , जीवन
का अंत ही निराशामय है । श्रद्धा मनु को जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने
हेतु प्रोत्साहित करती है । मनु के नैराश्यपूर्ण जीवन को देखकर श्रध्दा ने उन्हें
उनारा ,
' उठो और कर्म में प्रवृत्त हो जाओ '
! वह मनु से यह भी कहती है कि “
यह जीवन व्यर्थ गवाने के लिए नहीं है ,
फिर तुम में तो अपार शक्ति है और तुम्हारे सामने प्रकृति का
व्यापक - विस्तार है । देव संस्कृति से ध्वस्त मानव संस्कृति की सृष्टी करो ,
पर अकेले तुम आत्मविस्तार नहीं कर पाओगे । मेरी सेवा तुम्हें
समर्पित है । "
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