नाटककार जयशंकर प्रसाद/ugc/net/jrf/hindi shahitya......
भारत में लोक नाटकों की परंपरा अति प्राचीन है । अगर हम संस्कृत नाटकों की
समृद्ध परंपरा विचार करें तो इस बात को आसानी से समझ सकते हैं कि संस्कृत नाटकों
में जो प्रौढ़ता और शास्त्रीयता नज़र आती है , वह तब तक संभव नहीं हो सकती , जब तक कि उसके पीछे लोक नाटकों की परंपरा मौजूद न रही हो ।
लेकिन जहाँ तक मध्ययुग में नाटकों की परंपरा के खत्म होने का सवाल है ,
तो उसका कारण ' धर्मान्ध आक्रमण ' शायद नहीं है । यह एक मिथ्या धारण है कि मुसलमानों के आगमन
के कारण नाटकों का लेखन और मंचन बंद हो गया जबकि सचचाई यह है ,
कि आठवीं सदी के बाद से ही नाटकों का मंचन काफी कम हो गया
था जबकि परंपरागत लोक नाट्य रूपों की प्रस्तुति हमेशा अबाध रूप में जारी रही ।
नाटकों के लेखन और प्रदर्शन में लगातार कमी आने का कारण शायद यह था कि ब्राह्मण ,
बौद्ध और जयशंकर प्रसाद के नाटक स्कंदगुप्त से संबंधित इस पहली इकाई
में प्रसाद की नाट्य दृष्टि और स्कंदगुप्त की रचनाशीलता पर विचार किया गया है ।
प्रसाद युग में प्रायः यह कहा जाता रहा कि प्रसाद के नाटक मंचनके शांता गांधी
आदि ने प्रसाद के नाटकों का जो यादगार मंचन किया उससे ये सारे आरोप प्रसाद वैसे
अपनी जालोचना पर चुप रहते थे , परंतु तब उन्होंने कहा था कि नाटक मंच हैन कि मंच के लिए
नाटक । प्रसाद भीतर से बाहर तक भारतीय संस्कृति के प्रतीक थे । दांड्यायन ,
मल्लिका , प्रेमानद पात्रों की सृष्टि उनकी सांस्कृतिक दृष्टि को ही
प्रकट करती है । बिना इसके इन चरित्रों में पाया । भरना संभव नहीं था । प्रकृति से
प्रसाद को खुब लगाव था । अपने घर में उन्होंने एक पुष्पवाटिका ही बनाई थी ,
जिसे वे आगंतुकों को अक्सर दिखाते ।
रंगमंच के बारे में प्रसाद की यह धारणा इसलिए बनी क्योंकि प्रसाद के समय में
जो रंगमंच उपलब्ध था , उससे वे संतुष्ट नहीं थे । उनका विचार था कि संस्कृत की जो सबल रंगमंचीय
परंपरा थी , मध्य
युग में खत्म कर दिया गया । प्रसाद के अनुसार ' मध्यकालीन भारत में जिस आतंक और अस्थिरता का साम्राज्य था ,
उसने यहाँ की सर्व साधारण प्राचीन रंगशालाओं को तोड़ - फोड़
दिया । धर्मान्ध आक्रमणों ने जब भारतीय रंगमंच के शिल्प का विनाश कर दिया तो
देवालयों से संलग्न मण्डपों में छोटे - छोटे अभिनय सर्व - साधारण के लिए सुलभ रह
गए ,
प्रसाद का संकेत लोकनाट्य रूपों की तरफ है जो संस्कृत नाट्य
परंपरा के विलुप्त होने के बावजूद लगातार खेले जाते रहे ।
प्रसाद ने नाटकों के बारे में बहुत अधिक नहीं लिखा है ,
लेकिन जितना लिखा है , उससे उनके नाट्य संबंधी सोच को अच्छी तरह समझा जा सकता है ।
जयशंकर प्रसाद से पूर्व हिंदी में नाटकों की परंपरा बहुत लंबी नहीं थी । पहली बार
नाट्य लेखन की शुरुआत भारतेंदु युग में हुई । हम इस खंड की पहली तीन इकाइयों में
भारतेंदु के प्रसिद्ध नाटक अंधेर नगरी के बारे में अध्ययन कर चुके हैं । हम यह भी
पढ़ चुके हैं कि भारतेंदु ने नाटक संबंधी सोच की भी शुरुआत कर दी थी ।
प्रसाद की नाट्य दृष्टि भारतेंदु से भिन्न है । प्रसाद के नाट्य संबंधी सोच पर
संस्कृत नाट्य - दृष्टि का काफी प्रभाव है । वे नाटक की रचना को रस से जोड़ते हैं
और यह भी मानते हैं कि नाटक की रचना मंच के अनुसार नहीं बल्कि मंच को नाटक के
अनुसार होना चाहिए । प्रसाद नाटक को कला का विकसित रूप मानते हैं ,
वे उसे मनोरंजन का माध्यम नहीं मानते । उसका संबंध बुद्धि
से नहीं हृदय से जोड़ते हैं । त्रासदी पर अधिक बल दिये जाने का यही कारण मानते हैं
। प्रसाद की नाट्य दृष्टि के निर्माण में तत्कालीन नाट्य परंपरा भी थी । उन्नीसवीं
सदी के उत्तर्राद्ध से पारसी थियेटर के नाम से जो पापुलर थियेटर शुरू हुआ ,
वह प्रसाद के समय भी मौजूद था । प्रसाद उसकी स्वस्थ लक्षण
नहीं मानते थे और हिंदी नाटकों को वे इस बाजारू और सस्ते नाटकों से मुक्त करवाना
चाहते थे । प्रसाद की नाट्य दृष्टि को इस परिप्रेक्ष्य में भी समझना चाहिए ।
वे गंगा में घंटों नौकायन करने थे और अरहरा नामक पहाड़ी स्थान पर रहकर
उन्होंने झरना की कविताओं की सष्टि की अपने अनुसंधान काल में मुझे प्रसाद की ऐसी
विरल प्रेम कथा का पता चला जिसने उनकी जयशंकर प्रसाद सर्जनात्मकता को एक नया उठान
दिया था । प्रेयसी की मृत्यु हो गई थी और उसकी छवि उन अपने शिव मंदिर के शिवलिंग
में दिखाई दी थी । विग्रह में यह छवि या छवि में यह विग्रह की धूप छांही ही शायद
ऐसी पंक्तियों की सृष्टि करती है प्रतिमा में सजीवता थी,
बस गई सुछवि आंखों में थी एक लकार हृदय में,
जो अलग रही आंखों में । इस घटना में सत्य हो या न हो लेकिन
इतना सच है कि एक समय तक सामान्य रचनाएं करते करते, उनके रचना संसार में विस्फोट हुआ और उसमें भांति भांति के
रचना स्फुलिंग छूटे ।
प्रसाद एक समय चेतन कलाकार हैं । जनमेजय का नागयज्ञ जैसी कृति इस चेतना वो
व्यक्त करती है । आर्य और नागों के द्वंद्व के माध्यम से प्रसाद ने इस नाटक में दो
जातियों के बीच द्वंद्व के कारण खोजने और उनका समाधान देने की सार्थक कोशिश की ।
वे कहना चाहते हैं कि जातियों के संघर्ष के मूल में जातीय अभिमान और एक दूसरे पर
दुर्भावना के आरोप होत हैं । लेखक ने दोनों जातियों के दोषों को उभारकर दोनों को
ही झुकने को विवश किया है । क्योंकि जब तक जातियां अपनी श्रेष्ठता का घमंड नहीं
त्यागतीं , उनके
बीच का संघर्ष थम नहीं पाता । संघर्ष या द्वेष के स्थायी समाधान के लिए अंतर्जातीय
विवाह प्रस्तावित किया है । अपने अहंकार का त्याग और अंतर्जातीय विवाह प्रसाद की
राय में स्नेहबंध का स्थायी आधार है ।
प्रसाद के तीन प्रौढ़ नाटक हैं - चंद्रगुप्त ,
स्कंदगुप्त और
ध्रुवस्वामिनी ।
चंद्रगुप्त
प्रसाद की प्रौढ़ राष्ट्रीय विचारधारा , समसामयिक चेतना तथा विश्व जीवन में भारतीय संस्कृति की माता
स्थापित करने वाला नाटक है । इसमें तेजस्वी , प्रखर और सजग राष्ट्रीय स्वातंत्र्य की योजना के गई है ।
इतिहास माध्यम है , समकालीन राष्ट्रीयता साध्य है । चरित्रांकन के कौशल से इसे पायाविशेष के रूप
में ही अब तक कही जाती रही है , परंतु प्रसाद ने संपूर्ण व्यक्तिगत संदों को राष्ट्रीय गया
है । क्योकि यादगुप्त , चाणक्य , राक्षस
और नंद की यह कथा राजनैतिक छद्म और पारस्परिक परिपोष दे दिया है । संपूर्ण कार्य
व्यापार वहीं जाकर विलीन होते हैं । गुप्त का कथ्य भी राष्ट्रीय है परंतु इस पर
गांधी युग का प्रभाव है ।
स्कंदगुप्त
शिव में अद्भुत विराग है परंतु यह वीरता की कीमत पर नहीं है । अपने पुरुषार्थ से
राज्य जोकर वह इसे कुमारगुप्त को दे देता है । प्रेम और विराग की भी कशमकश नाटक
में द्रष्टव्य भास्करगुप्त की आलोचना भी हुई । लोगों ने इसे एक लिजलिजा पात्र कहा
और उसके उस सत्य को नहीं पहचाना जो भारतीय नायक की विशेषता होती है । राम ,
कृष्ण सभी चरित्र सुकुमार हैं परंत संवर्ष के स्तर पर वे
भयानक शत्रुओं को परास्त करते हैं । कदाचित यह आलोचना का प्रभाव था गांधी युग में
नेहरू के बाहरी - भीतरी व्यक्तित्व की तेजस्विता कि प्रसाद ने स्कंदगुप्त के बाद
गप्त नाटक लिखा , जिस पर कहीं क्रांतिकारियों का भी प्रभाव देखा जा सकता है ।
ध्रुवस्वामिनी सामाजिक दृष्टि से सबसे क्रांतिकारी रचना है । प्रेम,
वीरता और विद्रोह की प्रतिमूर्ति धुवस्वामिनी समसामयिक नारी
जागरण के युग में एक महत्त्वपूर्ण रचना है । मध्यकालीन पतन और भटकाव में खो गई या
विकृत हो गई भारतीय संस्कृति के सच्चे महत्त्व की स्थापना नाटक में की गई है ।
नारी के तलाक एवं पुनर्विवाह के समर्थन में प्रसाद ने भूमिका में प्राचीन भारतीय
ग्रंथों का प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि भारत में विशेष परिस्थिति में पति से
मोक्ष पाने और पुनर्विवाह करने का शास्त्रादेश है । इसी के माध्यम से
ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त को तलाक देकर चंद्रगुप्त का वरण करती है । इसके विपरीत
कोमा और शकराज की सृष्टि द्वारा उपनिवेशवादियों चरित्र की ओर भी संकेत किया है ।
उनके दर्जन से अधिक नाटक हैं जिनमें कुछ तो हमारे साहित्य की उपलब्धि ही हैं , जैसे - चंद्रगुप्त , के योग्य नहीं है तब उनका मंचन भी प्रायः नहीं हुआ । परंतु , बीसवीं शती के अंत में व.व. कारत , स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी ।
प्रसाद को क्योंकि
व्यावहारिक मंचन का अनुभव नहीं । मंच के उपयुक्त न हो तो मंच को ही नाटक के
उपयुक्त होना चाहिए , क्योंकि नाटक का इसलिए वे स्वयं भी अपने नाटकों की
मंचीयता के प्रति आश्वस्त नहीं थे , कदाचित इसीलिए अद्धसत्य उन्होंने कहा था । दरअसल जो
नाटक मंच पर अभिनीत होने की क्षमता नहीं गया । नाटक ही नहीं होते । अलबत्ता मंचीय
दृष्टि से कठिन नाटक के साथ मंच को स्वयं को भी ढालना होता है जो उसकी कला में आता
है जिसे बाद के निर्देशकों ने सिद्ध कर दिया । प्रसाद के प्रारंभिक नाटक कामना , एक घूट आर विशाख हैं ।
उनमें कामना और एक इससे भी पहले प्रसाद ने चंपू लिखा था - उर्वशी ।प्रसाद की उस शैली पर गौर करना चाहिए जिसके चलते ने पाठक को अपने विश्वास में
लेकर क्रांतिकारी रचना का संयोजन करते हैं । प्रसाद ने कथा के क्षेत्र में भी मानक
कायम किए हैं । उनकी कहानियों को नई कहानी की प्रस्तावना माना जाता है ।
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