Saturday, 15 May 2021

जयशंकर प्रसाद/ugc/net/jrf/hindi shahitya......

हिंदी साहित्य के उत्तुंग शिखर के नाम से जयशंकर प्रसाद को जाना जाता है।

'हिमालय की ढलान पर उसकी गर्वीली चोटियों की समता करता हुआ एक सीधा ऊंचा देवदारु का वृक्ष था। उसकी जड़ों से एक छोटी, पतली जलधारा आंख मिचौनी खेलती थी ।'

जयशंकर प्रसाद का जन्म 1890 ई. में काशी के एक वैश्य परिवार में हुआ था । उनकी मृत्यु 1937 में वाराणसी में हुयी थी । इनके पिता का नाम देवी प्रसाद था । वे तम्बाकू और सुंघनी का कारोबार करते थे । इसी व्यवसाय के कारण यह परिवार 'सुंघनी साहू' के नाम से परिचित था । काशी जैसे धार्मिक शहर में प्रसाद जी पैदा हुये थे, अतएव इनके परिवार पर धार्मिक संस्कारों का गहरा प्रभाव था । प्रसादजी के जीवन पर भी इसका प्रभाव दिखायी पड़ता है । लोगों का कहना है कि प्रसाद जी शिव के भक्त थे । इन्होंने अपने पिता के साथ धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा की थी ।

प्रसाद के साहित्य में उन तमाम स्थानों का वर्णन है । प्रसाद रचनात्मक साहित्य से हमें पता लगता है कि वे धार्मिक स्थानों में होने वाले पाखण्ड के कटु आलोचक थे । उनके साहित्य में प्रयाग , काशी , मथुरा , हरिद्वार आदि धार्मिक स्थानों में धार्मिक पंडे - पुजारियों का जो रुप उन्होंने देखा था उसका बड़ा विविष्ठापूर्ण चित्र उन्होंने प्रस्तुत किया है । उनको एक कहानी ' विराम चिन्ह ' मन्दिर प्रवेश पर भी है , जो अछूत के मन्दिर प्रवेश की कहानी है ।

प्रसाद जी ने मन्दिर प्रवेश करते समय मन्दिर के सेवक, पुलिस और अछूत बालक के बीच चलने वाले संघर्ष, इसी दौरान बालक को चौट लगना तथा अछूत बालक की माँ का आकर यह कहना कि " इसकी लोथ मन्दिर में जायेगी " का वर्णन किया है , जो उनकी धार्मिक उदारता का परिचालक है । यह उदारता उनको उन कट्टा - पंथी धार्मिकों से अलग करती है जो मनुष्य को देव - पूजा का अधिकार नहीं देना चाहते । जहाँ तक उनकी शिक्षा - दीक्षा का सवाल है उन्होंने स्कूल की कोई नियमित शिक्षा नहीं प्राप्त की थी वे केवल 8 वीं दर्जा तक ही पड़े थे , किन्तु साहित्य , संस्कृत , दर्शन , इतिहास , पौराणिक गाथाओं का गहराई से अध्ययन किया था । इनकी रचनाओं से पता लगता है कि इन्हें संस्कृत , अंग्रेजी , पालि - प्राकृत और उर्दू का अच्छा ज्ञान था ।

नाटकों में लिखी भूमिकाओं से इनके पांडित्य और ज्ञान के प्रति अभिरुच का पता लगता है और यह भी पता लगता है कि प्रसाद जी अपने विचारों की स्थापना के लिए किस तरह अध्ययन करते थे । नाटक की भूमिकाएँ और निबंध इसके साक्षी है , कि वे अपने विषय के अधुनातम विचारों तक का अध्ययन करके निष्कर्ष निकालते थे । ग्यारह वर्ष की अवस्था में इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी और 17 वर्ष की अवस्था में ' शम्भूनाथ ' इनके बड़े भाई की मृत्यु हो गयी थी । अतएव कम उम्र में ही घर - गृहस्थी और व्यापार का भार उनके कंधों पर आ पड़ा था । इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रसाद जी ने घर का व्यवसाय संभाला और अध्ययन तथा लेखन भी जारी रखा । 48 वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी का देहान्त हो गया । इन थोड़े से समय में ही उन्होंने कविता , नाटक , उपन्यास , कहानी और आलोचनात्मक निबंध के बहुत से ग्रंथ लिखे। 'इन्दू' नामक पत्रिका का सम्पादन भी किया ।

महादेवी वर्मा के शब्दों में ये प्रसाद थे - एक छोटी पतली जलधार स्पर्शी देवदारु । कामायनी में प्रसाद ने मनु के व्यक्तित्व का जो चित्र खींचा है, वह जैसे उन्हीं का प्रति व्यक्तित्व हो अवयव की दृढ़ मांसपेशिया ऊजस्वित था वीर्य अपार स्फीत शिराएं, स्वस्थ रक्त का होता था जिनमें संचार । प्रसाद कसरती व्यक्ति थे । रोज एक हजार दंड बैठक लगाते थे । उनके मित्र विश्वंभर नाथ जिज्जा कहते थे कि वे जब चलते थे तो धरती पर धमक होती थी ।

नंददुलारे वाजपेयी उनकी तराशी हुई आकृति', ' तंबूल आरक्त अधर ' और ' मैत्री एवं आत्मीयता का निमंत्रण देने वाली मंद मुस्कान ' पर मुग्ध थे । प्रसिद्ध गायिका सिद्धेश्वरी देवी जब स्मृति के पुराने गवाक्ष खोलती हैं तो उन्हें बरबस एक ' गौर वर्ण के सुंदर और भव्य पुरुष ' का स्मरण हो आता है । ऊपर से दिखता था कि जयशंकर प्रसाद पुराने रईसी खानदान के व्यक्ति हैं जो अपने साहित्य में सुगंध , सौंदर्य , मादकता , संगीत और विलास के चित्र रह - रहकर आंकते हैं , परंतु यह कम लोग लक्षित कर पाते थे कि उनमें अद्भुत सादगी थी और संपूर्ण राग रंग के बीच निस्पृह तटस्थता और अखूट करुणा उनके व्यक्तित्व का अपरिहार्य भाग प्रसाद ने क्या कम दुख झेले थे ! मृत्यु का एक सिलसिलाप्रसाद के मित्रों का भी एक संसार था , पर जैसा उन्होंने स्वयं लिखा है - ' सच्या मित्र मिलता है दुखी हदय की छाया - सा '

कृत्तित्वः किसी भी लेखक की विचारधारा उसके मानस में ताने - बाने की तरह बुनी रहती है । फिर उसकी अभिव्यक्ति वह अपनी रचनाओं में करता है । प्रसाद के कया साहित्य में सामाजिक सरोकारों का अध्ययन हमारे अनुसंधान का विषय है । ऐसा नहीं है कि केवल कथा साहित्य में ही उनके सरोकार मिलते हैं , वस्तुत: उनका समूचा साहित्य इसकी पीठिका है, क्या काव्य, कथा, नाटक और फिर क्या उनका विचारात्मक साहित्य निबंध सम में उनकी सामाजिक प्रतिवद्धता विद्यमान है । वस्तुतः स समय के सामानिक सरोकारों को हम तीन सों में देखते हैं ।

(1) राष्ट्रीय सरोकार, जिसमें देश प्रेम , स्वाधीनता मुख्य हैं । इसकी अभिव्यक्ति ब्रिटिश सता एवं उसके संरक्षकों के विरोध में व्यक्त है ।

(2) सामन्तवाच विरोध या धार्मिक जड़ता, वर्ण व्यवस्था, दिवादिता आदि का विरोध और

(3) मानवतावादी जिसमें प्रेम, काणा, सौहार्द, परोपकार , सेवा आदि मानव मूल्यों के स्थापना का आग्रह है ।

प्रसाद के कया साहित्य में यह सामाजिक प्रतिबद्धता है । किन्न् अका अन्य रचनात्मक साहिता इसकी ल्यापकता को प्रमाणित करता है । इस दृष्टि में इस अध्याय में हमने उनके व्यक्तित्व के साथ उनके कृतित्व का परिचय अपने विषय की पीतिका केस में दिया है ।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रसाद युगीन साहित्य के बारे में लिखा है कि " द्वितीय उत्थान में कुछ दिन ब्रजभाषा के साथ - साथ चलकर खड़ी बोली क्रमश : अग्रसर होने लगी , यहाँ तक कि नई पीनी के कवियों को उसी का समय दिखायी पड़ा । स्वदेश गौरव और स्वदेश प्रेम की जो भावना प्रथम उत्थान में जगाई गयी हो उसका अधिक प्रसार द्वितीय उत्थान में हुभा और भारत भारती पुस्तक निकाली ।

"स्वदेश प्रेम की जगह स्वाधीनता ने ले ली । अतीत गौरव स्वाधीनता संग्राम का प्रेरक बना , अतीत का इतिहास , वर्तमान का यथार्थ वम गया , पाश्चात्य शिक्षा ने चिन्तन का रुख द्वारा खोल दिया , सुधार की पुकार संघर्ष में बदल गयी । सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है कि " दुनिया भर में सामन्तबाट और साम्राज्यवाद के विरोध और परिवर्तन की पुकार से समाज की सोच समझ और संवेदना बदल गयी।" प्रसाद का रचनात्मक साहित्य इसी सामाजिक बदलाव का साहित्य है ।

प्रसाद के. चित्राधार, प्रेम पथिक, करुणालय, महाराणा का महत्व, कानन कुसुम,आंसू,ठहर,कामायनी प्रसाद जी के काव्य की पृष्ठभूमि में द्विवेदी युगीन काल्य परम्परा थी और श्रीधर पाठक की नयी चाल की कवितायें भी थी ।

छायावाद के प्रमुख चार हस्ताक्षरों में से एक हस्ताक्षर के रूप में जयशंकर प्रसाद को जाना जाता है । सर्जक प्रसाद का आविर्भाव उस समय में हुआ था जब भारतेंदु युग अंतिम साँसे गिन रहा था । जब वे साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए , तो उनकी प्रतिभा से चकित होकर कविता , कहानी , नाटक और उपन्यास सभी उनके कलम के श्रृंगार बनने को उत्सुक हो उठे । उन्होंने अनेक कहानियाँ , नाटक , निबंध लिखें परंतु उनकी प्रतिभा का उत्तमांश कामायनी के रूप में ही हमारे सामने है ।

डॉ. सत्य प्रकार मित्र ने प्रसाद के सम्पूर्ण साहित्य का संपादन चार खण्डों में किया है के अनुसार ' चित्राधार के प्रथम संस्करण का प्रकाशन 1918 में हुआ था । इसमें ब्रजभाषा और खड़ी बोली, दोनों की रचनायें थी । 1928 में इसका दूसरा सरकरण छपा जिसमें केवल प्रजभाषा की रचनायें ही संकलित है । प्रेमपधिक और महाराणा का महत्व पहले चित्राधार के प्रथम संस्करण में उपी थी बाद में स्वतंत्र संकलन के रूप में कापी । चित्राचार में अयोध्या का उद्धार , जन मिलन , प्रेमराज्य , पराण , मकान्द्र बिन्दु , कविताये छपी हैं । जैसा की हर रचना का अपने समय में पुनपहि किया जाता है । उनके व्यक्तित्व में जो संतुलन , मार्दव , गांभीर्य और बोधिसत्वों जैसा निस्संग , सौम्य कर था , उनमें जो शील, सौजन्य, सौहाद्र, सुहृदों के प्रति सहज स्नेह एवं उनके व्यवहार मोड विनोदप्रियता , जीवन का उपभोग करने की क्षमता थी, वह उन्हें छायावादी चतुष्टय में महामना सम्माननीयता तथा सर्वाधिक लोकप्रियता प्रदान करती है ।


No comments:

Post a Comment

HINDI UGC NET MCQ/PYQ PART 10

HINDI UGC NET MCQ/PYQ हिन्दी साहित्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी-- " ईरानी महाभारत काल से भारत को हिन्द कहने लगे थे .--पण्डित रामनरेश त्रिप...