हिंदी भाषा का विकाश आर्य भाषाएँ
भारतवर्ष एक विशाल देश है । उसमें विभित्र प्रदेश, विभिन्न अंचल, विभित्र बाति, विभिल समूल निवास करते है । विभिनता इस देश की विशेषता है , अत एव यहाँ प्रयुवात भाषाएँ भी विविध और अनेक है । डॉ.ग्रिपर्सन के अनुसार भारत में 179 समृद्ध एवं विकसित भाषाएँ है . और नागभर 544 बोलियाँ प्रयुक्त होता है । इन सभी भाषाओं को अध्ययन की सुविधा के लिए दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता है—
1) आर्य भाषाएँः-
आर्य भाषाएँ -आर्य भाषाओं के विकास को तीन कालखंडों में विभाजित
किया जा सकता है । प्राचीन भारतीय आय भाषाएँ - 1500 ई . पू . से 500 ई.पू आ )
प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएँ - प्राचीन भारतीय भार्य भाषा के
अंतर्गत वैदिक एवं लौकिक संस्कृत रूप मिलते हैं ।
वैदिक संस्कृत--यह संसार की प्राचीनतम भाषा है । इसमें ऋग्वेद,
यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नामक चार वेद लिखे गए है । असके अतिरिक्त ब्राह्मण
ग्रंथों,
आरण्यकों और उपनिषदों की भाषा वैदिक संस्कृत ही है । यास्क
और पाणिनि के पूर्व की भाषा को चैदिक भाषा, वैदिक संस्कृत या प्राचीन संसकृत कहा जाता है । इस काल के
साहित्य को विद्वानों ने मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा है- सहिता ब्राह्मण और
उपनिषद संहिता के अंतर्गत चारों वेद, ब्राह्मण भाग के अंतर्गत कर्मकाण्ड की व्याख्याएँ ,
वैदिक ऋषियों के आध्यात्मिक चितन में पूर्ण उपनिषदों में
ज्ञान काण्ड की चचा है । वैदिक भाषा में मूल भाषा की अधिकतर ध्वनियां सुरक्षित है
। शास्त्र प्रभाव के कारण कुछ नयी ध्वनियों आ गई थी और कुछ चनियाँ लुम हो गयी ।
वैदिक भाषा की विशेषताएँ - वैदिक भाषा को आज के शब्दों में
विशेष 'ग्रंथ भाषा' और लौकिक भाषा को उस काल की 'मुखभाषा' कहा जाता है । वैदिक भाषा की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार
हैं - वैदिक भाष में तीन स्वर - उदान्त , अनुदात्त , तथा स्वरित थे।
स्वराघात का बहुत महत्व था;
स्वर की अशुद्धता पर अनर्थ की संभावना बन जाती थी ।
वैदिक भाषा श्लिष्ट योगात्मक है,
अतः यहाँ ध्वनि तत्व की स्वतंत्र सार्थकता नहीं होती ।
वैदिक में जटिलता के साथ वैविध्य भी हैं । उसमें ल स्वर का
बहुलता से प्रयोग होता है ।
उपसर्गों का प्रयोग स्वतंत्र रूप से दिखाई देता है । शब्द
रूपों के स्तर पर भी इस भाषा में अनेक रूपता दिखाई देती है ।
वैदिक भाषा में संगीतात्मक स्वर की प्रमुखत्ता है ।
लौकिक संस्कृतः- लौकिक संस्कृत वैदिक संस्कृत के परिवर्तित
रूपों से विकसित हुई है । इसे 'क्लासिकल संस्कृत' या 'देवभाषा' भी
कहा जाता है । इसके अस्थिर रूपों की विविधता को एकरूपता प्रदान करने में पाणिनि
योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने संस्कृत भाषा का परिनिष्ठिकरण किया। संस्कृत व्याकरण
'अष्टाध्यायी' की रचना ।
वैदिक भाषा में प्रचलित संज्ञा ,
सर्वनाम , विशेषण , क्रिया के अनेक रूपों और विकल्पों के स्थान पर एक रूप
निश्चित कर उन्होनें देववाणी या लौकिक संस्कृत का ऐसा व्याकरण तैयार किया कि वह
जनभाषा के रूप में प्रचलित हो गयी ।
लौकिक संस्कृत में उच्चकोटि का साहित्य रचा गया । जैसे -
रघुवंश ,
मेघदूत , शिशुपाल वध , नैषधचरित्र । इन महाकाव्यों के अतिरिक्त कालिदास ,
भवभूति - भास आदि के द्वारा नाटकों की रचा हुई है ।
लौकिक संस्कृत की ध्वनियों के संदर्भ में डॉ . राजकिशोर
सिंह कहते हैं कि " वैदिक संस्कृत की संपूर्ण ध्वनियाँ लौकिक संस्कृत में
सुरक्षित हैं । उच्चारण की दृष्टि से कुछ अंतर अवश्य आ गया है।" जैसे - ऐ और
औ का उच्चारण संयुक्त स्वरों के रूप में न होकर मूल स्वरों के रूप में होता है ।
लौकिक संस्कृत की विशेषताएँ - (1) लौकिक संस्कृत में तीन
लिंग ,
तीन बचन प्रयुक्त होते हैं ।
(2) इसमें कर्तृ, कर्म, भाव इन तीन ' बाच्य ' का प्रयोग और आठ कारक है ।
(3) इसमें उत्तम मध्यम , प्रथम तीन पुरुष प्रयुक्त होते थे ।
(4) इसमें दस लकार थे - लट् , लिद , लट् , लोट , विधिलिङ् , आशिलिइ , लेट् तथा लेड् ।
(5) तद्धित तथा कृदन्त दोनों प्रकार के प्रत्ययों का प्रचलन
था ।
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाएः-
भारतीय आर्यभाषा के विकास की दृष्टि से मध्यकालीन भारतीय
आर्य भाषा का काल महत्वूर्ण है । प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के व्याकरणिक नियों की
जटिलता के कारण उसका जनसामान्य में प्रयोग कठिन को गया था तथा संस्कृत भाषा विकास
के क्रम में जनमानस से दूर हो गई । भाषा के नियम के अनुसार इसका अपभ्रंश रूप प्रचलित
हो गया ।
संस्कृत केवल शिक्षितों की भाषा हो गयी । मध्यकालीन भारतीय
आर्यभाषा जनसामान्य तक पहुंच चुकी थी । मध्यकालीन आर्यभाषा के संबंध में डॉ.
उदयनारायण तिवारी ने हिंदी भाषा का उद्भव और विकास में लिखा है कि व्याकरण के
नियमों के जकड़े जाने पर संस्कृत का विकास रूक गया, परंतु बोलचाल की भाषा निरंतर विकसित होती जा रही थी । समस्त
उत्तरापथ में आर्यों के प्रसार के साथ प्राचीन आर्यभाषा के रूप में परिवर्तन होता
जा रहा था । भाषा में कालगत्त एवं स्थानगत भिन्नताएँ बढ़ती जा रही थी और ई. पू.
छठी शताब्दी तक प्राचीन भारतीय आर्यभाषा विकास के मध्य स्तर तक पहुँच गयी ।
सुनितिकुमार चटर्जी ने मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं का
नामकरण इस प्रकार किया है-
क) आदिकाल या पालि युग पालि भाषा का विकास हुआ । अपनी
निष्पत्ति, व्युत्पति,
नाम, अर्थ,
क्षेत्र तथा प्रारंभिक स्वरूप आदि को लेकर पालि भाषा विकसित
भाषा मानी जाती है । पालि' शब्द का मूल अर्थ है - मूलपाठ, बुद्धवचन, प्राचीन ग्रंथों में 'पालि'
शब्द का प्रयोग पंक्ति के अर्थ में मिलता है ।
इतना निश्चित है कि मगध को ही पालि का मूल क्षेत्र माना
जाता है । वास्तव में पालि बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ साथ न समग्र भारत की भाषा
बन गई बरन उस युग में उसका अंतरराष्ट्रीय महत्त्व स्थापित हो चुका था । उसका
प्रचार चीन, जपान
और लंका तक परिव्यात था ।
पालि भाषा की निम्नलिखित भाषा वैज्ञानिक विशेषताएँ हैं –
स्वरों में क , लु , ऐ ,
औ , लुम हो गये । म के स्थान पर कहीं इतथा कहीं अहो गया '
म ' ध्वनि नि अनुस्वार में बदल गाई तथा विसर्ग ( :) का प्रयोग समान हो गया
और अ के साथ विसर्ग ( ) के चान पर ओ का प्रयोग होने लगा ।
दैत्य ध्वनियों का मूर्धन्यीकरण हो गया । नाम तथा धातु में
द्विवचन समाप्त हो गया ।
आत्मनेपद का प्रयोग कम होने लगा र और वा के संयोग पर रा लुम
हो गया । सर्व -सब्वा ।
संयुक्त व्यंजनों में परिवर्तन हुआ तथा व्यंजन द्वित्व हो
गये । यदि दोनों व्यंजन अंतस्थ हो तो र , वा लुम हो जाते हैं । जैसे - दुर्लभ - दुल्लभ ।
संयुक्त व्यंजन में पहला नासिक्य हो तो संयुक्त व्यंजन बना
रहता है - दन्त , शान्त ।
संयुक्त व्यंजन के पहले का दीर्घ स्वर हस्व हो जाता है -
सूत्र - सुत्र , मार्ग
- मण
पालि और प्राकृत का ध्वनि समूह प्रायः समान है ।
पालि में शब्द व्यंजनान्त न होकर स्वरान्त हो गये हैं ।
संस्कृत विद्वानों की भाषा और पालि जन सामान्य की भाषा मानी
जाती है ।
भाग..1
No comments:
Post a Comment