मनोविश्लेषणवादUGC/NET/JRF/HINDI/
जब आलोचक किसी रचना का मूल्यांकन करते समय उसके मूल उत्स एवं उनकी रचना
प्रक्रिया का अध्ययन करता है तब वह रचियता के अन्तर्गत एवं उसकी सूक्ष्ममतः
स्थितियों का भी विश्लेषण करता है और प्रत्येक कलाकृति के सृजन हेतु रचियता के बाह्य
चेतन से अधिक उसका अन्तश्चेतन उत्तरदायी है । इस प्रकार रचियता के इस अन्तश्चेतन -
कला सर्जन के क्षण विशेष - का अध्ययन विश्लेषण मनोविज्ञान के अन्तर्गत आता है और
आलोचना जगत् में मनोविज्ञान का प्रयोग उतना ही प्राचीन है ,
जितना की साहित्य परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी में ही साहित्य
विवेचन के लिए मनोविज्ञान का अधिक प्रयोग प्रारम्भ हुआ और कुछ विचारकों ने
सौन्दर्यशास्त्र की समस्याओं का समाधान मनोविज्ञान की प्रयोगशाला में खोजने का
प्रयत्न किया , लेकिन
साहित्यालोचन के क्षेत्र के इस प्रकार प्रायोगिक मनोविज्ञान अधिक सफल नहीं हो सका
। मनोविश्लेषण शब्द अंग्रेजी के 'साइको-एनैलिसिस' ( Psycho analysis ) का हिंदी पर्याय है । सत्य तो यह है कि बीसवीं शती का
आलोचना साहित्य मनोविज्ञान से विशेष रूप से प्रभावित हुआ और यह प्रभाव प्रायोगिक
मनोविज्ञान न होकर फ्रायड , यंग एवं एडलर आदि मनोविश्लेषणवादी आचार्यों का ही प्रभाव माना जाता है । इतना
ही नहीं फ्रायड तो आज भी किसी न किसी रूप में आलोचना शास्त्र को प्रभावित कर रहा
है और उसे मनोविश्लेषणवादी आलोचना का आचार्य भी कहा जाता है । अतः यहाँ उनकी विचारधारा
का विस्तृत परिचय देना आवश्यक हो जाता है ।
सिगमंड फ्रायड ( Sigmund Freud , 1856-1939 ) •
19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध के मनोविश्लेषणवाद के मुख्य प्रेरक के रूप में
फ्रयद का नाम लिया जाता हैं,जो चिकित्सा से होकर साहित्य में अवतरित हुए। इनके
द्वारा मानसिक रोगियों का इलाज करते हुए मानसिक व स्नायविक विकारों के संबंध में
दिया गया सिद्धांत व व्यवहार मनोविश्लेषण कहलाता है । इससे ही मनोविश्लेषणवाद बना
है । फ्रायड ने पाया कि सम्मोहन क्रिया ( hypnotism ) अथवा वार्तालाप में स्वच्छंद विचार साहचर्य से कई पुराने
अनुभव पुनर्जीवित हो जाते हैं । कामवृत्ति और उसका अचेतन रूप से दमन इन अनुभवों का
मूल कारण है ।
'शैशवीय दमित कामवृत्ति ' वह मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है, जिस पर वे पहुँचे । उन्होंने इसे जीवन की मुख्य प्रेरक
शक्ति माना । यह शिशु के जन्म से ही क्रियाशील रहती है और इसका दर्शन मानव के
समस्त व्यवहार में अप्रत्यक्ष रूप से होता है । इसके लिये वे लिबिडो
शब्द प्रयुक्त करते हैं ।
शैशव में मानस में केवल ' इड ' ( Id ) ही विकसित रहता है , दमन का प्रश्न नहीं उठता , किंतु सामाजिक और नैतिक दबावों के कारण अहं ( ego
) और सुपर इगो ( Super
ego ) का विकास होने लगता है और
स्वाभाविक कामेच्छाएँ दमित होने लगती हैं । अचेतन मानस का निर्माण इन दमित इच्छाओं
से होता है ।
शिशु की कामवृत्ति अपने माता - पिता और भाई - बहनों की ओर प्रेरित होती है
किंतु नैतिक निषेधों के कारण यह वृत्ति दमित होती रहती है और व्यक्ति के मन में
कुंठाएँ पैदा हो जाती हैं । फ्रायड के सिद्धांत में '
इडिपस कुंठा ' का
विशेष महत्त्व है जो ग्रीक नायक इडिपस ( जिसने अपने पिता की हत्या कर अपनी माँ से
विवाह कर लिया था ) के नाम पर है ।
फ्रायड के अनुसार ये दमित वासनाएँ और कुंठाएँ साधारण स्वस्थ जीवन में भी अपने
को व्यक्त करने का प्रयास करती रहती हैं परंतु ' सुपर इगो ' द्वारा निर्मित प्रतिरोध के
कारण ये अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट नहीं हो पातीं और कपट वेशों में व्यक्त होती
हैं । ये कपट रूप जागृत और स्वप्न जीवन की भूलें हैं ।अधिक प्रबल होने पर कई
मानसिक - स्नायविक रोग हो जाते हैं , जैसे - हिस्टीरिया ,
खंडित व्यक्तित्व , अपराध भावना आदि । मानव का छोटे से छोटा व्यवहार भी सप्रयोजन होता
है । मानसिक जीवन में कुछ भी अकारण अथवा निष्प्रयोजन नहीं होता है । प्रयोजन या
प्रेरणा प्रमुखतः कोई कामेच्छा होती है जिसे हम मनोविश्लेषण के द्वारा जान सकते
हैं ।
फ्रायड के विचारों का कला और साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा । फ्रायड के अनुसार
अचेतन मानस की संचित प्रेरणाओं और इच्छाओं से ही कला और धर्म , दोनों का उद्भव होता है । साहित्य और कला
का जन्म तब होता है जब दमित वासनाएँ उदात्त रूप में अभिव्यक्ति पाती हैं । साहित्य
, कला , धर्म आदि सभी को फ्रायड इन्हीं
संचित वासनाओं और प्रेरणाओं से उद्भूत मानता है । फ्रायड के सहयोगियों और शिष्यों
में एडलर और युग ने फ्रायड से असहमति रखकर कुछ भिन्न सिद्धांतों का प्रतिपादन किया
है ।
एडलर ( Alfred Adler 1870-1937 )
एडलर के मनोविज्ञान में ' लिबिडो ' अथवा ' कामवृत्ति ' से अधिक महत्त्व ' अहम् ' को दिया गया । उनका मत है कि फ्रायड कामवृत्ति को अनावश्यक
महत्त्व देते हैं । कामवृत्ति के अतिरिक्त अहम् की मांग भी मानसिक स्नायविक रोगों
का मूल कारण हो सकती है । एडलर के मनोविज्ञान में आत्म स्थापन की प्रवृत्ति ही प्रमुख
कामवृत्ति नहीं । हीनत्व कुंठा मानसिक स्नायविक रोग का मूल कारण है । यथार्थ से
संघर्ष के कारण व्यक्ति के आत्म स्थापन को संतुष्टि नहीं मिल पाती और उसमें हीन
भावना विकसित हो जाती है।
जुंग
( Carl Gustav Jung , 1875-1961 )
वह भी फ्रायड के इस मत से असहमत थे कि जीवन की प्रमुख प्रेरक शक्ति '
कामवृत्ति ' है । उन्होंने ' लिबिडो ' शब्द का अधिक विस्तृत अर्थ लिया जिसमें फ्रायड की '
कामवृत्ति ' और एडलर की ' आत्मस्थापन प्रवृत्ति ' दोनों समन्वित हैं । वह उसे जीवन की वह प्रारंभिक और
सामान्य प्रेरक शक्ति मानते हैं , जो मानव के सभी व्यवहारों व्यक्त होती है ।'
व्यक्तिव के प्रकारों का सिद्धांत '
युग का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धन है । उनके अनुसार व्यक्ति
मुख्यतः दो प्रकार होते हैं- एक तो । जिनका ध्यान और शक्ति अपने पर ही केंद्रित
रहती है . दूसरे वे जिनकी शक्ति सामाजिक और भौतिक वातावरण की ओर प्रकट होती है ।
पहले प्रकार के व्यक्ति अंतर्मुखी तथा दूसरे प्रकार के बहिर्मुखो हा हैं ।
जहाँ विचारों भावनाओं में केंद्रित होने के कारण अंतर्मुखी व्यक्ति अधिक भावुक ,
कल्पनाशील . एकांत प्रिय और अव्यावहारिका होते हैं ,
वहीं बहिर्मुखो व्यक्ति व्यवहार कुशल ,
समाजप्रिय क्रियाशील अधिक होते हैं ।
निष्कर्ष_सामान्यतया मनोविश्लेषणवादी विचारकों ने जिन - साहित्यिक मान्यताओं
की स्थापना की है उनमें से अधिकांश व्यक्ति - वैचित्रय के धरातल पर प्रतिष्ठित हैं
और मार्क्सवादी विचारकों ने मनोविश्लेषणवादी साहित्य की कटु आलोचना करते हुए
साहित्य लोकोन्मुखता पर ही बल दिया है । इस प्रकार मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्तों का
बहुत अधिक विरोध होते हुए भी न केवल अनेक पाश्चात्य विद्वान् मनोविश्लेषणवाद से
प्रभावित जान पड़ते हैं अपितु हमारे हिन्दी साहित्य पर भी मनोविश्लेषणवाद का पर्याप्त
प्रभाव पड़ा है ।
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