प्रेमाश्रयी सूफी काव्य : पृष्ठभूमि/दर्शन/हिंदी साहित्य/UGC/NET/JRF/BEST GUIDE
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने " जायसी प्रथावली " की भूमिका में कहा है-
" ऐसे समय में कुछ भावुक मुसलमान " प्रेम की पौर '
की कहानियाँ लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे । ये कहानियां
हिंदुओं के ही घरों की थीं इनकी मधुरता और कोमलता का अनुभव करके इन कवियों ने यह
दिखला दिया कि एक ही गुप्त तार मनुष्य मात्र के हृदयों से होता हुआ गया है ,
जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूप रंग के भेदों की ओर से
ध्यान हटा एकत्व का अनुभव करने लगता है । " इसी भूमिका में शुक्ल जी आगे कहते
हैं- " अपनी कहानियों द्वारा इन्होंने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन
सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा , जिनका मनुष्य मात्र के हृदय पर एक सा प्रभाव दिखाई पड़ता है
। हिन्दु हृदय और मुसलमान हृदय को आमने - सामने करके अजनबीपन मिटाने वालों में
इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा ।"
जैसा कि प्रेमाश्रयी सूफी काव्य शीर्षक से ही स्पष्ट है कि काव्य धारा की
काव्य रचना का आधार भारतीय परंपरा के प्रेमाख्यान व इनका दार्शनिक / सैद्धांतिक
आधार सूफी मत था । सूफी मत , इस्लाम की धर्म परंपरा में एक उदार चिंतन रखने वाला मत था ।
जहाँ इस्लाम धर्म की प्रतिष्ठा हज़रत मुहम्मद से होती है ,
वहां इस्लाम धर्म की स्थापना के बाद मुहम्मद साहिब के कुछ
अनुयायियों द्वारा दिखाई धार्मिक असहिष्णुता के विरोध में सूफी मत का प्रचलन हुआ ,
जो धार्मिक रूप से उदार व सहिष्णु विचार लेकर चला।
सूफी मत का सजग विकास नवीं शताब्दी के बाद हुआ व भारत में ग्यारहवीं शताब्दी के
आसपास सूफी दरवेशों के आगमन के साथ इसका प्रभाव पड़ना आरंभ हुआ । पंजाबी साहित्य
के आरंभिक कवि शेख बाबाफरीद माने जाते सूफी विचारों में पगे हुए थे । अनेक सूफी
पंजाब में रहे , इससे
मध्यकालीन पंजाबी साहित्य पर इस मत का गहरा प्रभाव है । शेख फरीद के अतिरिक्त शाह
हुसैन ,
बुल्लेशाह , सुल्तान बाहू आदि अनेक प्रतिष्ठित मध्यकालीन पंजाबी कवि
सूफी मतावलम्बी थे । सूफी मत के अंतर्गत ही भारत में कई सम्प्रदाय भी रहे ,
जैसे - चिश्ती सम्प्रदाय , सुहरावर्दी , जुनैदी , शतारी , कादिरी , मदारी , नक्शबादी संप्रदाय आदि । अधिकाशं सूफी कवि इन्हीं में से
किसी न किसी सम्प्रदाय से प्रेरणा प्राप्त करते थे । भारत में औरंगज़ेब का भाई
दाराशिकोह व दातागंज बख्श सूफी मत के अच्छे व्याख्याता थे ।
सूफी मत व तत्कालीन भारतीय धर्म परंपरा में कुछ समानताएँ भी पाई जाती थीं ।
दार्शनिक क्षेत्र में अद्वैतवाद , एकेश्वरवाद , योग प्राणायाम आदि , धार्मिक सहिष्णुता , रहस्ववादी प्रणयमूला भक्ति व गुरु प्रतिष्ठा कुछ ऐसे
क्षेत्र थे , जिनमें
दोनों परंपराओं में पर्याप्त समानताएँ थीं । हिंदी के प्रेमाश्रयी सूफी काव्य पर
इन दोनों परंपराओं के मिलते - जुलते पक्षों का गहरा प्रभाव था व इस काव्य का
दार्शनिक , सैद्धांतिक
आधार यही एकता का भाव बना । उस्मान के इन शब्दों - सब बहि भीतर वह सब माहीं सबै
आपु दूसर कोउ नाहीं । को यदि कबीर या नानक की वाणी से मिलाकर देखें तो अद्भुत
समानता नज़र आती है । इन सूफी कवियों की अपने धार्मिक निश्वासों पर दृढ़ आस्था थी ,
किन्तु अपनी आस्था वे अपने प्रशंसकों पर आरोपित नहीं करते
थे । वास्तव में समूची मध्यकालीन भक्ति काव्यधारा अपनी धार्मिक सहिष्णुता व उदारता
के लिए जानी जाती है ।
प्रेमाश्रयी सूफी काव्य की सामाजिक पृष्ठभूमि आचार्य रामचंद शुक्ल स्पष्ट कर चुके
हैं कि भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना के बाद राजनीतिक व अन्य कारणों से
भारतीय समाज में भिन्न धर्मावलंबियों , विशेषतः हिन्दू और मुसलमानों के बीच जो भेदभाव बढ़ाए जा रहे
थे ,
इस भेदभाव को मिटाने के लिए " मानस को जात सब एकौ
पहचानबो " की भावना को पुष्ट करने के लिए भक्ति काव्य की र । सभी शाखाओं ने
योगदान दिया । सगुण भक्ति के अंतर्गत रामाश्रयी काव्यधारा व कृष्णमार्गी काव्यधारा
ने यदि उदार व सहिष्णु हिन्दू धार्मिक विचारों को प्रस्तुत किया तो निर्गुण भक्ति
काव्य के अंतर्गत ज्ञानमार्गी शाखा ने दोनों ही धर्मों में व्याप्त पाखण्ड की तर्क
द्वारा धज्जियाँ उड़ाई व प्रेममार्गी शाखा में मुस्लिम धर्मावलबी सूफी कवियों ने
भारतीय प्रेमाख्यानों पर आधारित काव्य रचना कर मनुष्य मात्र में प्रेम को एक
सूत्रता की भावना को विकसित किया ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस संदर्भ में उस काल की सामाजिक पृष्ठभूमि इन
शब्दों में व्यक्त की है - " पंडित और मुल्लाओं की तो नहीं कह सकते ,
पर साधारण जनता राम और रहीम " की एकता मान चुकी थी ।
साधुओं और फकीरों को दोनों दीन के लोग आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते थे । साधु
या फकीर भी सर्वप्रिय वे ही हो सकते थे , जो भेदभाव से परे दिखाई पड़ते थे । " आचार्य शुक्ल इस
सामाजिक संदर्भ में जायसी का महत्व कबीर से भी ज्यादा मानते हैं ,
क्योंकि " कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष
सत्ता की एकता का गभास दिया था । प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता
थी ,
वह जायसी द्वारा पूरी हुई । " यह अकारण नहीं कि
प्रेमाश्रयी सूफी काव्य के मुस्लिम कवियों ने अपनी रचना लोक - भाषा में की क्योंकि
वे अपनी बात जन - जन तक पहुंचाना चाहते थे , जो उनकी अपनी भाषा में ही संभव थी ।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि सूफी काव्यधारा की दार्शनिक / सैद्धांतिक
पृष्ठभूमि यदि सहिष्णु , उदार धर्मचिंतन है तो उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि मानव - मात्र में प्रेम बंधन
द्वारा विशेषतः हिन्दु और मुसलमान में एकता स्थापित करने की भावना की तीव्र कामना
का होना है । ऐसी परंपरा को कुछ धार्मिक असहष्णु तत्व आधुनिक काल में नष्ट करना
चाह रहे हैं ।
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