साधारणीकरण के सिद्धांत का विवेचन कीजिए ।
उत्तर-
साधारणीकरण का व्याकरण सम्मत अर्थ है - असाधारण का साधारण हो जाना । इसका सामान्य
अर्थ है व्यक्ति का निर्वैक्तीकरण अर्थात् देशकाल तथा व्यक्ति की सीमाओं से मुक्त
हो जाना।
साधारणीकरण वह
सामान्यीकृत अनुभव है , जिसमें वस्तुएँ स्थान तथा काल की उपाधि से मुक्त होकर
निर्वैयक्तिक रूप में दिखाई पड़ती हैं एवं अनुभव होने लगती हैं । साधारणीकरण शब्द
का प्रयोग जिस रूप में साहित्य में होता है , उसका संबंध रस - निष्पत्ति की प्रक्रिया से है । साधारणीकरण
के अभाव में रस-नि:त्ति अथवा रसानुभूति की प्रक्रिया पूर्ण एवं तर्कसंगत नहीं रह
जाती ।
डॉ ० नगेन्द्र
के अनुसार साधारणीकरण का अर्थ काव्य के मटन द्वारा पाठक या श्रोता का भाव व
सामान्य भूमि पर पहुँच जाना है। साधारणीकरण का बीज भरतमुनि के निम्नलिखित कथन में
छिपा हुआ है एम्यश्च सामान्यगुणयोगेन रसःनिष्पदाधन्ते । ( जब ये भाव सामान्य रूप
में अनुभूति का विषय बनते हैं , तभी रस की निष्पत्ति होती है । ) यहाँ सामान्य गुण को रस -
निष्पत्ति का कारण अथवा आधार स्वीकार किया गया है । तत्वत : सामान्य एवं साधारण
में कोई अंतर नहीं है ।
साधारणीकरण की
आवश्यकता भी भरतमुनि के रस - सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में पायी गयी है । नाटक
की रसानुभूति के प्रसंग में शंका उत्पन्न हुई कि वास्तविक रति अथवा प्रेम तो
दुष्यंत - शकुंतला में होगा । वे बहुत पहले दिवंगत हो चुके हैं । जो पात्र उनका
अभिनय कर रहे हैं , उनमें रति या प्रेम होना संभव नहीं है । यदि चित्र - तुरंग
न्याय से नाटक के पात्रों को वास्तविक दुष्यंत - शकुंतला स्वीकार कर भी लें तो
उनका प्रेम - व्यापार देखकर दर्शकों के मन में रति नहीं ,
लज्जा का उदय होना
चाहिए , क्योंकि
भारतीय संस्कृति यही सिखाती है ।
काव्य - पाठ के
द्वारा पाठक या श्रोता की रसानुभूति में भी यही बाधा है । भरतमुनि ने इस सूत्र की
व्याख्या करते समय संयोगात एवं निष्पत्ति शब्दों के निम्नलिखित अर्थों को लेकर
आचार्यों ने अपने मत व्यक्त किए । भरतमुनि के इस सूत्र के पहले व्याख्याता
भट्टनायक थे । उन्होंने भावकत्व को साधारणीकरण माना । इस सूत्र के दूसरे
व्याख्याता भट्ट लोल्लट हुए । उन्होंने भावकत्व और भोजकत्व का निषेध करके रस की
अनुभूति स्वीकार की है । इस सूत्र के अंतिम व्याख्याता अभिनवगुप्त हुए । उन्होंने
माना कि साधारणीकरण पहले विभावादि का होता है ,
उसके बाद प्रमाता को '
स्व '
एवं '
पर '
का ज्ञान नहीं रहता
है ।
भूषन बिनु न
विराजई , कविता
वनिता मित्त ॥ ' यह कथन किसका है और इसका क्या उद्देश्य है ।
उत्तर - यह कथन
अलंकारवादी आचार्य केशवदास का है । केशव आचार्य भामह के काव्य द्धांतों के मानने
वाले थे । उन्होंने श्लेष अलंकार का आश्रय लेकर कविता और नारी दोनों का वर्ण ते
हुए कविता की शोभा अलंकार से बतायी है । जिस प्रकार नारी श्रेष्ठ जाति की ,
सभी उत्तम लक्ष युक्त
एवं अच्छे आचरण वाली होती है , पर वह आभूषणों के बिना शोभा नहीं पाती । उसी प्रकार उत्त जो
की , सभी
काव्य शास्त्रीय लक्षणों से युक्त अच्छे शब्दों और छंदों वाली होती हुई कविता भी
अलंक बिना सुशोभित नहीं होती । केशव ने इस दोहे की रचना अलंकारवादी आचार्य भामह के
निम्नलिखित कथन के आध
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