Saturday, 15 May 2021

 जायसी/पद्मावत का उद्देश्य/UGC/NET/JRF/ HINDI SHAHITYA...

जायसी  के पद्मावत रचने का प्रथम उद्देश्य प्रेम का प्रतिपादन नहीं , प्रतिष्ठा है , पूजा है, परोक्षानुगमन है ! गीता का कर्म - योग स्थूलतः आसक्तिजनक है और पद्मावत का प्रेमयोग भी प्रासक्तिजनक है । दोनों के बीच जीवन के तप , संयम और संघर्ष की ऊंची अभिव्यंजना है , वैराग्य केवल आवरण है । यों पद्मावत के सम्पूर्ण कथानक और पात्र और उनके चरित्र - चित्रण के भीतर मुझे राग के लिये विराग की स्वीकृति और अस्वीकृति दोनों बड़ी सफाई से प्रकट हुई लगी हैं । पद्मावती के लिये रत्नसेन का सहज योगी बनना ; संघर्ष , तप , संयम मादिधारण करना और फिर पपावती को पाना - यह राग के लिये विराग की स्वीकृति वाली दिशा कही जायगी और फिर नागमती के लिये , रत्नसेन का पद्मावती के साथ चित्तौड़ को कौट जाना , इसके विपरीत की दूसरी दिशा है ; -विरागजन्य राग की स्वीकृति ! इनके बीच , इनसे ऊपर प्रेम ही एक ध्रुवतारा है । प्रेम की इस उद्देश्यपूति में जायसी के महाप्राण कलाकार का सारा बल लग गया है ।

पद्मावत रचने का दूसरा उद्देश्य , हिंदू और मुसलमान , इन दो परस्पर असहिष्णु जातियों के बीच उस गहरी भीषण साई को पाटने का भी था जिससे तत्कालीन मानवता त्राहि - त्राहि कर रही थी । यह काम पूर्व कबीर तथा सन्त मत के दूसरे कवियों ने भी बड़े वेग से किया था पर कतिपय कारणों से उनकी शैली इस विष को उतारने के लिये पूर्णतः फलीभूत न हो सकी । सूफी कवियों ने इस विष को काफी उतारा । फलतः प्रागे मुसलमानी दरबारों में भारतीय कला एवं संस्कृति का अस्तित्व बना । बादशाह अकबर और बीरबल , टोडर प्रादि दरबारी कवि - कलाकार इसका प्रमाण कहे जायेंगे ।

दूसरी ओर यह भी कि हिन्दू कट्टर धार्मिक भावुक , प्रेमी किंतु तलवार की धार पर खेल जाने वाले मर्यादावादी हैं । रत्नसेन और अलाउद्दीन के युद्ध के समस्त उपकरणों की काव्याभिव्यक्ति जायसी ने बहुत सम्भव है इसी उद्देश्य की पूत्ति के लिये की कि इस्लामी ऐश - परस्ती को दूषित बतलाकर हिन्दुवी प्रान , संयम , सौन्दर्य , प्रेम एवं आदर्श की प्रतिष्ठा व्यंजित की जाय । रत्नसेन और अलाउद्दीन का संघर्ष कुछ ऐसा ही है जैसा कि मागे तुलसी के मानस में सीता के लिये या जनादर्श के लिये , राम ने रावण के साथ किया था । लोक सत के लिये सीता का और प्रेम सत के लिये पद्या वती - नागमती का सती हो जाना , प्रेम और सत्य के सामान्य मादर्श और प्रात्म विशेष स्वरूप की मंजुल झांकी प्रस्तुत करते हैं ।

पद्मावत रचने का तीसरा उद्देश्य तत्कालीन धार्मिक सामाजिक सम विषम परि स्थितियों के बीच एक सीधा मार्ग प्रशस्त करने का भी रहा । मूलतः तो यह मार्ग प्रेम का ही है किंतु यह प्रेम पूर्णतः भीतरा न होकर स्थल - स्थल पर व्यवहारिक स्थितियों एवं मान्यताओं का भी समीचीन विश्लेषण करता है । पद्मावत में ऐसी अनेक सूक्तियाँ हैं जिनमें वाम - मार्ग और जोगी सिद्धों आदि के दुराचरणों का घोर विरोध प्रकट होता है। छंद ६२४ की प्रथम दो पंक्तियों में रिश्वत के लोभ का कितना शल्यात्मक चित्रण जायसी ने किया है

"सोभ पाप के नदी अंकोरा । सत्रु न रहे हाय जस बोरा ॥

जहूँ अंकोर तहँ नेगिन्ह राजू । ठाकुर केर बिनासहि काजू ॥ "

इस प्रकार पद्मावत में सत्य , दया , धर्म , आचरण , चरित्र , ईमानदारी धादि के लौकिक महान उद्देश्यों की पूत्ति का सन्देश भी स्थल - स्थल पर पसीने के पवित्र बिन्दुओं की भांति फूट पड़ा है । यदि प्रेम और पादर्श के इस समन्वय की पृष्ठभूमि पर पद्मावत के उद्देश्य को समझा जाय तो वस्तुतः वह रामचरितमानस की उपयोगिता से प्रायः कम नहीं ठहरता । सच तो यह है कि तुलसी एवं जायसी के कवित्व धर्म  में एक सूक्ष्म अंर्तसाम्य है - जीवन की प्रास्था पौर उसके उदात्तीकरण को अभि व्यक्त करने वाला ! इसकी पूर्ति के लिये इन दोनों समकालीन महाकवियों ने अपना पूरा बल लगा दिया ।

पद्मावत का चोचा उद्देश्य था काव्य को जन धर्म की भाषा नाम-जप शैली में प्रतिष्ठित करना । उससे पूर्व पोर समकालीन साहित्य का सुजन जिस भाषा  भाष रूप शैली में हुया मा हो रहा था वह सम्पूर्ण प्रमों में जननचि या जन - समझ के अनुकूल न पड़ता था । उसमें या तो पतिकल्पना की गगनचुम्बी उहान थी या गहन - दर्शन के प्रतत सागर का अवगाहन था । हमारा तत्कालीन संतत , प्राकृत एवं देश भाषा का साहित्य इस बात की पुष्टि करता है ।

जायसी ने पद्मावत की रचना ठेठ मुहावरेदार अपनी जन भाषा में की है । अवधी भाषा मुहावरों एवं लोकोक्तियों की खान है । सर्व प्रथम पद्मावत जैसा महाकाव्य लिखकर कविवर जायसी ने इस बोली - भाषा को कुछ साहित्य भाषा होने का गौरव प्रदान किया और फिर लगभग दो दशक के ऊपर महाकवि तुलसी ने इसी भाषा में रामचरित मानस महाकाम लिया जिसका कारण - गौरव किसी भारतीय से दिया नहीं है । पद्मा वत जन - भाषा का काव्य है , फिर भी उसमें काव्य शैलियों , गुणों , पर्मकारों योर पर म्परामों का पूर्णतः समाहार है ।

पद्मावत लिखने का पांचया उद्देश्य सूफियों , गायों , सिदों , बाम - मागियों पौर मान्यतामों का उद्घाटन करता भी रहा है । धर्म कमायों , प्रास्थानों , रीति रिवाजों एवं परम्परायों का रामाहार एवं समीकरण करते हुए जायसी ने उन्हें पद्मावत के कयानक में जो दिया है । जायसी इस्लाम धर्म मे सम्बन्धित सूफी मत के अनुयायी थे । हिन्दुओं के नीति पादा भौर धर्म पर भी उनकी पूरी पास्या थी । इसलिए उन्होंने हिन्दू और इस्लाम धर्म की बहुत सी मान्यतामों को एक पास से देखा , परणा और जोड़ा ।

भारतीय धर्म , पर्भ , काम , मोक्ष एवं इस्लाम को तरोयत , शरीक्त , मारफत , हकीकत में की थ्योरी में जायसी को विभिन्नता नहीं लगी ; मोक्ष पीर बका की सगावस्या उन्हें दो अगस्याएँ न लगी ; फना और मिथ्या का रहरूप उन्हें दूर - दूर न दीसा । और इन सबके मध्य प्राया शक्ति पारवती और रानी पद्मावती , भाचा पुरुष पांकर घोर रत्नसेन के काल्पनिक रूपों ने उन्हें लुभाया भी । वास्तव में एक पहल से साम्प्रदायिक मत - मतान्तरों के गोरख धन्धे को स्पष्ट करने के लिये जायसी ने पद्मावत का सृजन किया है । उनका हर पार किसी - न - किसी मनःस्थिति एवं परम्परा का प्रतीक लगता है । इस सबसे जायसी का सीधा आशय यही व्यजित हुया है कि धार्मिक विषमता , चारिषिक विषमता वर्ज नीय है और इसके स्थान पर जहाँ गयुसमता है , वहीं बापर्ण है , बरण योग्य है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए जायसी ने तत्कालीन सिद्धों नाथों एवं वाम - मागियों के रहस्यों के प्रति इतस्ततः करारी चोट भी की हैं ।) किन्तु जागसी को , महान जीवन उद्देश्य की पूत्ति प्रेम भाव ही में प्रतीत हुई , जिसका प्रभान प्रायः मानवता के बीच रादा से रहता बसा पाया है । भने ही इस सम्बन्ध में हिन्दू , मुसलमान , ईसाई , पहदी - भी के धार्मिक उपदेगा - सियास्त एक जैसे ठहरते हैं । संक्षेप में पद्मावत महाकाव्य हिन्दू और मुसलमानों के दिल को दिल से जोड़े रखने वाला एक वृहत इकरारनामाया है , जिसका न्यायालय हृदय है और न्याया धीश प्रेम । इस अनोखी अदालत की प्रतिष्ठा करने में जायसी ने जान लगा दी ।

निष्कर्ष में , पदमावत रखने में मापसी का मुख्य उद्देश्य हिन्द्र मुसलमान , इन दो संस्कृतियों , दो चमों , दो मान्यताओं पौर दो साहित्यों के बीच समन्वय का एक प्रेम - निर्भर प्रवाहित करना चा , यह मान में रखते हुए कि जिसमें रूप के मोहक दृश्य हों , अन्तर मिलन की प्रवाहित संगीत लहरो हो और जिसके उतारबड़ाव पर भूलते , बहते , हिचकोरे गाते रहने की मुसरित रसमसाती पार सममसातो - सी प्रेम पीर भी प्रतिध्वनित हो ।

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