भक्त कबीर/विचार/प्रसंगिकता/UGC/NET/HINDI/JIWANI/DARSAN/.
कृपया भाग 1 को पहले देखे.......
भाग 2.
एक पूर ते सब जग आपल्या जोग भले कीग मंद ।।
लोगा भामि न मुलाहु भाई ।
सन्त कबीर तत्ववेता थे , इसीलिए उन्होंने उसी को सस्य स्वीकारा जिसका उन्होंने
साक्षात्कार कर लिया। इसी धारणा के कारण कबीर ने अनेक स्थानों पर आत्मज्ञान तत्वज्ञान
हीन पम्हित और पुस्तक की न्यर्थता का प्रतिपादन किया है ।
पोथी पति पति जग मुया, पंडित भया न कोय ।
एक आखिर पीय का, पर सु पंडित होइ ।।
समाजोत्कर्ष की दष्टि से कबीर का योगदान अनोखा है । उन्होंने अपनी अजखड बानी
से हिन्दुओं और मुसलमानों में व्यापा मिदाह और समय को शान्त करने का प्रयास किया
दोनों के थामो दम्भ अहंकार और आधार पर प्रहार मिया , गाह्मणों के वर्ग को मकनाधून करते हुए ब्राह्मण - शूद्र को
बराबर मखाया । नाना धर्मो नाना मती- नाना सम्प्रदायों की तात्विक विवेचना करते हुए
सर्वधर्म समन्वय की स्थापना करके उत्कर मानवतावादी कवि - विचारक - सन्त के रूप में
अपनी प्रशंसनीय छवि अंकित की ।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि कबीर ने बाहयचारों की मिथ्या का प्रतिपादन कर ,
बाह्याडम्बरों को दिखावा बताकर ,
बाहमण - शूद्र तथा हिन्दू - मुसलमान में एक ही प्रभुता का
कथन कर समाज का बड़ा उपकार किया है । इस प्रकार कमीर ने ऐसे समाज का स्वरूप प्रदान
किया जिसमें न कोई शूद्र हो , न हिन्दू और न कोई मुसलमान , न कोई धनवान है और न कोई निर्धन और न स समाज का कोई मन्दिर
- मस्जिद पाता है . नत और रोजे रखता है , न काथा काशी जाता है . नापा - माला - तिलक धारण करता है
तीर्थाप्न और न तीर्थों में दान ही करता है।
कबीर काव्य का मूल स्वर आंतरिक और मानसिक निर्मलता है । उन्होंने आन्तरिक
पवित्रता के प्रभाव को भावित करके ही सारा साहित्य रचा है । चूंकि कबीर तत्वद टा
रान्त थे . इसीलिए उन्होंने बाहय साधना के स्थान पर अन्तर साधना पर बल दिया और
अन्तर - साधना की सिद्धि नैतिकता से स्वीकारी । उल्लेखनीय यह है कि नैतिकता कोई
सभ्यता नहीं है जो सीखकर - देखकर धारण की जा सके । नैतिकता तो हमारी आन्तरिक चेतना
है और यही चैतन्य भावधारा कबीर के चित्त का मूल मर्म है ।
कबीर की नैतिक चेतना के अनेक आयाम है । प्रेम , दाम… साहित्यकार अपने साहित्य में बसता है और साहित्य में समाज
का निवास है . इसीलिए समाज , साहित्यकार और साहिश्य को अलग - अलग करके देखा नहीं जा सकता
है । तीनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । जिस समाज में साहिण्यकार का शारीरिक और
मानसिक विकास होता है , साहित्य , साहिलाकार
प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः अपने साहित्य में समाज के भिन्न भिन्न सरोकारों को ही
शब्दावित करता है । यद्यपि कनीर मनमानी सन्त थे , उनका लक्ष्य आध्यात्मिक जगत का भावन और वर्णन था . विकारों
को विनष्ट इस संसार को आदर्श करके और आदर्श समाज की संरचना ही कबीर की कामना थी ।
कबीर की इसी कामना और साधना के कारण समीक्षकों ने उन्हें समाज सुधारक की भी
संज्ञा प्रदान की है । अवय है कि कधीर समाज - सुधारक भले ही न हो ,
लेकिन वह अच्छे समाजदष्टा या सच्चे वसा अवश्य थे । उनका यह
नी विश्वास था कि सामाजिक व्यवस्थाए और परम्पराएं मानवीय एकता की विनाशक है । इसी
धारणा के कारण सन्त प्रवर कबीर ने अविवेकी सामाजिक व्यवस्थाओं और परम्पराओं का
निरस्कार किया । कबीर मनुष्य को मनुष्य मानते हैं । वे मानव के जाति वर्ग को
स्वीकार नहीं करते , इसीलिए वे आदमी आदमी के बीच विद्यमान भेद को मिटाना चाहते है ।
उल्लेख है कि कबीर ने सभी को एक ही परम मष्टा का तत्व स्वीकार किया है । इसी
स्वीकारभावना के कारण कबीर ने यह माना है कि जातीय बच्चन,
जातीय व्यवस्था, आर्थिक स्थिति सब लोकिक लोक की दी हुई है । समाज के
ठेकेदारों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए समाज में ऐसा वर्ग भेद फैलाया है । कबीर
ने इस वर्ग भेद में भागीदार ब्राह्मणों , पनीर की प्रारगिकता हिन्दुओं मुसलमानों आदि की तीन भालना
करके एक जाति . एक वर्ग , एक धर्म को प्रस्तावित किया । मह जाति , वह वर्ग , वह धर्म ईश्वर का है अचल अल्ला नूर पाया कुदरत के सब बंदे ।
सन्त कबीर ने स्वीकारा जिसका उन्होंने साक्षात्कार कर लिया । इसी धारणा के
कारण कबीर ने अनेक स्थानों पर आत्मज्ञान - तत्वज्ञान हीन पम्हित और पुस्तक की
न्यर्थता का प्रतिपादन किया है । पोथी पति पति जग मुया ,
पंबित भयानको ।
माजोत्कर्ष की दष्टि से कबीर का
योगदान अनोखा है । उन्होंने अपनी अजखड - फरफड बानी से हिन्दुओं और मुसलमानों में
व्यापा मिदाह और समय को शान्त करने का प्रयास किया दोनों के थामो दम्भ अहंकार और
आधार पर प्रहार मिया , गाह्मणों के वर्ग को मकनाधून करते हुए ब्राह्मण - शूद्र को बराबर मखाया । नाना
धर्मो नाना मती- नाना सम्प्रदायों की तात्विक विवेचना करते हुए सर्वधर्म समन्वय की
स्थापना करके उत्कर मानवतावादी कवि - विचारक - सन्त के रूप में अपनी प्रशंसनीय छवि
अंकित की । कहने की आवश्यकता नहीं है कि कबीर ने बाहयचारों की मिथ्या का प्रतिपादन
कर ,
बाह्याडम्बरों को दिखावा बताकर ,
बाहमण - शूद्र तथा हिन्दू - मुसलमान में एक ही प्रभुता का
कथन कर समाज का बड़ा उपकार किया है ।
इस प्रकार कमीर ने ऐसे समाज का स्वरूप प्रदान किया जिसमें न कोई शूद्र हो ,
न हिन्दू और न कोई मुसलमान , न कोई धनवान है और न कोई निर्धन और न स समाज का कोई मन्दिर
- मस्जिद पाता है . नत और रोजे रखता है , न काथा काशी जाता है . नापा - माला - तिलक धारण करता है तीर्थाप्न
और न तीर्थों में लान ही करता है , वह सा में और पामी जगह अपने निर्गुण प्रिय की निराली लाली
का भावन करता है उसी लाली की लालिमा के कारण उसे प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक जीव
अतिधिय लगता है क्योंकि सभी जीवों की आत्मिक - सात्विक एकता ही कबीर का वरेण्य है माली
मालकी ।
कबीर के काव्य का मूल स्वर आचारिक और मानसिक निर्मलता है । उन्होंने आन्तरिक
पवित्रता के प्रभाव को भावित करके ही सारा साहित्य रचा है । चूंकि कबीर तत्व
इसीलिए उन्होंने बाहय साधना के स्थान पर अन्तर - साधना पर बल दिया और अन्तर -
साधना की सिद्धि नैतिकता से स्वीकारी ।
उल्लेखनीय यह है कि नैतिकता कोई सभ्यता नहीं है जो सीखकर देखकर धारण की जा सके
। नैतिकता तो हमारी आन्तरिक चेतना है और यही चैतन्य भावधारा कबीर के चित्त का मूल
मर्म है । कबीर की नैतिक चेतना के अनेक आयाम है ।
प्रेम , दाम…कबीर स्वभाव से अक्कड़ , मिजाज से फक्कड़ और अखंड आत्मविश्वासी थे । उनके व्यक्तित्व
के बारे में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह कथन सर्वथा उचित है - "
हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक
उत्पन्न नहीं हुआ ..... मस्ती , फक्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड - फटकार कर चल देनेवाले
तेज ने कबीर को हिन्दी साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है ... इसी
व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती है । "
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