आचार्य शुक्ल के इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि है.उनका काल विभाजन। उन्होंने हिन्दी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार सुस्पष्ट कालखंडों में विभाजित किया है। साथ ही इनका नामकरण भी किया है ।
शुक्ल ने केशव कवि को दयाविहीन तक कह दिया था ।
शुक्लजी ने रीतिमुक्त कवियों को फुटकल कवियों स्थान दिया था ।
हिन्दी समीक्षा और आचार्य शुक्ल ' के लेखक नामवर सिंह है -- 'शुक्ल जी भारतीय पुनरुत्थान
युग की उन परिस्थितयों की उपज थे, जिन्होंने राजनीति में महात्मा गांधी , कविता में रवीन्द्रनाथ
ठाकुर, जयशंकर प्रसाद आदि को उत्पन्न किया । '
नामवर सिंह -- आचार्य शुक्ल को हिंदी आलोचना का युग पुरुष कहा जाता है । - कविता
का उद्देश्य हदय को लोक - सामान्य की भावभूमि पर पहुंचा देना है ।
शुक्ल ने लिखा है कि भ्रमरगीत का महत्व एक बात से और बढ़ गया है भक्तशिरोमणि सूर
ने इसमें सगुणोपासना का निरुपण बड़े ही मार्मिक ढंग से - हृदय की अनुभूति के आधार पर
तर्क पद्धति पर नहीं - किया है । भक्ति के लिए ब्रह्म का सगुण होना अनिवार्य हैं ।
शुक्ल ने घनानंद को ब्रजभाषा का मर्मज्ञ कवि बताया है
तुलसीदास उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदय मंदिर में पूर्ण प्रेम प्रतिष्ठा के
साथ विराज रहे हैं । आचार्य शुक्ल है --"यह
एक कवि ही हिंदी को प्रौढ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है । तुलसीदास के
लिए - हिंदी कविता की प्रौढ़ता के युग का आरंभ आचार्य शुक्ल तुलसीदास से मानते हैं
।
आचार्य शुक्ल तुलसीदास को स्मार्त वैष्णव मानते हैं ।
शुक्ल ने पद्मावत की कथा का पूर्वार्दध कल्पित और उत्तरार्दध ऐतिहासिक माना है
-- " इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को संभाला
जो नाथ पंथियों के प्रभाव से प्रेम भाव और भक्ति रस से शुन्य , शुष्क पड़ता जा रहा था
। "
आचार्य शुक्ल के अनुसार सिद्धों की उधृत रचनाओं की भाषा प्लीज भाषा मिश्रित अपवंश
या पुरानी हिंदी की काव्य भाषा है ।
पंडित गोविंदनारायण मिश्र के गद्य को समास अनुप्रास में गुंथे शब्द - गुच्छों का
एक अटाला समझिए ।
पंडित जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी के अधिकांश लेख भाषण मात्र हैं , स्थायी विषयों पर लिखे
हुए निबन्ध नहीं ।
आचार्य शुक्ल ने मिश्रबन्धु विनोद ' को बड़ा भारी इतिवृत्त संग्रह कहा
है ।
अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध ? काव्य अधिकतर भावव्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है ।
सूरदास के बारे में वे कहते है- वात्सल्य के क्षेत्र में जितना अधिक उद्घाटन सूर
ने अपनी बन्द आँखों से किया , इतना किसी और कवि ने नहीं । इन क्षेत्रों का तो वे कोना - कोना
झोंक आए । ?
शुक्ल जी ने तुलसी और यसी के समकक्ष ही सूरदास है । ? यदि हम मनुष्य जीवन के
संपूर्ण क्षेत्र को लेते हैं तो सूरदास की दृष्टि परिमित दिखाई पड़ती है पर यदि उनके
चुने हए क्षेत्रों ( श्रृंगार तया वात्सल्य ) को लेते हैं , तो उनके भीतर उनकी पहुँच
का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं । उन क्षेत्रों में इतना अतर्दृष्टि विस्तार और किसी
कवि का नहीं है (भ्रमरगीत सार की भूमिका ) ? सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन
प्रसंगों की उद्भावना ।
भ्रमरगीत का महत्व एक बात से और बढ़ गया है भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना
का निरूपण बड़े ही मार्मिक ढंग से- हृदय की अनुभूति के आधार पर तक पद्धति पर नहीं किया
है । 'सूरसागर' में जगह - जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है । ? यह सूचित करने की आवश्यकता
नहीं है कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर ।
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