भक्त कबीर/विचार/प्रसंगिकता/UGC/NET/HINDI/JIWANI/DARSAN/.
कबीर की प्रासंगिकता 'हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता' - अनन्त हरि और अनन्ता हरिकथा को श्रुति सन्तों ने मांति - भांति से गाया -
ध्याया है । किसी ने श्री हरि के मधुर मनोहर , कठिन कठोर ,
भव्य भयंकर रूप स्वरूप की अवतारणा करके उस पूजा है और किसी ने उसके
अरूप , अनिर्यध , निर्गुण - निराकार
रूप को मन ही मन भावित करके आराधा है । हरि के अरूप, अनिर्वय.
निर्गुण. निराकार रूप की भावना - अनुभावना करने वाले साधु साधकों को निर्गुणिए
भक्त, निर्गुण कवि, सन्त आदि नाना अभिधानों
से जाना बखाना जाता है । सन्त प्रवर कबीरदास जी इसी परम्परा के श्रेष्ठ कवि सन्त
हैं । वास्तव में, कबीर देशकालजयी हैं । आज जब आये दिन
पुरातन कवियों की प्रासंगिकता का प्रश्न उठाया जाता है , तब
कबीर की प्रासंगिकता का प्रश्न न उठे - ऐसा कैसे हो सकता है ?
सूत्र रूप में , विषय
प्रवर्तन के रूप में यह सहज रूप से स्थापित किया जा सकता है कि कबीर का काव्य
हमारे समाज और हमारे राष्ट्र के लिए पूर्णतः प्रासंगिक है । यद्यपि कबीर को पैदा
हुए साढे पाँच सौ वर्ष बीतने को है , फिर भी कबीर के
प्रतिपाद्य की प्रासंगिकता क्षीण नहीं होने पायी है । या यों भी कहा जा सकता है कि
धरती पर जय तक मानव पर अत्याचार होते रहेंगे , जाति - धर्म -
अर्थ के नाम पर मानव और मानव मूल्यों की शिनानी हत्याएं होती रहेंगी , मानय सद्भावना सहज जीने का अभ्यासी नहीं होगा । आदर्श मानव की संकलपना
अधूरी रहेगी , तब तक , निस्संदेह ,
कबीर की वाणी प्रासंगिक रहेगी । ऐसे सन्ना कवियों की प्रासंगिकता इस
प्रकार अवलोकनीय है ।
अ ) दार्शनिक दृष्टि से, ख) सामाजिक दृष्टि
से ग) नैतिक व आर्थिक दृष्टि घ)
अभिव्यक्ति की दृष्टि दार्शनिक दृष्टि से सन्त कबीर अध्यात्म पथ के प्रसन्न पथिक
थे ।
ब्रह्मानुभ्यान , ब्रह्मानुचिन्तन
तथा उस अकय का भाव - व्यंजन ही उनका सर्वस्व था । अपनी इसी सर्वस्व चेतना को वे
समाज में फैला देने के अभिलापी थे । अवधेय है कि कबीर के समय में ईश्वर के स्वरूप
को लेकर माना मत और नाना धारणाएं प्रचलित थी , लोग अपने अपने
धर्मानुसार - मतानुसार अकब ईश्वर का कथन कर रहे थे , अपने ही
पूज्य ब्रह्मा की सर्वश्रेष्ठता का बखान - वर्णन कर रहे ये ईश्वर - विषयक इस
स्थिति को लक्षित करके कबीर का चित्त व्यथा और विक्षोभ से विचलित हो उठा । उन्हें
बडा आश्चर्य हुआ कि जो ब्रह्मा सर्वदा और सर्वथा एक है , उसको
कुरान और पुराण , पोथी और पण्डित , मुल्ला
और मौल्वी कैसे कैसे और किन - किन कों में रूपायित करते हैं तथा समपूर्ण समाज का
लक्ष्य प्रष्ट आर विवेक विनष्ट करके अपने अपने स्वार्थ का सम्पोष्ण और मत का प्रचार
करते हैं । इस सन्दर्भ में कबीर का अभिमत है कि यह राम ( अर्थात् कबीर का राम )
हिन्दुओं के राम और मुसलमानों के खुदा से अलग है उसके प्रक त स्वरूप को कोई नहीं
जानता है .
कबीर ने सम्पूर्ण समाज को एक राह पर लाने के लिए , मत - मत में एकमत स्थापित करने के लिए ऐसे
ब्रह्म की संकलपना की जो सभी जातियों एवं धर्मावलम्बियों को स्वीकार हो । उन्होंने
उस ब्रह्म का नाम राम प्रस्तावित किया , लेकिन कगीर के राम
यो राम नहीं जो तीनों लोकों में दशरथ सुन के रूप में विख्यात है । कबीर के '
राम ' निर्गुण - निराकार है , वाणी और जांजना से ऊपर है , सर्वत्र व्याप्त और सबसे
न्यारा है . यह तो केवल ध्यानगम्य व अनुभव गम्य है ।
निरगुण राम निरगुण सम जपहु रे माई । अविगति की गति सती न जाई ।
चारि वेद जाकै सुकत नौ व्याकरना मरम न जीना ।।
चारि वेद जाकै गरड समानी , चरन कवल कवीला नहीं जाना ।।
कहै कबीर जाकै बेद नाही . निज जन बैठे हरि की छाहीं ।। फिर भी , उसके नाना नाम है । वही राम है और वही रहीम
है . वही अल्लाह है और वही भगवान है । उसी परमसत्ता से मोटी महीन सारी सत्ताएं
स्वरूपित्त आकारित हुई है , उसी परमात्मा से सारी आत्माएं
निकली हैं । समस्त जीयों में यही परमतत्त्व नाना रूपों में विद्यमान है । ऐसे
व्याफ - विशिष्ट परमत्तब के माध्यम से कबीर ने सम्पूर्ण समाज और संसार को यह जान
दिया कि सभी लोगों का ईशेवर एक है । उसके नाम पर विद्वेष और निग्रह कलह और कोलाहल अज्ञानता का बोधक है ।
कबीर उस अपरम्पार के अनन्त नामों और अनन्त गुणों को इस प्रकार प्रस्तुत करते
हैं अलह अलख निरंजन देव , किहि
विधि… साहित्यकार अपने साहित्य में बसता है और साहित्य में समाज
का निवास है . इसीलिए समाज , साहित्यकार और साहिश्य को अलग - अलग करके देखा नहीं जा सकता
है । तीनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । जिस समाज में साहिण्यकार का शारीरिक और
मानसिक विकास होता है , साहित्य , साहिलाकार
प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः अपने साहित्य में समाज के भिन्न भिन्न सरोकारों को ही
शब्दावित करता है ।
यद्यपि कबीर मनमानी सन्त थे , उनका लक्ष्य आध्यात्मिक जगत का भावन और वर्णन था. लेकिन
उन्होंने अपनी सारााही व टिसे संसार और समाज में व्याप्त भाति भाति के आचारिक और
मानसिक विकारों को विनष्ट करके आदर्श माना और आदर्श समाज की संरचना ही कबीर की
कामना थी । कबीर की इसी कामना और साधना के कारण समीक्षकों ने उन्हें समाज सुधारक
की भी संज्ञा प्रदान की है ।
कबीर समाज सुधारक भले ही न हो ,
लेकिन वह अच्छे समाजदष्टा या सच्चे वसा अवश्य थे । उनका यह
नी विश्वास था कि सामाजिक व्यवस्थाए और परम्पराएं मानवीय एकता की विनाशक है । इसी
धारणा के कारण सन्त प्रवर कबीर ने अविवेकी सामाजिक व्यवस्थाओं और परम्पराओं का
निरस्कार किया । कबीर मनुष्य को मनुष्य मानते हैं । वे मानव के जाति वर्ग को
स्वीकार नहीं करते , इसीलिए वे आदमी आदमी के बीच विद्यमान भेद को मिटाना चाहते है । उल्लेख है कि
कबीर ने सभी को एक ही परम मष्टा का तत्व स्वीकार किया है । इसी स्वीकारभावना के
कारण कबीर ने यह माना है कि जातीय बच्चन , जातीय व्यवस्था , आर्थिक स्थिति सब लोकिक लोक की दी हुई है । समाज के
ठेकेदारों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए समाज में ऐसा वर्ग भेद फैलाया है ।
कबीर ने इस वर्ग भेद में भागीदार ब्राह्मणों , पनीर की प्रारगिकता हिन्दुओं मुसलमानों आदि की तीन भालना
करके एक जाति . एक वर्ग , एक धर्म को प्रस्तावित किया । मह जाति , वह वर्ग , वह धर्म ईश्वर का है अचल अल्ला नूर पाया कुदरत के सब बंदे ।
भाग 1.
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