Saturday, 15 May 2021

 भक्त कबीर/UGC/NET/HINDI/JIWANI/DARSAN/.

कबीर की भक्ति भावनाः-

कबीर निर्गुण ब्रह्म की भक्ति करते हैं और जन सामान्य को भी इसी निर्गुण ब्रह्म के नाम पर एकत्रित करने की कोशिश करते हैं । कबीर को निर्गुण भक्ति का प्रवर्तक माना जाता है । इन्हें ज्ञानमार्गी संत कहा जाता है फिर भी इन्होंने ईश्वर प्राप्ति में प्रेम को ही मुख्य माना है । कबीर की भक्ति में राम नाम जप पर बल दिया गया है । इनकी भक्ति पद्धति में माधुर्य - भाव की प्रधानता है । ये परमात्मा की एकता पर बल देते हैं और गुरु को ईश्वर से बड़ा स्थान देते हैं क्योंकि सद्गुरु के कारण ही ब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है ।

कबीर एक भक्त के लिए आचरण की शुद्धता पर बल देते हैं और गृहस्थ जीवन को सर्वोपरि मानते हैं । नारी को साधना में बाधक मानते हुए भी पतिव्रता की प्रशंसा करते हैं । कबीर की भक्ति साधना सुगम है और ऊँच नीच, छोटे बड़े सभी उस तक पहुँच सकते हैं । इस संबंध में कबीर की निम्नलिखित साखी बहुत प्रसिद्ध है .

जाति पाँति पूछै नहि कोई । हरि को भजे , सो हरि का होई ।।  

--कबीर ज्ञान के आधार पर साधु का महत्व मानते हैं :

जाति न पूछौ साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान ।

मोल करो तरवारि का पड़ा रहन दो म्यान ।।

---कबीर ने ईश्वर को पुरुष ( चेतन ) तथा प्रकृति को स्त्री ( जड़ ) रूप में माना । इस प्रकार कबीर ने सूफियों की प्रेम की मादकता को तो माना है किंतु सूफियों की साधना से वे सहमत नहीं क्योंकि सूफी संतों ने ईश्वर को प्रेमिका ( स्त्री रूप ) और आत्मा को प्रेमी ( पुरुष ) रूप में माना है । इस प्रकार कबीर ने भक्ति साधना में सूफियों की अभारतीय पद्धति को नकार दिया और भारतीय साधना पद्धति को महत्वपूर्ण स्थान दिया ।

कबीर की साखी 'शब्द' साक्षी ' शब्द का ही तद्भव रूप है । साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है - प्रत्यक्ष ज्ञान । यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है । संत संप्रदाय में अनुभव ज्ञान की ही महत्ता है , शास्त्रीय ज्ञान की नहीं । कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था । कबीर जगह जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे । अतः उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी , भोजपुरी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है । इसी कारण उनकी भाषा को श्यामसुंदर दास को 'पचमेल खिचड़ी ' कहा जाता है । कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी शुक्ल ने कहा । ' साखी ' वस्तुतः दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा ।

कबीर  के "उलटवासी' पुरातन न होकर, आधुनातन है । संतो की, विशेष रूप से कबीर की, अटपटी अभिव्यकित को किस आधार पर उलटवासी कहा गया, इसका कोई प्रामाणिक निर्णय संभव नहीं । संत परम्परा की गदियों पर ' अटपटी बानी को ' उलटवासी ' या इसके निकटवर्ती नाम से पुकारने की परम्परा का अपलोकम साहित्यकारों में किया है और रामप्रदाय से चलकर शैली विशेष के लिए, साहित्य में उलटबासी नाम प्रचलित हुआ है । ( डॉ . रमेश चन्द्र मिश्र ) मानक हिन्दी शैली में छलटवासी के स्वरूप को ध्यान में रखकर किया गया है कि उलटयासी - उलट + वासी , साहित्य 44 कबीर में ऐसी उक्ति या कयन  (विशेषतः पायत्मक ) जिसमें असंगति , विचित्र , विभावना , विषम , विशेषोक्ति आदि अलकारों से युक्त कोई ऐसी विलक्षण बात कही जाती है जो प्राकतिक नियम या जाच नियम का लोक व्यवहार में विपरित होने पर भी किसी गूढ तत्व से युक्त होती है । सन्त साहित्य के अनेक आचार्यों ने भी उलट्यासी पर अपने विचार व्यक्त किये हैं ।

डॉ० पीताम्बर दत्त बडरवाल के अनुसार आध्यात्मिक अनुभम की अनिश्चितता के कारण सापक को कमी कमी परस्पर विरोधी उक्तियों द्वारा व्यक्त करने का डंग अपनाना पड़ता है ,

जैसेः- चन्द्रविहीन चांदनी , सूर्यविहीन सूर्यप्रकाश आदि और उसके आधार पर ऐसे गूब प्रतीकों की सदि हो जाती है , जिन्हें ' चसटबासी या विषयक कहते है ।

डा० सरनाम सिंह शर्मा के अनुसार 'परमपद या अध्यात्म लोक में रहने वाले का निवास वास्तव में ' उलटवास ' है । इससे सम्मान्चित बानी ' उलटवासी ' वाणी कहला नस्कती है । आध्यात्मिक अनुभूतिया लोक - विपरीत अनुभूतियाँ होती है और उन अनुभूतियों को व्यक्त करने वाली वाणी लोक द टि से उलटी प्रतीत होती है . वास्तव में उलटी नहीं होती । "

PART 2

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