Saturday, 15 May 2021

 भक्त कबीर/UGC/NET/HINDI/JIWANI/DARSAN/.....

सन्त कबीर ( सन् 1398-1518 ई . )

कबीर मध्यकालीन धार्मिक आन्दोलन की एक ऐसी आरम्भिक कड़ी है , जो अपने पूर्ववर्ती लोक - धार्मिक परम्परा का अन्वेषण करके शुद्ध सर्वसमावेशक और समाजोन्मुख धार्मिकता की नयी परम्परा को प्रारम्भ करती है । अन्तःसाक्ष्य , साम्प्रदायि सामग्री , प्राचीन ग्रन्थों एवं विद्वानों के अभिमतों के सहारे कबीर के आविर्भाव काल का निर्धारण अलग - अल रूप में किया जाता रहा है । अलग - अलग विद्वानों ने कबीर का आविर्भाव काल अलग अलग निर्धारित किया है । इतना होने पर भी अन्तःसाक्ष्य के अनुसार कबीर का जन्म 1398 ई . माना जा सकता है । ' कबीर परचई ' में उल्लेख है कि कबीरजी को 120 वर्ष का पवित्र जीवन प्राप्त हुआ था ।

कबीर ने विधिवत शिक्षा नहीं पाई थी परंतु सत्संग, पर्यटन तथा अनुभव से उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था । भक्तिकालीन निर्गुण संत परंपरा के प्रमुख कवि कबीर की रचनाएँ मुख्यतः कबीर ग्रंथावली में संगृहीत हैं , किंतु कबीर पंथ में उनकी रचनाओं का संग्रह बीजक ही प्रामाणिक माना जाता है । कुछ रचनाएँ गुरु ग्रंथ साहब में भी संकलित हैं ।

कबीर अत्यंत उदार , निर्भय तथा सद्गृहस्थ संत थे । राम और रहीम की एकता में विश्वास रखने वाले कबीर ने ईश्वर के नाम पर चलने वाले हर तरह के पाखंड, भेदभाव और कर्मकांड का खंडन किया । उन्होंने अपने काव्य में धार्मिक और सामाजिक भेदभाव से मुक्त मनुष्य की कल्पना की । ईश्वर - प्रेम , ज्ञान तथा वैराग्य, गुरुभक्ति , सत्संग और साधु महिमा के साथ आत्मबोध और जगतबोध की अभिव्यक्ति उनके काव्य में हुई है ।

कबीर की भाषा की सहजता ही उनकी काव्यात्मकता की शक्ति है । जनभाषा के निकट होने के कारण उनकी काव्यभाषा में दार्शनिक चिंतन को सरल ढंग से व्यक्त करने की ताकत है ।  क्षितिज यहाँ संकलित साखियों में प्रेम का महत्व , संत के लक्षण , ज्ञान की महिमा , बाह्याडंबरों का विरोध आदि भावों का उल्लेख हुआ है ।

कबीर कहते हैं कि ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपनी दुर्बलताओं से मुक्त होता है । जब सामान्य - जनों को समझाते तो जन बोलियों का प्रयोग करते थे, इसीलिए उनकी भाषा में पंजाबी , भोजपुरी के साथ बंगला, मैथिली , राजस्थानी , लहंदा , खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग मिलता है । कबीर जब पाखण्डों पर प्रहार करते हैं , तो उनकी भाषा ओजस्विनी बन जाती है , लेकिन निर्गुण राम के प्रति दाम्पत्य - भक्ति भाव की अभिव्यक्ति के समय उनकी भाषा शृंगार रसानुकूल माधुर्य गुण से ओत - प्रोत हो | जाती है । ' दुलहिनी गावहु मंगलचार ' पद को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है ।

 

कबीर ने छन्द और अलंकारों का जान  बूझकर प्रयोग भले ही न किया हो , लेकिन उनके द्वारा सहज रूप में प्रयुक्त छन्द और अलंकार उनके काव्य - सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं । साखी , सबद , रमैनी उनके प्रमुख छन्द रहे हैं । इनके अतिरिक्त चौंतीस बिप्र बत्तीसी , कटरा , हिंडोला , बसन्त , चाँचर , बेलि , विरहुली आदि छन्द भी उनकी रचना में पाये जाते हैं । अलंकारों में रूपक और उपमा का बाहुल्य है । उनके रूपक और उपमाएँ दैनिक जीवन से सम्बद्ध हैं । इस प्रकार कबीर का साहित्य पूरी तरह से जनमानस से जुड़ा है तथा जनमानस से विनिर्मित है । के जन्म और मृत्यु के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं ।

कबीर का उद्देश्य धर्म , जाति , सम्प्रदाय विरहित ऐसे असांप्रदायिक समाज का निर्माण करना है , जहाँ हा कोई हरि को भजे सो हरि का कोई है । इसीलिए उन्होंने जाति , धर्म आदि की दीवारों पर सशक्त प्रहार किये हैं । भाषा के धरातल पर भी कबीर लोकोन्मुख रहे हैं । उनकी केवल कहि समझायियाँ हैं । वे विषय , व्यक्ति और भाव के अनुकूल भाषा का प्रयोग करते हैं । जब वे किसी मुसलमान को कोई बात समझाते थे या किसी इस्लामी बात को समझाना चाहते थे तो फारसी मिश्रित उर्दू का प्रयोग करते थे । इसी प्रकार हिन्दू धर्म की चर्चा करते समय तथा पण्डितों को समझाते समय वे शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करते थे ।


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