गोस्वामी तुलसीदासःहिंदी साहित्य भक्तिकाल के प्रमुख कवि/UGC/NET JRF/PYQ
गोस्वामी तुलसीदास के जीवन चरित को जानने के लिए कुछ
कृतियाँ प्रमुख हैं - बेनीमाधवदास द्वारा रचित मूलगोसाई चरित और महात्मा रघुवरदास
द्वारा रचित तुलसी चरित इनके अतिरिक्त प्रियादास द्वारा रचित भक्तमाल की टीका में
भी कुछ प्रसंग मिलते हैं ।
तुलसीदास जी का जन्म उक्त दोनों चरितों के आधार पर 1554
विक्रमी माना जाता है और मृत्यु संवत् 1680 विक्रमी में । ऐसा मानने पर तुलसी की
आयु 126 वर्ष ठहरती है जो संभव नहीं जान पड़ती । अतः पं . रामगुलाम द्विवेदी और
जार्ज ग्रियर्सन का मत अधिक स्वीकार्य है जिसके अनुसार तुलसी का जन्म संवत् 1589
विक्रमी अर्थात् 1532 ई . में हुआ था और मृत्यु 1680 वि. अर्थात् 1623 ई . में हुई
। तुलसी के जन्मस्थान के संबंध में भी दो मत हैं । कुछ लोग उनका जन्म स्थान एटा
जिले के ‘ सोरों ' नामक स्थान को मानते हैं और प्रमाण स्वरूप दोहे की इस पक्ति
को उद्धृत करते हैं -
"मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकर खेत
आचार्य शुक्ल के अनुसार यह 'सूकर खेत' एटा जिले का सोरों कस्बा नहीं अपितु गोंडा जिले में सरजू
किनारे स्थित एक पवित्र तीर्थ 'सूकर क्षेत्र' है । 'गोसाई चरित' एवं 'तुलसी चरित' दोनों में तुलसी का जन्मस्थान ‘राजापुर' ही बताया है । शिवसिंह सेंगर और राम गुलाम द्विवेदी भी
राजापुर को ही तुलसी का जन्मस्थान मानते है । आचार्य शुक्ल ने भी राजापुर को तुलसा
का जन्मस्थान माना है ।
इस तापस के रूप में तुलसी ने ही स्वयं को राम के पास
पहुंचाया है और ठीक उसी स्थान पर जहाँ के वे निवासी थे , अर्थात् राजापुर के पास । तुलसी के पिता का
नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था । इस संबंध में रहीम का यह दोहा
प्रसिद्ध हैः-
सुरतिय नरतिय नागतिय सब चाहति अस कोय ।
गोद लिए हुलसी फिर , तुलसी सो सुत होय ।।
अभुक्तमूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण बालक तुलसीदास
को जन्म के बाद ही पिता द्वारा त्याग दिया गया । कहा जाता है कि उनकी माता की
मृत्यु प्रसूतिकाल में ही हो गई थी । उनका पालन - पोषण मुनिया नामक दासों ने किया
बाद में बालक रामबोला ( तुलसी का बचपन का नाम ) बाचा नरहरिदास के पास आ गया
जिन्होंने उन्हें शिक्षा - दीक्षा दी । इन्हीं गुरु से उन्हें रामकथा सुनने को
मिली । बाबा नरहरिदास के साथ ही चालक रामबोला काशी में आया जहाँ परम विद्वान
महात्मा शेष सनातनजी की पाठशाला में 15 वर्ष तक अध्ययन करके शास्त्र पारंगत बने और
अपनी जन्मभूमि राजापुर लौटे ।
तुलसी का विवाह रत्नावली से हुआ था । कहा जाता है कि ये
अपनी पत्नी पर इतने अनुरक्त थे कि एक बार उसके मायके चले जाने पर ये चढ़ी नदो को
तैरकर पार करते हुए उसके पास जा पहुंचे और रत्नावली ने इन्हें धिक्कारते हुए कहा
1. लाज न लागत आपकी दौरे आयहु साथ । धिक - धिक ऐसे प्रेम को
कहा कहाँ मैं नाथ ।।
2. अस्थि चर्म मय देह मम तामैं ऐसी प्रोति । तैसी जौ
श्रीराम मह होति न तो भवभौति ।।
रत्नावली के इन वचनों का ऐसा प्रभाव तुलसी पर पड़ा कि वे
विरक्त होकर काशी चले गए । इस घटना का विवरण प्रियादास कृत भक्तमाल की टीका में
तथा तुलसी चरित्र और गोसाई चरित्र में मिलता है ।
तुलसी की रचनाओं की संख्या आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बारह
मानी है जिसमें पांच बड़े और साल छोटे ग्रंथ हैं 1. रामचरितमानस, 2. विनयपत्रिका, 3. कवित्त रामायण ( कवितावली ),
4. दोहावली, 5.गीतावली । छोटे ग्रंथों में-1.
रामलला नहछू, 2. कृष्णागीतावली, 3.
वैराग्य संदीपनी, 4.रामाज्ञा प्रश्नावली , 5. अरवै रामायण, 6. पार्वती मंगल, 7. जानकी मंगल के नाम
हैं ।
शिवसिंह सरोज में इनके अतिरिक्त 10 और ग्रंथों के नाम दिए गए है जो तुलसी रचित बताए गए हैं
पर शुक्ल जी उन्हें तुलसी की प्रामाणिक रचनाओं में स्थान नहीं देते । उनके कुछ
ग्रंथों की रचना के संबंध में जनश्रुतियाँ प्रचलित है ।
यथा 1.
बरवै रामायण को रचना गोस्वामी
तुलसीदास ने अपने मित्र अब्दुर्रहीम खानखाना ( रहीम ) के आग्रह पर की थी । इसमें
प्रयुक्त छंद वही हैं जो रहीम के ग्रंथ बरवै नायिका भेद में हैं ।
2 कृष्ण गीतावली की रचना वृंदावन यात्रा के अवसर पर तुलसों ने की । गोसाई
चरित में बेनीमाधवदास ने लिखा है कि कृष्ण गीतावली और रामगीतावली की रचना तुलसी ने
चित्रकूट में उसके बाद लिखी जब सूरदास जी उनसे मिलने चित्रकूट आए थे ।
3. रामाज्ञा प्रश्न की रचना तुलसी ने अपने मित्र प्रसिद्ध ज्योतिषी पंडित
गंगाराम के अनुरोध पर की थी जो काशी में प्रहलाद घाट पर रहते थे ।
4. कहा जाता है कि हनुमान बाहुक की रचना तुलसी में बाहु पीड़ा से मुक्ति पाने हेतु की थी ।
5. विनयपत्रिका नामक अर्जी की रचना
तुलसी ने 'कलिकाल'
से मुक्ति पाने हेतु राम के दरबार में प्रस्तुत करने हेतु की ।
To be continued....
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