भक्तिकाल और अष्टछाप का परिचयः हिंदी साहित्य/UGC NET JRF/PYQ/
कृष्ण भक्ति के सगुण शाखा में श्री निंबकाचार्य, श्री
माध्वाचार्य, श्री विष्णु स्वामी, श्री वल्लभाचार्य और श्री चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांतों से
अनुप्राणित थी । कृष्णभक्ति शाखा पर वल्लभाचार्य का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा ।
उन्होंने ब्रह्मसूत्रों पर 'अणुभाष्य' लिखा था और श्रीमद्भागवत पर 'सुबोधिनी टीका' । इनके दार्शनिक सिद्धांत ' शुद्धाद्वैत ' के नाम से प्रसिद्ध हैं और इनकी उपासना पद्धति 'पुष्टिमार्गी' कहलाती है । पुष्टि भगवान के अनुग्रह को कहते हैं । ये लोग
अपने पुरुषार्थ की अपेक्षा भगवान के अनुग्रह को ही अधिक महत्त्व देते हैं । श्री
वल्लभाचार्य ने जिस पुष्टिमार्गीय भक्ति - संप्रदाय की स्थापना की थी , उसका जिन हिंदी भक्त कवियों द्वारा पल्लवन किया गया, उन्हें अष्टछाप के कवि कहा गया है । यूँ तो पुष्टिमार्ग को
स्वीकार करने वाले अनेक भक्त थे परंतु जिन आठ भक्त कवियों पर गोस्वामी विट्ठलनाथ
जी ने अपने आशीर्वाद की छाप लागई थी, उन्हें 'अष्टसखा' या 'अष्टछाप' की संज्ञा दी गई।
अष्टछाप के कविः
श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य के सुपुत्र विट्ठलनाथ जी ने
निम्नलिखित आठ कवियों को चुनकर उन पर प्रमाणिकता को मोहर लगा दी । इनमें से पहले
चार कवि महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे तथा शेष कवि गोस्वामी विट्ठलनाथ के थे ।
इन कवियों के नाम इस प्रकार हैं - 1 . सूरदास , 2. परमानंददास , 3. कुंभनदास 4. चतुर्भुजदास, 5. छीत स्वामी 6. नंददास, 7. कृष्णदास, 8. गोविंद स्वामी ।
1. सूरदास
- महात्मा सूरदास के
जन्म संवत् 1529 है तो किन्हीं के द्वारा उनका जन्म संवत् 1540
स्वीकार किया गया है ।
इसी प्रकार कुछ विद्वान उनका जन्म स्थान सोही ग्राम ( देहली के पास ) मानते हैं तो
कुछ के विचार में उनका जन्म स्थान रुनकता गाँव ( रेणुका क्षेत्र ; आगरा और मथुरा के बीच ) है । कुछ विद्वानों के मत से ये
सारस्वत ब्राह्मण थे तथा कुछ विद्वानों की सम्मति में ये चंदबरदास के वंशज स्वीकार
किए गए है ।
जनश्रुति के अनुसार सूरदास जन्मांध थे , किंतु इस पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि सूरदास
को कविता में विविध रंगों, भाव भंगिमाओं और भिन्न भिन्न प्राकृतिक वस्तुओं एवं दृश्यों
को जैसा सफल चित्रण हुआ है वैसा एक चक्षुविहीन व्यक्ति के लिए कतिन ही नहीं, अपितु असंभव भी है ।
प्रसिद्ध किंवदंती है कि सूरदास गऊघाट पर भगवद् भजन करते थे
। वहीं पर इनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई। इस समय सूरदास दास्य भाव से भगवत यश गाया
करते थे , किंतु वल्लभाचार्य से दीक्षित होने के पश्चात् इन्होंने
सख्यभाव से कृष्ण की भक्ति प्रारंभ की । क्योंकि वल्लभाचार्य दास्यभाव की भक्ति को
उचित नहीं समझते थे । अतएव हमें सूरदास की रचनाओं में दोनों प्रकार की भक्ति के
उदाहरण मिलते हैं ।
'सूरसागर' इनकी प्रसिद्ध रचना है । वल्लभाचार्य की आज्ञानुसार इनाने ' श्रीमद्भागवत ' के दशम स्कंध को गीतों में गाया है । उन्हीं का संकलन ' सूरसागर ' है । श्रीमद्भागवत ' के समाज ' सूरस्णर ' में भी 12 अध्याय है, किंतु यह श्रीमद्भागवत ' का अविकल अनुवाद नहीं है । यद्यपि ' सूरसागर ' वृहदाकार ग्रंथ है, किंतु है मुक्तक ही । सूर की स्वयं भी ऐसी इच्छा प्रतीत
होती है अर्थात् वे ' सागर ' को एक प्रबंध - काव्य की अपेक्षा मुक्तक के रूप में देखना
पसंद करते थे । इस वृहद गंध में सूरदास कृष्णा का चरित्र नहीं लिख रहे हैं , अपितु उनकी भक्ति में लीन होकर उनके चरणों पर अपने स्नेह -
संचलित भक्ति - भाव अर्पित कर रहे हैं ।
'सूरसूरावली ' और ' साहित्यलहरी ' सूरदास की, दो अन्य रचनाएँ हैं । ' सूरसारावली' ' सूरसागर ' की सूची मात्र है । ' साहित्यलारी ' में सूरदास के दुष्टकूट पद संकलित है ।
सूरदास ने पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के पश्चात माधुर्य
एवं संख्यभाव की भक्ति को अपनाया और श्रीकृष्ण एवं उनको शक्ति राधा को प्रेममयी
मूर्ति को अपनाकर शृंगारी विषयों की रचना की ।
2. परमानंद दास- वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे । सन् 1493 ई . में कन्नौज में इनका जन्म हुआ । ये
बड़ी मधुर कविता करते थे । कहते हैं कि एक बार इनका एक पद सुनकर श्री वल्लभ जी कई
दिवस तक अपने शरीर की सुध भूले रहे । इनके मुक्तक पदों का संग्रह ' परमानंद के पद ' और ' वल्लभसंप्रदायी कीर्तन पत्त-संग्रह' प्रकाशित हुए । 'वानलीला ' और ' ध्रुवचरित ' भी इनकी रचनाएँ मानी जाती हैं । इन्होंने कृष्ण के मथुरा-
गमन भंवरगीत तक के प्रसंग ही मुख्य रूप से अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है ।
3. कुभंनदास- ये जाति से क्षत्रिय थे और गोवर्द्धन के पास के ही जमुनावती ग्राम के निवासी
थे । इनका जन्म संवत् 1525 में हुआ । अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि चतुर्भुजदास इनके थे
। ये कृषि का अपना स्वतंत्र व्यवसाय करते थे और परिग्रह के विरोधी थे । इनके
द्वारा रचित किसी स्वतंत्र ग्रन्थ का उल्लेख नहीं मिलता। कुछ पद ' रागकल्पतुम ' , ' रागरत्नाकर ' , ' वर्षोत्सव कीर्तन ' , ' वसंत धर्म कीर्तन ' आदि में संकलित हैं । एक बार अकबर बादशाह के बुलाने । पर
इनको फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा , परंतु इस बात का उन्हें बहुत दुःख था जैसा कि निम्नलिखित पद
से प्रकट हैः
भक्तन को कहा सोकरी सो काम ? आवत जात पनहैया टूटी , बिसरि गया हरि नाम ।।
जिनको मुख देखत दुख उपजत , तिनको करिब परी परनाम ।
4. चतुर्भुजदास- जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि ये कुंभनदास जी के पुत्र
थे । इनका जन्म सन् 1530 ई. में गोवर्द्धन के समीप अष्टछाप के कवि जमुनावती गाँव
में हुआ था । इनकी भाषा बड़ी सुंदर एवं सुव्यवस्थित है। इसका कोई स्वतंत्र ग्रंथ
उपलब्ध नहीं है । इनके स्फुट पदों को ही चतुर्भुज कीर्तन संग्रह ',
"कीर्तनावली ' और ' दानलीला ' शीर्षकों से प्रकाशित किया गया है ।
5. छौत स्वामी- उनका जन्म जमा
विठ्ठलनाथ जी से दीक्षा लेने से पहले अशिष्ट 6. नंददास पुरंगों को सात्ति में रहे
। 'वानलीला
'
, ' कुंजलीला ' और ' बधाई आदि
में इन्होंनें अपने समस्त हार्दिक अनुराग के साथ कृष्ण के रूप-सौंदर्य,तिरछी चितवन
एवं विविध भावभंगिमाओं तथा क्रिया कलापों का वर्णन किया है ।
6. नंददास- इनका जन्म सन् 1533 में माना जाता है । इसकी कविता बड़ी सरस और मधुर हैं । इन्होनें
अनुप्रासयुक्त संस्कृत मिश्रित ब्रजभाषा का प्रयोग किया है ; अंतः प्रसिद्ध है- सब कवि गढ़िया,
नंददास जड़िया।" ये सूरदास के
समकालीन थे और काव्य की दृष्टि से अष्टछाप के कवियों में सुरदास के बाद इनका नाम
आता है । इन्होंने निम्नलिखित ग्रंथों का प्रणयन किया है-
भंवरगीत , रासपंचाध्यायी , अनेकार्थ मंजरी , रुक्मिणी मंगल , हितोपदेश , दशमस्कंद
भागवत, ज्ञानमंजरी, मानमंजरी, रूपमंजरी, नाममंजरी, नामचिंतामणि आदि । नंददास यो प्रसिद्धि भँवरगीत' और रासपंचाध्यायी' के कारण
हुई ।
7. कृष्णदास- इनका जन्म गुजरात में अहमदाबाद के पास सन् 1495 के लगभग हमा । ये जाति से
शुद्र थे, परंतु श्रीवल्लभ की कृपा से मंदिर के प्रधान थे । बीरबल ने इनको कारागार
में भेज दिया , परंतु
आचार्य के अनुरोध से इन्हें मुक्ति मिली और फिर मंदिर के प्रधान बना दिए गए ।
इन्होने किसी पचि का प्रणयान नहीं किया । इनके शताधिक फुटकर पद ही उपलब्ध हैं ।
इनकी मातृभाषा व्यापि गुजराती थी परंतु मनोन अध्यवसायपूर्वक ब्रजभाषा पर
पूर्णाधिकार प्राप्त कर लिया था । अष्टाप के अन्य कवियों के समान भूगार के
अतिरिक्त इनके पदों में ब्रजभूमि के प्रति प्रेम भी व्यक्त हुआ ।
8. गोविद स्वामी- इनका जन्म भरतपुर में सन् 1505 ई . में हुआ । य स्थाई रूप
में महाबन रहा या सन् 1535 ई . में इनॉन स्वामी विठ्ठलदास से दीक्षा ली । गोवर्धन
पर्वत पर इनको लगाई हुई 'कदंबखंडी'
अभी तक प्रसिद्ध है । ये बड़े अच्छे गायक थे । जनमुति है कि
प्रसिद्ध गायका जानमेत पानका गाना सुनने आया करते थे । इनके द्वारा रचित 600 पद
बताए जाते हैं ।
विशंषः
1. कृष्ण काव्य परंपरा का विकास रीतिकाल एवं आधुनिक काल में भी
निरंतर होता रहा । रीतिकात के सभी कवियों एवं आधुनिक काल के ब्रजभाषा कवियों ने
कृष्ण को केंद्र बिंदु बनाकर अनेक काव्य ग्रय लिखे , किंतु उनका परिचय देना यहाँ अप्रासंगिक
होगा ।
2. कृष्ण भक्त कवियों ने प्राय: पद लिखे है । सूरसागर में पदों
को प्रधानता है । नंददास ने रूप मंजरी तथा राम मंजरी में दोहा चौपाई का प्रयोग
किया है । रसखान ने कवित्त और सबैये लिखे है । कुडंलिया , गौक्तिका , अरिल्ल
जैसे कुछ अन्य उदों का प्रयोग पी कृष्णा काव्य में हुआ है ।
3. कृष्ण काय की तुलना में भक्तिकालीन रामकाव्य भले ही परिमाण
की दृष्टि से न्यून हो , किंतु
अपनी गरिमा एवं उदासता के कारण वह हिंदी काव्य में सर्वश्रेष्ठ है । भक्तिरस से
सराबोर इन कवियों को वाणी ने जनता को आशा, उत्साह एवं
स्फूर्ति का संदेश दिया । यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस आज
राजा से लेकर रक तक , विद्वान से लेकर मूर्ख तक सबके घरों
में विराज रहा है । इन कवियों का प्रदेय हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है और इनकी
उच्चकोटि की रचनाओं के कारण हो भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग माना गया
है ।
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