Tuesday, 18 May 2021

 आलोचना के प्रकार//विभिन्न प्रणाली//UGCNET JRF//HINDI LITRATURE

आलोचना के प्रकार

आलोचना और अनुसंधान आलोचना-विभिन्न प्रणालियो  व्याख्यात्मक ,  तुलनात्मक , स्वच्छंदतावादी, मनोवैज्ञानिक एवं प्रगतिवादी आलोचना भारतीय वं पाश्चात्य साहित्यशाख एवं आलोचना आलोचना के प्रथमतः दो भेद किए जा सकते है - सैद्धाक्तिंक आलोचना और व्यापारिक आलोचना ।

सैद्घातिक आलोचना - ( Theoretical Criticism ) इस पद्धति के अंतर्गत साहित्य रचना से संबोधित आधार - भूत सिद्धांतों और नियमों का निर्माण होता है । रीति ग्रंथ लक्षण पंथ , काव्य शास्त्र ( Poctics) आदि इसके अंतर्गत आते है । आलोधक अपनी प्रतिमा और प्राचीन प्रसिद्ध - ग्रंथों के आधार पर कतिपय सिद्धांतों का निर्माण करता है और उन्हों के आधार पर किसी काम कृति को आलोचना करता है । पश्चिम में अरस्तू का ' Poctics या होरेस का ' Anpoetica ' इसी प्रकार के ग्रंथ है । भारत में यह प्रणाली प्राचीन काल से चली आ रही है । अंग्रेजी में कालरिज और आई . ए . रिचर्डस के नाम इस क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय है । सैद्घातिक आलोचना तब तक निराधार होती है , जब तक कि उसे व्याख्यात्मक आलोचना का आधार न मिले ।

व्याख्यात्मक आलोचना- ज्ञानक्षेत्र की नवीनतम उपलब्धियों के आधार पर सैद्धांतिक आलोचना के परिष्कार में विश्वास करता है । यह आलोचना प्रणाली मुख्यत व्याख्यात्मक है । साहित्य - रचना के मालिक सिद्धांतों , सारभूत - नियमों का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है , उनके विना - व्यावहारिक समीक्षा एवं मूल्यांकन का कार्य ठिक से नहीं हो पाता । पर आलोचक को चाहिए कि यह इन सिद्धांतों का विषेक पूर्ण व्यवहार करें , केवल सिद्धांतों को मान दंड मानकर साहित्य को नाप - तोल को पट्टियाँ न लगाए , इस से आलोचना जड़ और सड़ बन जाती है ।

व्याख्यात्मक आलोचना- इस प्रणाली को लाने का प्रेम प्रसिद्ध समालोचक डॉ . मोष्टन को है । ये रोल्सपीयर के प्रसिद्ध समालोचक थे । उन्होंने वैज्ञानिक अन्वेषण और व्याख्या विश्लेषण को ही आलोचना का आदर्श माना है । उसके अनुसार जिस प्रकार वैज्ञानिक प्रकृति के नियमों को प्रकृति में हो देदते है , उसी प्रकार आलोचक को साहित्य - सृजन के सिद्धांत उपर से न लादकर उसो पुस्तक विशेष से अनुसंधान से प्राप्त करने चाहिए । व्याख्यात्मक आलोचफ कृति को अंतरात्मा में प्रवेश कर अत्यंत सादयता पूर्वक उसके उद्देश्यों , विशेषताओं का उद्घाटन करता है । इस प्रणाली में सिद्धांत पक्ष गौण होता है और विश्लेषण तथा व्याख्या  प्रधान होती है , इसमें आलोचक का कार्य न्यायाधीश का न होकर अन्वेधक का होता है , न तो वह विभिन्न कृतियों को तुलना कर उर्ज छोटा बड़ा करता है और न प्रभाष बदियों की तरह केवल अपने मन पर पड़े प्रभाष को ही पभाजला देता है । यह आलोचना गतिशील नियमों में निवास करती है ।

तुलनात्मक आलोचना - ज्ञान के क्षेत्र में स्वरूप निर्धारण और स्तर मूल्यांकन की दृष्टि से तुलनात्मक प्रणाली का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है । किन्हीं दो पूर्णता विजातीय रचनाओं में तुलना करना ठीक नहीं है। सजातीय रचनाओं में तुलना करते समय भी युग , कवित्वशकित आदि बातों का सांगा पांग विचार करते हुए की गई तुलना ही ठीक कही जा सकती है ।

तुलनात्मक आलोचना में निपक्ष होकर संयत हंग से आलोचना करने की आवश्यकता होती है । ज्ञान के क्षम स्वरूप निधारण और स्तर मूल्यांकन क लिए महत्वपूर्ण यह आलाचना पात व्यावहारिक आलाचना एक मनोवैज्ञानिक आलोचना मानस शास्त्र के विकास के साथ मानम शास्त्रीय आलोचना का विकास हुआ । फ्रायड ने साहित्य को मानस शास्त्रीय दृष्टि से विश्लेषित करने का प्रयास किया है । मानस शास्त्रीय आलोचना के प्रभाव स्वरूप हो समालोचना के क्षेत्र में जीवन मूलक आलोचना विकसित हुई है । साहित्य व्यक्ति के मन की ही अभिव्यक्ति है । व्यक्ति मन को समझे बिना साहित्य को ठीक प्रकार से समय नहीं जा सकता । काव्य के प्रभाव को मनोवैज्ञानिक व्याख्या की गई है । प्रो . आई . ए . रिचार्टन ने साहित्यिक मूल्यांकन का जो प्रतिमान निर्धारित किया है कि उत्तम साहित्य विरोधी मानसिक उदवेगों को संतुलित व्यवस्था में एकत्रित कर देता है । यह मनोवैज्ञानिक ही है ।

दूसरी बात यह कि काव्य के अध्ययन से मनोवैज्ञानिक दृष्टि मिलती है , वह कवि के जीवन और व्यक्तित्व को समझने में सहायक होती है । इस आलोचना पद्धति में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मन को क्रियाएँ सतत परिवर्तनशील एवं अस्थिर होती हैं , अतः स्वीकृत प्रतिमानों द्वारा उनको नापतोल काठन है

 

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