Thursday, 27 May 2021

रीतिकालीन के कवि पद्माकर और देव UGC/NET JRF//


 

पद्माकर ( 1753-1833 ई . ) रीतिकाल के कवियों में पद्माकर का नाम आदर से लिया जाता है । बिहारी के बाद ये सर्वाधिक लोकप्रिय कवि रीतिकाल के हैं । इनकी जैसी लोकप्रियता बहुत कम कवियों को प्राप्त होती है । पद्माकर के पिता मोहनलाल भट्ट एक महान विद्वान एवं कवि थे । पद्माकर का जन्म बाँदा में 1753 ई . में हुआ और 80 वर्ष की आयु पाकर 1833 ई . में इनका स्वर्गवास हुआ । पद्माकर किसी एक स्थान पर टिककर नहीं रह पाए । हिम्मत बहादुर अवध के बादशाह की सेना के बड़े अधिकारी थे । उनकी वीरता पर मुग्ध होकर पद्माकर ने 'हिम्मत बहादुर विरुदावली' की रचना की । यह वीररस की फड़कती हुई रचना है । सतारा के महाराज रघुनाथ राव ( राघोबा ) से इन्हें एक हाथी , एक लाख रुपया और दस गाँव प्राप्त हुए थे । तत्पश्चात् पद्माकर जयपुर के महाराज प्रतापसिंह के यहाँ रहे । उनके पुत्र जगत सिंह के संरक्षण में रहकर पद्माकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ' जगद्विनोद ' की रचना की । यहीं पर इन्होंने अपने अलंकार ग्रंथ ' पद्माभरण ' की रचना की ।

महाराजा जगतसिंह के स्वर्गवास के बाद ये ग्वालियर के महाराजा दौलतराव सिंधिया के दरबार में भी रहे । हितोपदेश ' का भाषा अनुवाद इन्होंने ग्वालियर में रहकर किया । बाद में ये ग्वालियर से बूंदी गए और वहाँ कुछ काल तक रहने के बाद बाँदा आ गए । अतिम समय में ये रोगग्रस्त रहते थे । तभी इन्होंने ' प्रबोधपचासा ' की रचना की । अंतिम समय निकट जानकर ये कानपुर में गंगातट पर रहने लगे और वहीं इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक गंगालहरी की रचना की । इस प्रकार पद्माकर के लिखे ग्रंथ निम्नवत् हैं—

1. हिम्मत बहादुर विरुदावली वीर रस प्रधान चरित काव्य

2. प्रताप सिंह विरुदावली चरित काव्य

3. कलि पच्चीसी कलियुग का वर्णन

4. जगद्विनोद शृंगार रस का ग्रंथ ( रस निरूपक रीतिग्रंथ )

5. पद्माभरण अलंकार ग्रंथ ( लक्षण ग्रंथ )

6. प्रबोध पचासा वैराग्य निरूपण

7. गंगा लहरी गंगा माहात्म्य " जगद्विनोद ' में छ : प्रकरण और 731 छंद हैं । शृंगार रस एवं नायिका भेद का विशद विवेचन किया गया है ।

काव्यांगों के लक्षण दोहों में हैं तथा उदाहरण कवित्त सवैयों में हैं । इस ग्रंथ की रचना के लिए आधार सामग्री भानुदत्त की रसमंजरी, केशव की रसिकप्रिया और विश्वनाथ के साहित्यदर्पण से ली गई है । इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि लक्षण सुबोध हैं तथा उदाहरण सरस हैं । पद्माकर की गणना अच्छे कवियों में होती है । उनकी रचनाओं में कवित्व का पूर्ण उत्कर्ष दिखाई पड़ता है । मधुर और स्वाभाविक कल्पना, सजीव मूर्ति विधान एवं उपयुक्त शब्द चयन के कारण इनकी कविता का भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों की सशक्त बन पड़े हैं । भाषा की प्रवाहमयता एवं विषय की सरसता के कारण पद्माकर रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में स्थान पाते रहे हैं । इनका होली विषयक एक प्रसिद्ध सवैया निम्न प्रकार है-

            फागु की भीर अभीरन में गहि , गोविंद लै गई भीतर गोरी ।

भाय करी मन की पद्माकर , ऊपर नाय अबीर की झोरी ।।

पद्माकर की कविता में आनुप्रासिकता के साथ साथ कोमल भाव तरंग , मधुकल्पना , साफ - सुथरी ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है । लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग से वे अनुभूति को सशक्त रूप में प्रस्तुत कर देते हैं । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं 1. एहो नंदलाल ! ऐसी व्याकुल परी है बाल , हाल ही चलौ तौ चलौ जोरे जुरि जायगी ।

    कहैं पद्माकर नहीं तो ये झकोरे लगे , और लौं अचाका बिनु घोरे घुरि जायगी ।

2.  मोहि लखि सोवत विधारिंगो सुबेनी बनी , तोरिंगो हिए को हार छोरिगो सुगैया को ।

    पद्माकर त्यों घोरिगो घनेरी बोरिगो विसासी आज लाज ही की नैया को ।।

रीतिकाल के कवियों में से कुछ कवि ही ऐसे हैं जिन्होंने लोकजीवन को अपना काव्य विषय बनाया । इस प्रकार के कवि अधिकतर वे हैं जो नीतिकार एवं सूक्तिकार के रूप में प्रसिद्ध हुए । ऐसे कवियों में प्रमुख हैं - वृंद कवि . गिरधर कविराय, दीनदयाल गिरि, वेताल कवि आदि ।

ऐसै एक समर्थ कणि एवं प्रतिभा संपन्न आचार्य के रूप में समाइत रहे है । आचार्यत्व की अपेक्षा देव का कवित्व ऑधिक सशका है । इनके काम का मूल विषय भंगार रहा है। इनकी रचनाओं में कल्पना को चारूता और अर्म भन का सुदर सामंजस्य हुआ है। विषयानुकूल शब्द चयन, आनुप्रासिकता के कारण इनकी अभिव्यंजना शैली भी प्रशंसनीय बन पड़ी है । कहीं कहीं शब्दों को अनावश्यक तोड़ मरोड़ एवं व्याकरणिक अव्यवस्था के बावजूद उनकी कविता सरस, भाषपूर्ण एवं हृदयग्राही बन पड़ी है ।

देव ( 1673-1767 ई .)

कवि देव का पूरा नाम देवदत्त था तथा ये इटावा के रहने वाले थे । इनका जन्म 1673 ई . में हुआ तथा इन्होंने अनेक राजा - रजवाड़ों का आश्रय प्राप्त किया था । इनकी मृत्यु अनुमानत : 1767 ई . के आसपास हुई । देव को कोई अच्छा उदार आश्रयदाता नहीं मिला । जहाँ ये टिककर रहते . परिणामतः ये बरावर अपना आश्रयदाता बदलने को विवश हुए । देव ने प्रचुर मात्रा में ग्रंथों की रचना की , जिनकी संख्या कुछ लोग 72 बताते हैं , किंतु अभी तक केवल 15 ग्रंथ ही उपलब्ध हुए हैं जिनके नाम हैं—

1. भाव विलास - इस ग्रंथ को इन्होंने औरंगजेब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया था, जो हिंदी कविता के प्रेमी थे । 2.अष्टयाम- यह ग्रंथ अजयशाहू को सुनाया था ।                                                                                     3. 3.भवानी विलास - भवानीदत्त वैश्य के नाम पर लिखा गया ।

4. कुशल विलास - फफूंद रियासत के राजा कुशल सिंह के नाम पर लिखा ।

5. प्रेम चंद्रिका - राजा उद्योत सिंह वैस के लिए लिखी ।

6. जाति विलास - भिन्न - भिन्न प्रांतों एवं जातियों की स्त्रियों का वर्णन ।

7. रस विलास - राजा भोगीलाल के आश्रय में लिखा ।

8. राग रलाकर - संगीत विषयक लक्षण ग्रंथ है ।

9. देवशतक -- अध्यात्म विषयक ग्रंथ है जिसमें जीवन और जगत की असारता का चित्रण है ।

10. देवचरित्र - कृष्ण के जीवन पर आधारित प्रबंध काव्य है ।

11. शब्द रसायन - लक्षण ग्रंथ है तथा सर्वांग निरूपक रीति ग्रंथ है ।

12. सुजान विनोद - सुजानमणि के आश्रय में लिखा ।

13.सुख सागर तरंग - रस, नायिकाभेद आदि से सम्बद्ध कवित्त, सवैयों का संग्रह ।

14. देवमाया प्रपंच - प्रबोध चंद्रोदय नामक संस्कृत नाटक का पद्यानुवाद ।

15. प्रेमतरंग - प्रेम के महात्म्य का वर्णन ।

देव के कविता का उदाहरण प्रस्तुत है --

धार में पाय घसी निरधार है , आय सी उकसी न उमेरी ।

रो अगराम गिरी गहरी गहि . परें फिरी न पिरो नहिं पैरी ।।

देव की भाषा प्रवासपूर्ण प्रजभाषा है । ' रीतिकाल के कवियों में ये बहे ही प्रगल्भ और प्रतिभा संपन्न कवि थे ' ऐसा शुक्ल जी का मत है । इनका एक प्रसिद्ध सबैया इस प्रकार है

सांसन ही में समीर गयो अरु , आसुन ही साथ मीर गयो डरि ।

तेज गयो गुन ले अपनों अरु , भूमि गई तनु की तनुता करि ।।

'देव' जियै मिलिब को आमकै, आसह पास अकास रहयौ भरि । जा दिन

मुख फेरि हरै हसि , हेरि हिजुलियो हरिजू हरि ।

सवैये का अर्थ यह है कि वियोग में उस नायिका के शरीर को संघटित करने वाले पंचभूत धीरे धीरे निकलते जा रहे हैं । 'वायु' दीर्घ विश्वासों के द्वारा निकल गई, जल तल आँसुओं में यह गया , तेज भी न रह गया क्योंकि शरीर कातिहीन हो गया । पार्थिव ( पृथ्वी ) तत्व के निकल जाने से शरीर क्षीण हो गया , अब तो उसके चारों ओर आकाश ही आकाश रह गया है । अर्थात् चारों और शून्य ही दिखाई पड़ रहा है । जिस दिन से श्रीकृष्ण ने उसकी और मुंह फेर के देखा है और मंद - मंद हँसकर उसके मन को हर दिया है , उसी दिन से उसको पह दशा हो गई है । अब तो जीवन में सर्वत्र शून्य व्याप्त है , ऐसा कहते हुए विरह की जो व्यंजना यहाँ की गई है वह अत्यंत मार्मिक बन पड़ी है ।

देव की विरह विषयक ये उक्तियाँ बिहारी की उन उक्तियों से कहीं अधिक सबल एवं सटीक हैं जिनमें विरहिणी के शरीर के पास ले जाने पर गुलाबजल सूख जाता है , और उसके विरह ताप से बचने के लिए , माघ की रात्रि में गीले वस्त्र पहनकर सखियाँ पास जा पाती है । निश्चय ही देव बिहारी से कुछ मामलों में श्रेष्ठ हैं । देव के रीतिग्रंथों पर मम्मट के काव्यप्रकाश , आचार्य विश्वनाथ के साहित्यदर्पण , भानुदत्त को रसमंजरी , केशव की रसिकप्रिया और रहीम के ' बरवै नायिका भेद ' का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है । शब्द शक्ति विवेचन में वे अभिधा को उत्तम मानते हैं तथा तात्पर्य नाम एक चौधी शब्दशक्ति की उद्भावना करते हैं । उनके अनुसार-

अभिधा उत्तम काव्य है मध्य लक्षणाहोना अधम व्यंजना रस - विरस उलटो कहत नवीन ।।

रस क्षेत्र में देव ने 'छल' नामक नवीन संचारी भाव को उभावना को किंतु आचार्य शुक्ल के अनुसार ' छल ' का समाहार 'अवहित्था ' नामक संचारी भाव के अंतर्गत हो जाता है । नायिका भेद का विवेचन भी देव ने अत्यंत रमणीय भाव से किया ।

No comments:

Post a Comment

HINDI UGC NET MCQ/PYQ PART 10

HINDI UGC NET MCQ/PYQ हिन्दी साहित्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी-- " ईरानी महाभारत काल से भारत को हिन्द कहने लगे थे .--पण्डित रामनरेश त्रिप...