सूरदास//हिंदी साहित्य//UGC//NET JRF//
सूरदास के जीवन वृत्त के लिए महिसाक्ष्य के रूप में भक्तमाल
( नाभादास ), चौरासी वैष्णवन की वार्ता (गोकुल नाथ ) और बल्लभ दिग्विजय (
यदुनाथ ) का आधार लिया गया है । चौरासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार , वे दिल्ली के निकट ' सीही ' के सारस्वत ब्राह्मण परिवार में उत्पन हुए थे । वार्ताग्रंथों
के अनुसार , सूरदास से महाप्रभु बल्लभाचार्य को भेंट 1509-10 ई . में
हुई थी और तब से ये बल्लभाचार्य के शिष्य बनकर पारसोली गाँव में रहने लगे थे ।
उनका जन्म 1478 ई . तथा निधन 1583 ई . में माना जाता है । वे जन्मांध थे , या बाद में अंधे हुए , इस विषय में विवाद है । उनके निधन पर गोसाई विट्ठलनाथ ने
कहा था- "पुष्टिमारग को जहाज जात है सो जाको कछु लेनी होय सो लेउ"
गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी के मंदिर की पूर्ण स्थापना
पूरनमल खत्री ने 1519 ई . में करवा दी थी । इसी मंदिर में कीर्तन सेवा सूरदास को बल्लभाचार्य
ने सौंपी थी ।
सूरदास की तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं - सूरसागर , सूर सूरावली और साहित्य लहरी ।
साहित्य लहरी के एक पद में मूर ने यह स्वीकार किया है कि वे पृथ्वीराज रासों के रचयिता
चंद्रबरदाई वंशज थे । इस कुल में हरीचंद के सात पुत्रों सबसे छोटे सूरजदास या
सूरदास थे । सूरदास पहले विनय और दास्य भाव के पद लिखा करते थे । किंतु
बल्लभाचार्य की आज्ञा से उन्होंने श्रीमद्भागवत पुराण की कथा का गायन पदों में
किया । सूरसागर की कथा भागवत पुराण के दशम स्कंध से ली गई है । इसमें कृष्ण जन्म
से लेकर श्रीकृष्ण के मथुरा तक की कथा फुटकल पदों में है । साहित्य लहरी में
सूरदास के दृष्टकट पद संकलित हैं ।
सूरदास ब्रजभाषा के पहले सशक्त कवि है , किंतु उनकी रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यपूर्ण है कि आगे होने
वाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य संबंधी उक्तियाँ सूरदास की जूठी - सी जान
पड़ती हैं । आचार्य शुक्ल ने इसीलिए कहा है कि " सूरसागर किसी चली आती हुई
गीतिकाव्य परंपरा का चाहे वह मौखिक ही रही हो - पूर्ण विकास - सा प्रतीत होता है ।"
सूर के श्रृंगारी पदों की रचना बहुत कुछ विद्यापति की
पद्धति पर हुई है । सूरसागर में उपलब्ध 'दृष्टकूट' वाले पद भी विद्यापति का ही अनुकरण हैं ।
आचार्य शुक्ल के अनुसार,
"जैसे रामचरित गान करने
वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार, कृष्णचरित गान करने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी
का " वास्तव में ये हिंदी काव्य गगन के सूर्य और चंद्र हैं ।
श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक सूरदास की
दृष्टि पहुँची जाँ तक और शिसो कवि को नहीं । इसीलिए सूरदास को वात्सल्य और
श्रृंगार रस का सम्राट कहते हैं । बाल चेष्टाओं को एसी स्वाभाविक एव मनोहर शाको
अन्यत्र नहीं मिलती ।
आचार्य शुक्ल का मत है कि " सूरदास के श्रृंगारी पदों
की रचना बहुत कुछ विद्यापति की पद्धति पर हुई ।" जहाँ तक श्रृंगार और
वात्सल्य वर्णन का प्रश्न है शुक्ल जी मानते है कि "आगे होने वाले कवियों की
श्रृंगार और वात्सल्य फी उक्तियाँ सूर को जूती सी जान पड़ती है ।" श्रृंगार
और वात्सल्य के क्षेत्र में इनकी दृष्टि जहाँ तक पहुँची यहाँ तक और किसी कवि की
नहीं । सूर की सबसे बड़ी विशेषता है - नवीन प्रसंगों की उद्भावना। प्रसगोदभावना
करने वाली ऐसी प्रतिभा तुलसी में भी नहीं थी ।
सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदंड पुष्टिमार्ग ही है ।
ईश्वर के अनुग्रह पर भरोसा रखकर मका सब कुछ छोड़कर भगवान की शरण में अपने को छोड़
देता है . सूर भी यही मानते हैं
जा पर दीनानाथ ढरै ।
सोई कुलान बड़ो सुंदर सोई जा पर कृपा करें ।
सूर पतित तरि जाग जनक में जो प्रभु नेक दरै ।।
अनुग्रह के आगे ज्ञान, कर्म , योग , उपासना सब निरर्थक है । सूर को भक्ति सखा भाव या सख्य भाव की भक्ति है । सूर की भक्ति पद्धति में जो माधुर्य भाव
मिलता है वह मुख्य रूप से लीलाओं पर आधारित है । भ्रमरगीत की गोपियों में भक्ति का
यह स्वरूप उपलब्ध होता है , जिसमें उनके हृदय की पवित्रता , निश्छलता , अनन्यता और उदारता दिखाई पड़ती है ।
'भ्रमरगीत' सूरसागर का सर्वाधिक मर्मस्पर्शी एव वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश
है जिसमें गोपियों का वचन वक्रता अत्यंत मनोहारिणी है । यह एक सुंदर उपालभ्य काव्य
है जिसमें उद्धव - गोपी संवाद के माध्यम से निर्गुण का खंडन और सगुण का मंडन किया
गया है । इसमें सगुणोपासना का निरूपण हृदय की अनुभूति एवं भावना के आधार पर किया
गया है , तर्क
पद्धति पर नहीं भ्रमरगीत के कुछ प्रसिद्ध पद हैं
1. निर्गुन कौन देस को वासी ?
2. प्रीति करि दीन्हीं गरे छुरी ।
3. उर में माखन चोर अड़े ।
4. अखियाँ हरि दरसन की प्यासी ।
5. काहे को गोपीनाथ कहावत ?
6. संदेसों देवकी सों कहियो ।
7. विलगी जनि मानहु ऊधौ प्यारे ।
8. गोकुल सबै गोपाल उपासी ।
9. आयो घोष बड़ो व्योपारी ।
10. देखियत कालिंदी अति कारी ।
11. ऊधौ मोहि ब्रज विसरत नाहीं ।
सूर ने नवीन प्रसंगों की जो उद्भावना को है , वह उनकी मौलिक विशेषता है । आचार्य शुक्ल के अनुसार प्रसंगोदभावना
करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते । बाललीला एवं प्रेमलीला के
भीतर ऐसे अनेक छोटे - छोटे मनोरंजक वृत्तों की कल्पना सूर जैसा समर्थ कवि ही कर
सकता था । भ्रमरगीत के अंतर्गत सूरदास ने प्रेमदशा के भीतर न जाने कितनी
मनोवृत्तियों की व्यंजना गोपियों के वचनों द्वारा कराई है। सूर को प्रशंसा में यह
दोहा बहुत प्रसिद्ध है
किंधौ सूर को सर लग्यो किंध्या सूर को पीर
किंधों सूर का पद लग्यो बेध्यो सकल सरीर ।।
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