हिंदी आत्मकथा का विकास//हिंदी साहित्य//UGC NET JRF//
प्राचीन आमकथा बनारसीदास जैन रचित 'अर्ध्दकथा' ( 1941 ) है । इसके संबंध में संपादक का कहना है कि "कदाचित्
समस्त आधुनिक आर्य भाषा साहित्य में इससे पूर्व कोई आत्मकथा नहीं है ।"
डॉ. रामचंद्र तिवारी ने भी आत्मकथा - लेखन का प्रारंभ यही से माना है उनका कथन है
कि "आत्मक्तमा लिखने वालों में जिस निरपेक्षा और तटस्थ दृष्टि की आवश्यकता
होती है . वह निश्चय ही बनारसीदास में भी उसने अपने सारे गुण - दोषों को सच्चाई के
साथ अक्स किया है । यह आपकमा पल में लिखी गई है । इसके अतिरिका पूरे मध्यकाल में
किसी अन्य आत्मकथा का उल्लेख नहीं मिलता ।" इस आत्मकथा में अकबर के समय
को परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण हुआ है । हिंदी आत्मकथा का जन्म और विकास भी गाय
की अना विधाओं की भाँति जस्तुत : भारतेंदु युग से ही होता है ।
आत्मकथा के विकासक्रम को हम इस प्रकार से देख सकते है—
भारतेंदु युग- भारतेंदु हरिश्चंद्र बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे ।
अधिकांश विद्वानों द्वारा प्रथम आत्मकथा लेखन का श्रेय भारतेंदु को हो दिया जाता
है । उन्होंने 'कुछ आप बीतो कुछ जग बीती ' नामक आत्मकथा लिखी जिसमें उनकी पौवनकालीन रोचक काव्यात्मक
घटनाएँ निरूपित है , किंतु यह कृति अपूर्ण है । भारतेंदु जी के समकालीन प.
अबिकादत्त व्यास ने ' निजवृत्तात ' नामक आत्मकथा लिखी। इसके पश्चात् सत्यानंद अग्रिहोत्री कृत 'मुझ में देव - जोबन का विकास', स्वामी श्रद्धानंद कृत 'कल्याण - पथ का पथिक' आदि प्रकाश में आई । इस युग की भाषा शिथिल है , पर तथ्यपरक स्पष्टता उत्कृष्ट है ।
द्विवेदी युग- भारतेंदु जी के बाद आचार्य महावीरखसाद द्विवेदी ने ' सरस्वती ' पत्रिका में अपनी अधूरी कहानी ' प्रकाशित कराई ! उनके परवर्ती संपादकों में पं . देवीदत्त
शुक्ल , पदुमलाल
पुन्नालाल बख्शो ने आत्मकथाएँ लिखी थी । बाबू श्यामसुदर द्वारा लिखित ' मेरी आत्मकहानी ' एक प्रेक्ष आत्मकथा है । इस संबंध में डॉ . हरदयाल का कथन
है- " श्यामसुदरदास की ' मेरी आत्म - कहानी ' सन् 1941 में प्रकाशित हुई यह बड़ी सुगठित और समूड आत्मकथा
है । इसमें साहित्यिक शैली में डॉ . त्यामसुंदरदास ने अपने जीवन के साथ - साथ उस
समय के साहित्य - इतिहास को प्रस्तुत किया है ।
इसी युग में जयशकर प्रसाद ने पत्र में और मुशी प्रेमचंद ने
गा में ' मेरा
जीवन प्रवाह ' नामक आत्मकथा लिखी । इसी युग में डॉ . राजेंद्रप्रसाद ने
राजनीतिक आत्मकथा लिखी । भाई परमानंद ने ' आपबीती ' और श्री रामविलास शुक्ल ने भी मैं क्रांतिकारी कैसे बना ' आत्मकथाएँ लिखी । वस्तुत : ये सभी आत्मकथाएँ केवल लेखकों के
जीवनवृत को ही नहीं बतातीं , वरन् तत्कालीन , सामाजिक , राजनीतिक , साहित्यिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी अभिज्ञान कराती
हैं ।
स्वातंत्र्योत्तर युग- द्विवेदी युग के बाद स्वातंत्र्योत्तर युग में आत्मकथा का
बहुमुखी विकास हुआ । स्वाधीन भारत में प्रकाशित प्रथम उल्लेखनीय आत्मकथा यशपाल
रचित ' सिंहावलोकन
'
है । क्रांतिकारियों को
आत्मकथा की मार्मिकता दर्शनीय है । इसके बाद पांडेय बेचन शर्मा ' उग्र ' जी ने अपने 20 वर्षों की कथा को निष्पक्ष , पर कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है । सेठ गोविंददास रचित ' आत्म निरीक्षण ' तीन भाग , आचार्य चतुरसेन शास्त्रो कृत ' मेरो आत्म - कहानी ' . वृदावनलाल वर्मा का अपनी कहानी ' आदि इस विषय को महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं ।
इधर एक दशक के अंतराल में सबसे महत्वपूर्ण आत्मकथा डॉ .
हरिवंशराय बच्चन की है जो चार खंडों में प्रकाशित है । 1. ' क्या भूलू क्या याद करू ' ,
' नीड़ का निर्माण फिर ' 3. ' बसरे से दूर और 4. 'दश द्वार से सोपान तक । चार खंडों में प्रकाशित हरिवंशराय
बच्चन की आत्मकथा स्वयं उन्हीं के शब्दों में एक ' स्मृति - यात्रा यज्ञ ' है ।"
इसमें उनका प्रारंभिक जीवन - संघर्ष , इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर के
अनेक संदर्भ, कैंब्रिज विश्वविद्यालय के उनके अनुभव, कैबिन से डॉक्टरेट करके लौटने पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय
में उनको उपेक्षा, उनको अनुपस्थिति में उनके परिवार का असुरक्षित अनुभव करना, इलाहाबाद रेडियो स्टेशन पर हिंदी प्रोड्यूसर का उनका अनुभव, विदेश मंत्रालय में जॉफिसर प्रान स्पेशल ड्यूटी ( हिंदी )
के रूप में राजनयिक कार्यों में हिंदी के प्रयोग को बढावा देने के लिए किए गए उनके
प्रयल सचिवालय के सचिवों की मानसिकता वहाँ से अवकाश लेने के बाद का उनका जीवन
अनुभव एक वृहद उपन्यास की रोचक शैली में जीवंत और साकार हो उठा है ।
इस ‘स्मृति यात्रा यज्ञ' में प्रकारांतर से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का हिंदी
भाषा और साहित्य का पूरा संघर्ष ही मूर्त हो गया है । इस आत्मकथा में संस्मरण , यात्रावृत्त , कविता , साक्ष्तात्कार , नैरेशन आदि अनेक विधाएँ और शैलियाँ गुंफित है । सबसे बड़ी
बात है लखक के आत्म स्वीकार का साहया "डॉ. बच्चन की आत्मकथा के संदर्भ में डॉ
. रामचंद्र तिवारी की ही तरह धर्मवीर भारती ने भी कहा है हिंदी में अपने बारे में
सब कुछ इतनी बेबाकी , साहस और सद्भावना से कह देना यह पहली बार हुआ है ।"
डॉ. बच्चन की आत्मकथा के अतिरिक्त डॉ . देवराज उपाध्याय कृत
'यौवन के द्वार पर' , राजकमल चौधरी कर 'भैरवी तत्र', डॉ. रामविलास शर्मा कृत 'घर की बात', शिवपूजन सहाय कृत 'मेरा जीवन', कन्हैयालाल मिश्र ' प्रभाकर ' कृत ' तपती पगडंडियों पर पद - यात्रा ' ,
फणीश्वरनाथ रेणु कृत ' आत्मपरिचय ' , डा . गोद कृत ' अर्धकथा ' , अमृतलाल नागर कृत ' टुकाई टुकई दास्तान ' आदि आत्मकथाएँ विशेष रूप में चयित हैं। ' घर की बात ' डॉ . रामविलास शर्मा की विस्तृत आत्मकथा है । स्वय शर्मा जी
के शब्दों में “ पर की बात में बैज्ञानिक विवेचन कम , मानवीय संबंधों का चित्रण अधिक है । इसमें कई पीढ़ियों के
लेखक और वार्ताकार सम्मिलित है ।" ' मेरा जीवन ' आत्मकथा में लेखक शिवपूजन सहाय का व्यक्तिगत जीवन तो
उद्घाटित हुआ ही है, साथ हो अनक साहित्यकारों, साहित्यिक घटनाओं और संदर्भा का प्रामाणिक दस्तावेज भी
सामने आया है । तपती पगडंडियों पर पद यात्रा में कन्हैयालाल मिश्र' प्रभाकर ' के तेजस्वी, सिद्धांतवादी और कर्मठ व्यक्तित्व के अनेक पक्ष उद्घाटित
हुए हैं ।
अपनी आत्मकथा 'आत्मपरिचय में रणु ने अपने जीवन और रत्वना स्पर्ष को बड़ी सहजता के
साथ उजागर किया है । डॉ. नगेंद्र की अर्धकथा ' में उनके जीवन का अर्थसप ' व्यस्त हुआ है । उन्हीं के शब्दों में,
" यह मेरे जीवन का केवल
अर्ध सत्य है - अर्थात् उपर्युक्त तीन खड़ों में मैंने केवल अपने बहिरग जीवन का ही
विवरण दिया है । जहाँ तक अंतरंग जीवन का प्रश्न है . यह नितात मेरा अपना है . आपको
उसका सहभागी बनाने की उदारता मुझमें नहीं है ।" " टुकड़े - टुकड़े
दास्तान ' अपनी आत्मकथा की भूमिका में नागर जी ने कहा है - 'मैं पत्थर पर उकरी गई एसो मूर्ति हूँ , जो कहीं - कहीं छूट गई हो ।' वस्तुतः इसमें कथा रस भरा हुआ है । यह आत्मकथा आधुनिक
सांस्कृतिक जागरण का जीवंत इतिहास कही जा सकती है ।
इधर 'जहाँ मैं खड़ा हूँ' 'रोशनी की पगडडियो ' , ' टूटते - बनते दिन ' , और ' उत्तर पथ ' इन चार भागों में लिस्त्री गई रामदरथ मिश्र की आत्मकथा ' सहचर है समय ' के नाम से प्रकाशित हुई है । इस कृति में स्वतंत्रता के बाद
ग्रामीण परिवेश से निकलकर संघर्ष के रास्ते अपने जीव का लक्ष्य ढूँढने वाला एक
साहित्यकार का पूरा अनुभव - संसार अपने विस्तार में लगभग आधे भारत को समेटे हुए .
सजीव रूप में उजागर हो उठा है । '
सहचर है समग्र ' के संबंध में डॉ . रामचंद्र तिवारी ने लिखा है- "
इसमें रामदरथ मिश्र ही नहीं आज की पूरी साहित्यिक पीढ़ी है , बनते - बिगड़त गाँव हैं , जिनका जीवन - रस सूखा रहा है . उभरते हुए नगर हैं जिनमें
मनुष्यता मर रही है । और सैकड़ों सामान्य लोग हैं जिनके रोजी - रोटी के लिए किए
जाने वाले कपर खुरदुरे संघर्ष के भीतर संवेदना और सहानुभूति की तरल धारा आज भी
प्रवाहित हो रही है । सचमुच यह आत्मकथा आज के भारत के सामान्य आदमी के जीवन का
दस्तावेज है । " इसके अतिरिक्त ' सारिका ' पत्रिका ने ' गर्दिश के दिन ' नामक स्तंभ में साहित्यकारों को अपनी संघर्ष पूर्ण कया को
प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया था जिसमें भीष्म साहनी , राजेंद्र यादव कामतानाथ और दूधनाथ सिंह को आत्मकथाएँ
प्रकाशित हुई । ये आत्मकध्यपूर्ण आत्मकथा नहीं है । कारण यह कि इनमें रचनाकारों का
अलग - अलग व्यक्तित्व और अलग - अलग मिजाज व्यक्त हुआ है ।
उपर्युक्त आत्मकथाओं के
प्रकाशन के बावजूद हिंदी के आत्मकथा को अभी समृद्ध नहीं कहा जा सकता । इसका
मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि हिंदी को माध्यम बनाकर लिखने - पढ़ने वाले पंडित और
मनीषी महान और गौरवशाली नहीं हो सकते । इसलिए भारत की महान विभूतियों ने अपने को
व्यक्त करने के लिए हिंदी को माध्यम नहीं बनाया । फिर भी , आज आत्मकथा विधा में अपूर्व श्रीवृद्धि हो रही है ।
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