Monday, 24 May 2021

हिंदी साहित्य रीति-कालीन परिवेश।। UGC Net/Hindi literature


हिंदी साहित्य के विस्तृत इतिहास में रीतिकाल का अपना एक विशेष महत्व रहा है। रीतिकाल अपने पूर्व भक्तिकाल की भांति भले ही उच्च कोटि के साहित्य निर्माण के लिए प्रसिद्ध न रहा हो, फिर भी यह काल अपने साथ हिंदी साहित्य के लिए एक अमूल्य सौगात लेकर आया था। इसी समय से हिंदी साहित्य में भारतीय काव्यशास्त्र का पाठ पढ़ाने का काम शुरू होता है। समाज के लोगों की विषय और रुचि के विपरीत दरवारी साहित्य की प्रधानता के कारण साहित्य में भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष को अधिक महत्व दिया जाने लगा था। इतना होने पर भी हिंदी साहित्य को विकसित करने का काम इस समय बड़े पैमाने में पर न होने के कारण इस काल को हिंदी साहित्य में उपेक्षित नज़र से देखा जाता रहा है।


रीति शब्द का महत्व:

रीति का स्वरूप 'रीति' शब्द रीड्. (गतो) धातु से निष्पन्न हुआ है। भोज ने अपने ग्रंथ 'सरस्वती कण्ठाभरण' में इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है:

    रीड्.गताविति धातो : व्युत्पत्या रीतिरुच्यते।

-इस प्रकार इसका व्युत्पत्तिपरक अर्थ है- गति, गमन मार्ग या वीथि, किन्तु काव्य में यह पद्धति, विधि, परम्परा आदि अर्थों में रूढ़ है। काव्यशास्त्र में रीति शब्द का प्रयोग कवि को विशिष्ट रचना-प्रकार के लिए किया जाता है। वामन ने 'रीति' शब्द से विवेचन किया तो पूर्ववर्ती आचार्यों ने मार्ग का प्रयोग किया कोई इसे संघटनास्वरूप मानता है तो कोई व त्तियों से अभिन्न। इस प्रकार इस काव्य - सिद्धान्त के लिए काव्यशास्त्रीय परम्परा में अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं, लेकिन रीति शब्द ही अधिक प्रचलित रहा है। यद्यपि रीतियों का संक्षिप्त विवेचन मार्ग नाम से भामह और दण्डी ने भी किया है और दण्डी का विवेचन अत्यन्त व्यापक एवं व्यवस्थित भी है, किन्तु न उन्होंने उसकी परिभाषा दी है और न ही महत्त्व का उद्घाटन किया है। वामन ने 'रीति' शब्द का प्रयोग करते हुए उसकी परिभाषा दी है और उसे काव्य की आत्मा कहा है इसलिए वामन को ही रीति-सिद्धान्त का प्रवर्तक माना जाता है। वामन ने रीति की परिभाषा इस प्रकार दी है 'विशिष्टपदरचनारीति' अर्थात् विशिष्ट पदरचना को रीति कहते हैं। विशिष्ट की व्याख्या उन्होंने स्वयं इन शब्दों में की है- 'विशेषो गुणात्मा' अर्थात् जो गुणों से सम्पन्न हो जिस समय आचार्य वामन ने 'रीतिरात्मा काव्यस्य' का उद्घोष किया, उस समय तक काव्य में अलंकार ही सौन्दर्य तत्त्व माने जाते थे। वामन द्वारा प्रतिपादित रीति सिद्धान्त स्व सिद्धान्त न रहकर रस की अभिव्यक्ति का भी साधन बन गया।

चिंतामणि ने इसी अर्थ में 'रीति' शब्द का प्रयोग किया है रीति जु भाषा कबित की, बरतन बुध अनुसार। मतिराम, देव, सुरति मिश्र, सोमनाथ और दास ने बहुधा 'रीति' शब्द का ही प्रयोग किया है। डॉ. भगीरथ मिश्र ने रीतिकालीन संदर्भ में रीति शब्द के अर्थ विकास को स्पष्ट किया है। अतः रीतिशास्त्र का तात्पर्य उन लक्षण देनेवाले या सिद्धान्त चर्चा करनेवाले ग्रंथों से है जिनमें अलंकार, रस, रीति, वक्रोक्ति ध्वनि आदि के स्वरूप, भेद, अवयव आदि के लक्षण दिये गये हों। ऐसे ही रीतिकाव्य उस काव्य को कहेंगे जिसमें अलंकार, रस, रीति, वक्रोक्ति आदि के उदाहरण के रूप में या इनका ध्यान रखकर काव्य लिखा गया हो, इनके लक्षण चाहे न भी दिये गये हों।" 


कालखंड,नामाकरण एवं परिस्थितियां:

हिंदी साहित्य की यह कालखंड श्रृंगार व अलंकार प्रधान रहा। इसलिए इस कालखंड को मिश्रबंधुओं ने अलंकृत काल तथा आचार्य विश्वनाथ ने श्रृंगार काल कहा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संवत् 1700 से संवत् 1900 तक के काल को रीतिकाल माना है,जिसे इसके प्रवृत्ति की दृष्टि से इससे बेहतर नाम की कल्पना नहीं की जा सकती।

हिंदी साहित्य का उत्तर मध्यकाल ही रीतिकाल के नाम से जाना जाता है । भक्तिकाल के बाद का यह युग अपेक्षाकृत शांत था । मुगल साम्राज्य की जड़ें जमने के बाद एक व्यवस्थित दरबारी संस्कृति का उदय हुआ . जिसमें कविता सुनाने के लिए कवियों आमंत्रित किया जाता था । मुगल दरबार की देखादेखी अन्य छोटे - मोटे राजाओं ने भी दरबार सजाने और कवियों को उसमें आमंत्रित करने की प्रथा का निर्वाह किया । बाद में , मुगल शासन की शक्तिहीनता . बाहरी आक्रमणों , प्रादेशिक शासकों के पारस्परिक युद्धों , मराठों एवं सिखों के आक्रमों एवं कंपनी शासन की राज्य - विस्तार की महत्वाकांक्षा के कारण इस युग में अशांति और अव्यवस्था का वातावरण बना , फिर भी दरबार और दरबारी संस्कृति कायम रही । इस पूरी स्थिति का अध्ययन हम आगे विवेचित परिस्थितियों में विस्तार से करेंगे । यहाँ केवल यह स्पष्ट करना उददेश्य है कि हिंदी साहित्य का यह कालखंड बहुत से आक्षेपों आरोपों का युग रहा है। 

इस कालखंड का नामकरण भी इसी रीति शब्द के आधार पर किया गया। (एक प्रकार से 'रीति' शब्द प्रस्तुत संदर्भ में शास्त्रीय एवं परिपाटी विहित काव्य विधान का सूचक है) इस काल का कवि एक विहित पद्धति से बँधकर चलता था। इस कालखंड में कवि आश्रित थे जो अपने आश्रयदाताओं की कृपा प्राप्त करने हेतु उनके अपक्षाकृत रचनाएं करते रहे। रीति ग्रन्थों का निर्माण इस काल की प्रमुख विशेषता है। रीति ग्रन्थ का मतलब उन लक्षण ग्रंथो से है जिसमें काव्यांगों का लक्षण देकर उदाहरण स्वरूप स्वनिर्मित पद दिये जाते थे। उन्होंने परवर्ती संस्कृत आचार्यों के बोधगम्य शैली में लिखे गये लोकप्रिय ग्रन्थों का ही आधार लिया किन्तु संस्कृत आचार्यों के समान इन्हें सफलता नहीं मिली। संस्कृत में आचार्य कर्म और कवि कर्म दो पथक कर्म थे जिन्हें निभाने वाले संस्कृत में दो भिन्न श्रेणियों के व्यक्ति रहे हैं। किन्तु रीतिकाल में इन दोनों कर्मों को एक ही व्यक्ति के द्वारा निभाने का प्रयत्न किया गया है। इससे काव्य में सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषण पर गहरा प्रभाव पड़ा क्योंकि रीतिकालीन विद्वानों में उस प्रौढ़ और सन्तुलित विवेचन शक्ति का अभाव था जो एक आचार्य के लिये आवश्यक होता है । इसलिए इन्हें आचार्य की कोटि में रखने पर आपत्ति की गई है । वस्तुतः ये विद्वान् केवल कवि थे किन्तु राजदरबार में आदर सम्मान और इनाम पाने के लिए इन्हें लक्षण ग्रन्थ लिखने पड़े । जबकि काव्यशास्त्र में इनका अपना ज्ञान भी पूरा नहीं था । देखा जाए तो ये आचार्य थे ही नहीं , और न ही इनका उद्देश्य आचार्यत्व कर्म को गम्भीरता से करने का था। ये तो केवल कवियों और रसिकों को काव्यशास्त्र के विषय से परिचित कराना चाहते थे। ये राजा महाराजा और सामन्त ऐसे विलासी रईस थे जिनमें तर्क की सूक्ष्मता को समझने की न शक्ति थी न अवकाश। इस काल के कवियों ने इनके छिछोरे मनोरंजन की आवश्यकता की पूर्ति की। ये कवि आचार्य सहृदय और कुशल कवि थे। इनका मूल उद्देश्य कविता करना था काव्यांगों का शास्त्रीय निरूपण नहींं। फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इन कवियों ने आचार्य बनने की धुन में अपनी रचनाओं के द्वारा रस, अलंकार, छन्द आदि के अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।



काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण:

रीतिकालीन साहित्य में भक्ति जैसी प्रमुख प्रवृत्ति का स्थान शृंगार ले लेता है और उस शृंगारिक वर्णन पर अनेक आरोप- आक्षेप लगाकर उसे अश्लील या घोर शृंगारी भी कहा जाता है । परंतु ऐसा क्यों ? रीतिकाल का कवि या साहित्यकार घोर शृंगारी क्यों हुआ ? उसने ऐसी कविता लिखने की प्रेरणा कहाँ से और क्यों पाई ? उसके शृंगारी काव्य सृजन को प्रोत्साहन किसने दिया ? ऐसे कितने ही प्रश्नों के उत्तर तात्कालिक परिस्थितियों और परिवेश में निहित हैं रीतिकाल में केवल शृंगारी काव्य का ही सृजन नहीं हुआ । 

शृंगार प्रधान काव्य तथा नायक - नायिका भेद , नख शिख - वर्णन एवं विविध क्रीड़ाओं का रसमयी शैली में विवेचन इस युग में किया गया । इस युग का अधिकांश काव्य किन परिस्थितियों से चालित एवं प्रेरित होता रहा।

 इसके अन्तर्गत उसने केशवदास , बलभद्र , सुन्दर , चिंतामणि , भूषण , मतिराम , प्रतापसाहि आदि को रखा है। बिहारी की गणना इसमें नहीं की गयी । शुक्लजी को रीतिकाल के उपविभाजन का संगत आधार नहीं मिला।

इसीलिए उन्होंने कुछ कवियों की एक श्रेणी बना दी- रीतिग्रंथकार कवि' और शेष कवियों को 'अन्य कवि' के खाते में डाल दिया। उन्होंने बिहारी को रीतिग्रंथकार कवियों के वर्ग में रखा जबकि बिहारी ने कोई रीतिग्रंथ नहीं लिखा है। बिहारी को इस वर्ग में रखने का औचित्य बताते हुए वे लिखते हैं- "जैसाकि कहा जा चुका है, दोहों को बनाते समय बिहारी का ध्यान लक्षणों पर अवश्य था। इसलिए हमने बिहारी को रीतिकाल के फुटकल कवियों में न रखकर उक्त काल के प्रतिनिधि कवियों में ही रखा है।" 

इस प्रकार रीति काव्य दरबारी आश्रय में विकसित हुआ। इस समय लक्षण ग्रन्थ का निर्वाह संस्कत काव्यशास्त्र को आधार बना कर किया गया । नख शिख वर्णन . नायक नायिका भेद आदि विषयों पर इस युग के श्रेष्ठ कवि अपनी प्रतिभा का हास कर रहे थे । ये कवि काव्यशास्त्र के ज्ञाता नहीं थे किन्तु ज्ञाता होने का स्वांग रच रहे थे । इस काल में कथ्य की अपेक्षा शिल्पपक्ष में कवियों का मन अधिक रमा है । भाषा को अलंकारों , मुहावरों को सजाया गया । इससे भाषा की शक्ति में विस्तार एवं विकास अवश्य आया था परन्तु भाषा का रूप विकत हो चला . कारक चिन्हों , लिंग सम्बन्धी दोषों से भाषा कुरूप हो गई । ऐसे में घनानन्द , ठाकुर आदि कवियों की भाषा परिनिष्ठित ब्रज भाषा का अपवाद बन कर रह गयी ।


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