हिंदी साहित्य संसार के प्रखर सूर्य
बीज शब्द:-
हिंदी साहित्य के प्रखर सूर्य दिनकर अपने बेबाक साहित्यिक कृतियों के कारण से हमेशा से चर्चित रहें। अपनी राष्ट्रीय चेतना और क्रान्तिकारी विचारों से हमेशा वे हिंदी तथा भारतीयों को प्रेरित करते रहें। उनका आगमन हिन्दी साहित्य में एक विद्रोही कवि के रूप में हुआ जिसका एकमात्र उद्देश्य सिर्फ देश की आजादी थी और उसके लिए सभी भारतीयों को इकट्ठा करते हुए उनके मन में क्रांति की लो जलाने की थी।
रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ
जाने दे उसको स्वर्ग धीर
लौटा दे मुझे गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम वीर।।
हिमालय।
दिनकर का व्यक्तित्व पक्के इरादे के वाला था। वे उनसे कभी समझोता नहीं करते थे। जिसका स्पष्ट उदाहरण उनकी जीवन दर्शन से हो जाता है। वे सच्चे अर्थों में अपने राष्ट्रहित के समर्थक और सेवक थे।
बिहार से उदित यह सूर्य अपनी तेज की आभा को फैलाता आगे बढ़ता ही रहा। उन्होंने अंग्रेजी सरकार के अधीन रहकर अपने जीवन काल में न जाने कितनी नौकरियां बदली, तबादले किए गए पर इतना होने पर भी उनकी मन में जो क्रांति की लो जल रही थी उसे उन्होंंने कभी बुझने न दिया। हालांकि इसके लिए उन्हें आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा क्योंकि अपने घर परिवार के साथ साथ भाईयों की परिवारों की जिम्मेदारी भी इनके ही कंधों पर थी। लेकिन इन्होंने अपने पैसे और यश के आगे अपने अंतर्मन की भावधारा को कभी थमने न दिया।
दिनकर का रचना क्षेत्र काफी विशाल रहा है। बिहार के छोटे कस्बे की लोगों के सपनों को अपनी आंखों से देखते हुए उन्होंने उन सभी के सपने को अपने साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया और कालजयी रचनाएं लिखी। उन्होंने प्रबंध, मुक्तक,बाल उपयोगी काव्य के साथ साथ महाकाव्य आदि कविताएं लिखी तथा निबंध,अनुदित साहित्य और आलोचना के क्षेत्र में भी अपनी कामयाब कलम चलायी।
उनकी रचना प्रक्रिया रेणुका से प्रारंभ होती है। जिसमें उनकी भावों की प्रोढ़ता और भाषा शैली की बेमिसाल प्रयोग के उदाहरण सामने आती हैं। किन्तु इतना होने पर भी दिनकर जी को उनकी राष्ट्रीय भावना ओत-प्रोत कविताओं के लिए ही याद किया जाता है। जिसमें हुंकार,पाटलिपुत्र की गंगा, ताण्डव,हिमालय,कस्मै देवाय,मिथिला,नीम के पत्ते, बोधित्सव आदि इसी भावधारा की रचनाएं हैं।
मंगल मुहूंत, रवि ! डगो , हमारे क्षण ये बड़े निराले हैं,
हम बहुत दिनों के बाद विजय का, शंख फूकने वाले है। मंगल मुहूंत,तरुगण ! फूलों, नदियों ! अपना पय दान करो, जंजीर तोड़ता है भारत, किन्नरियों ! जय जय गान करो। हुंकार।
आजादी नहीं, चुनौती है, यह बीड़ा कौन उठायेगा ?
खुल गया द्वार, पर, कौन देश को मन्दिर तक पहुँचायेगा ? सम्मुख असंख्य बाधाएं, गरदन मरोड़ते बढ़े चलो, अरूणोदय है, यह उदय नहीं, चट्टान फोड़ते बढ़े चलो।। '
नीम के पत्ते।
इन सबके किसी में विध्वंसात्मक क्रान्ति का आह्वान,तो कहीं आजादी के लिए किए गए हिंसात्मक उपायों का समर्थन हैं फिर कहीं अतीत की गरिमा का गान और कहीं समसामयिक परिस्थितियों का चित्रण करते हुए जीवन की विसंगतियों के प्रति तीव्र आक्रोश की अभिव्यक्ति है। चीनी आक्रमण से अभिप्रेरित होकर लिखा गया उनकी "परशुराम की प्रतीक्षा" एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सँभालों
चट्टानों की छाती से दूध निकालों।
हो धर्म ध्येय, तो भजो प्रथम बाँहों को
तोलो अपना बल वीर्य, नहीं आहों को।
कवि का उद्देश्य इन कविताओं में साफ था कि वे सिर्फ अपने देश वासियों में देश के अतीत की झलक प्रस्तुत करते हुए इसकी आजादी के लिए सभी में क्रांति की ज्वाला भड़काना चाहते थे। इसके लिए वे उनकी कमजोरियों को दर्शाते हुए उनका पथ प्रदर्शन करते रहें।
उन्होंने देश के दलितों की वेदना को रश्मिरथी के कर्ण के जरिए अभिव्यक्त करते हैं। एक गुणवान और समर्थ व्यक्तित्व के बाद भी अविवाहित मां से उत्पन्न बेटे को किस प्रकार समाज के उच्च समुदाय से बार बार लज्जित होना पड़ता है उसका स्पष्ट उदाहरण वे पाठकों के सम्मुख रखते हुए और देश के अनेक कर्ण के साथ खड़े दिखाई देते हैं। इस प्रकार वे दलितों की अधिकारों की वकालत करने वाले पहले व्यक्ति के रूप में हमारे सामने आते हैं।
रश्मिरथी में उनके संवाद और भाषा शैली ने पाठकों के मन पर इस प्रकार अपनी छाप छोड़ी है कि जिसके कारण यह हिंदी साहित्य में अद्वितीय हैं। इसके संवाद आज भी लौलित्य से भरपूर और प्रासंगिक है। ये संवाद पाठकों में इस तरह रच बस गया है कि दिनकर का नाम आते ही सबसे पहले रश्मिरथी के संवादों को गुन गुनाते लगते हैं। जिसमें कृष्ण की चेतावनी, कर्ण परशुराम संवाद बेहद प्रसिद्ध हुए।
जैसे:-
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
दिनकर का कार्यक्षेत्र और विचारधारा विस्तृत हैं। उनकी रचनाओं में विषय विविधता की कोई कमी नहीं। हल्की उन्होंने अपनी साहित्य में राष्ट्रीय चेतना को पहली प्रधानता दी लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने अपनी मां की भाव तारों को साहित्य में उकेरा नहीं। रसवंती, उर्वशी आदि काव्यों में इनकी श्रृंगारिक विचारधाराएं भी उच्च कोटि की रही। इन रचनाओं में उनकी श्रृंगारिक दृष्टिकोण और नारी के प्रति विचारधाराओं का स्पष्ठ झलक दिखलाई पड़ता है।
उर्वशी इनकी एक उत्कृष्ट महाकाव्य है, जिसमें उन्होंने मूलतः काम भावना के विविध पक्षों को उद्घाटन करते हुए इससे होने वाली समस्याओं का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इसके समाधान के लिए वे प्रयत्नरत दिखते हैं। इसमें उनकी श्रृंगारिकता शारीरिक से होते हुए आध्यात्मिक धरातल तक पहुंचती है। यह हिंदी साहित्य में नारी के प्रति एक उदार दृष्टिकोण रखने में समर्थ हैं।
दिनकर सच्चे अर्थों में जनता के कवि थे। इसलिए जनता की दुख,वेदना को उन्होंने अपने साहित्य का स्वर बनाया और राष्ट्रभाषा हिंदी के उन्नति के लिए विविध प्रयास करते रहें। उन्होंने राष्ट्रभाषा हिंदी की खुब सेवा की। वे अपने समकालीन साहित्यकारों से भिन्न प्रवृत्ति के थे। 1908 में जन्मे दिनकर की रचना कार्य 1930 से प्रारंभ होता है। छायावादी प्रवृत्ति से कोसों दूर तक अपनी रचनाओं में क्रांति की मशाल लेकर लोगों में अंग्रेजो के खिलाफ आगे बढ़ने की आवाज उनको अपने देश से निकालने की प्रेरणा देने का काम किया। ज्योकि इनका उद्देश्य स्पष्ठ था इसलिए इन्होंने स्कूल के प्रधानाचार्य से लेकर विश्वविद्यालय के कुलपति बनने तक तथा राज्यसभा के सदस्य से लेकर हिंदी सलाहकार तक की अनेक दायित्व बेहद खुबसूरती से निभाया। यहीं कारण भी रहा जिसके लिए उन्हें राष्ट्रकवि का सम्मान दिया गया। दिनकर इस सम्मान के प्रति अपनी गहरी निष्ठा प्रकट भी करते हैं और इस संदर्भ में वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को भी पीछे छोड़ आगे बढ़ जाते हैं।
दिनकर का साहित्य संसार विस्तृत हैं। उन्होंने काव्य, निबंध, आलोचना, अनुदित साहित्य,बाल साहित्य आदि की रचनाएं की। और उससे भी अधिक उनकी व्यक्तित्व में बह बेबाकी साफ साफ झलकती है जब वे राष्ट्र के हित की कोई बात कहते हैं। वे देश के अवनति पर प्रधानमंत्री से भी सवाल पुछते है। जिसका एक उदाहरण उनके द्वारा दिया गया यह भाषण हैं:-
देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?
यह उनकी राष्ट्र प्रेमी और स्पष्ठवादी होने का साफ़ साफ़ प्रमाण है। उन्हें अपनी साहित्यिक सेवा और उनकी अमर कृतियों के कारण1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा
1959 में पद्म भूषण और 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
निष्कर्ष:-
हिंदी साहित्य में विद्रोही कवि से प्रारंभ होकर राष्ट्रकवि तक पहुंचने का सम्मान दिनकर को प्राप्त है। हिंदी साहित्य के प्रथम राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इनको राष्ट्रकवि की परिभाषा जब बतलाया इन्होंने उसकी महत्व को समझा और राष्ट्र तथा राष्ट्र भाषा के हित के लिए आजीवन निस्वार्थ सेवा करते रहें। वे राष्ट्र और इसके जनता के लिए प्रशासन से लोहा लेने तक तैयार हो जाते। वे जहां एक ओर जनता की कष्टों का बखान करते हुए प्रशासन वर्ग से अपील करते हैं वहीं दूसरी ओर वे इन्हीं जनता के वोटिंग क्षमता से प्रशासन वर्ग को चुनौती देते हुए भी नजर आते हैं। दिनकर का साहित्य हिन्दी के पाठकों के लिए वरदान स्वरूप रहा है। उनकी रचनाएं सदैव हमें मनोरंजन के साथ साथ प्ररेणा भी देते रहेंगे और यह हिंदी साहित्य का यह प्रखर सूर्य की आभा कभी मंद नहीं हो सकती, वे सदैव अपनी कला और व्यक्तित्व की आभा से हिंदी साहित्य जगत को आलोकित करते रहेंगे।
संदर्भ ग्रंथ सूची:-
क. दिनकर,रामधारी सिंह :- हिमालय।
ख. दिनकर,रामधारी सिंह :- परशुराम की प्रतीक्षा।
ग. दिनकर,रामधारी सिंह :- उर्वशी।
घ. दिनकर,रामधारी सिंह :- रश्मिरथी।
ङ. दिनकर,रामधारी सिंह :- नीम के पत्ते।
च. इंटरनेट।।
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