फ़ादर कामिल बुल्के//हिन्दी के सच्चे भक्त// भाग-2
फ़ादर बुल्के आज जीवितों के देश में नहीं हैं , लेकिन वह अपने हजारों हजार प्रशंसकों के हृदय में अब भी
जीवित हैं
फ़ादर कामिल बुल्के की अगाध हिंदी प्रेम के कारण वे 1947 ई. में हिंदी में
एम.ए. पास किया । फिर डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से उन्होंने डॉक्टरेट के लिए
रामभक्ति के विकास पर शोध कार्य आरंभ किया । उनके शोध निर्देशक हिंदी के
प्रख्यात पंडित डॉ. माता प्रसाद गुप्त थे । अंततः रामकथा: उत्पत्ति और विकास
शीर्षक से उनका शोध प्रबंध 1950 ई . में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की हिन्दी परिषद्
द्वारा प्रकाशित हुआ । इतना होने पर भी बुल्के अपने विषय से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने
इस विषय पर प्रायः अट्ठारह वर्षों तक अनुसंधान करते रहें । फलतः इसमें क्रमशः नवीन
सामग्रीयों का हमेशा समावेश होता रहा।
बुल्के रामकथा के शोध के लिए में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश , हिन्दी , बंगला , तमिल आदि सभी प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध
राम विषयक विपुल साहित्य का अध्ययन किया फिर तिब्बती, बर्मी , इंडोनेशियाई, थाई आदि एशियाई भाषाओं के समस्त राम साहित्य का भी अध्ययन
की। इनके प्रामाणिक और वैज्ञानिक शोध जब प्रकाशन किया गया तब से फ़ादर बुल्के की
गणना भारतविद्या और हिन्दी के सबसे बड़े विद्वान में होने लगी । यही नहीं , यह विश्वकोशात्मक ग्रन्थ उनकी विश्वव्यापी कीर्ति का आधार
बन गया ।
उनकी रामकथा की एक अन्य विशेषता यह भी रही कि यह मूलत हिन्दी माध्यम में प्रस्तुत
हिन्दी विषय का पहला शोध-प्रबंध है । फ़ादर बुल्के के समय एक नियम प्रचलित था कि
सभी विषयों के शोध-प्रबंध केवल अंग्रेजी में प्रस्तुत किये जा सकते हैं । फ़ादर बुल्के
के लिए अंग्रेजी अति सरल था, किन्तु जब बात हिन्दी भाषा की स्वाभिमान की आयी तब उन्होंनें इसका विरोध किया । उनके तर्क
से परास्त पोकर उनके शोध प्रबंध को हिन्दी भाषा में करने की अनुमति मिल गयी।
1950 ई. में बुल्के को संत जेवियर कॉलेज, रांची के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में नियक्ति हुई ।
इतना होने पर भी बीच बीच में हिन्दी भाषा या
तुलसी साहित्य पर भाषण देने तथा रामकथा संबंधी नवीन सामग्री का संकलन करने में, वे विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी साहित्य संस्थाओं की बैठकों
में भाग लेते या मित्रों से मिलने के लिए वह छोटी बड़ी यात्राएँ करते रहते । अंत
में जब उन्हें यह अनुभव हुआ कि अब विद्यार्थी अपने विषय में रुचि लेने के विपरीत
केवल परीक्षा पास करने में रुचि रखते हैं तब वे अपने
अध्यापन से विरक्त होने लगे और निश्चय किया कि वह अध्यापन की सेवा से मुक्त होकर
अपना सारा ध्यान केवल अपने शोध और हिन्दी सेवा पर केंद्रित करेंगे । संघ ने उन्हें
अध्यापन कार्य से मुक्त तो किया, किन्तु एक शर्त के साथ कि वह विभागाध्यक्ष बने रहेंगे।
फिर वे अपने रामकथा के दूसरे संस्करण के लिए सामग्री संकलन का कार्य करने लगे
और इस विषय पर अनुसंधान करते रहे । हिन्दी साहित्य में उनकी विशेषज्ञता रामभक्ति
और तुलसी साहित्य ही था । बुल्के का मानना था कि तुलसी में उन्हें न केवल रामकथा
का सबसे मर्यादित रूप मिला, बल्कि उनमे भगवद्भक्ति का ऐसा स्वरूप भी, जिसे वह ईश्वर भक्त मात्र के लिए आदर्श मानते थे । उन्होंने
अपने इस महाकवि पर अनेक महत्त्वपूर्ण निबंध लिखे और उनका सपना था कि वह बाइबिल का
अनुवाद समाप्त करने के बाद तुलसी पर एक विस्तृत ग्रंथ लिखे । लेकिन उनका यह स्वप्न
पूरा नहीं हुआ, किन्तु
उनके द्वारा लिखे निबंधों और रामकथा और तुलसीदास तथा मानस कौमुदी, इन दो पुस्तकों से उनकी तुलसी विषयक दृष्टि की जानकारी
आसानी से प्राप्त की जा सकती है।
बुल्के बहुभाषाविद् थे और वे अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के अतिरिक्त अँगरेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और बाद में हिन्दी के भी पंडित हुए । उन्होंने तीस
वर्षों तक हिन्दी में कार्य करते रहे और एकमात्र हिन्दी की सेवा के लिए ही अन्य
भाषाओं का आश्रय लेते रहे । वे आजीवन मानते रहे कि ज्ञान विज्ञान के किसी भी
विषय की सक्षम अभिव्यक्ति हिन्दी में ही संभव है इसके लिए अंग्रेजी पर आश्रित बने
रहने की धारणा निरर्थक है । उनका दृढ़ विश्वास यह भी था कि हिन्दी निकट
भविष्य में ही समस्त भारत की सर्वप्रमुख भाषा बन जायेगी। अतएव हिन्दी में
कार्य करने तथा अन्य भाषा भाषियों को हिन्दी सीखने की सुविधा के लिए उन्होंने अंग्रेजी-हिन्दी
कोश निर्माण के क्षेत्र में कार्य किया । उनका इस क्षेत्र में ए टेकनिकल
इंगलिश - हिन्दी ग्लॉसरी है प्रमुख हैं।
बुल्के की साहित्य जगत में योगदान कुछ इस प्रकार रहाः---
1. The Saviour: The four Gospels in one Narrative,
2. मुक्तिदाता ,
3. The
Theism Nyaya- Vaisheshilka ;
4. रामकथाः उतपत्ति और विकास ,
5. A
Technical English - Hindi Glossary
6. Hindi
Christian Names
7. लई की अमर कहानी
8. नील पक्षी
9. पर्वत- प्रवचन
10. संत लूकस के अनुसार येसू स्वीस्त का पवित्र समाचार ,
11. अंग्रेजी - हिन्दी कोश
12. राम कथा और हिन्दी : एक इसाई की आस्था ,
13. रामकथा
14. चारों सुसमाचार
15. प्रेरित चरित , धार्मिक साहित्य ,
16. शमकथा और तुलसदास ,
17. मानस कौमुदी
18. ईसा जीवन और दर्शन
19. तुलसी हिन्दी भाषा और साहित्य
20. पवित्र बाइबिल
21. बाइबिल के तीन लघु उपन्यासः
इनके अतिरिक्त ईसाई धार्मिक के कई पुस्तकें उनके द्वारा हिंदी
में उन्होंने अनूदित किया। बुल्के का साहित्य संसार बहुत विस्तृत है । उनकी कुल उनतीस
ग्रंथ और साठ शोध निबंधों हैं । इसके अतिरिक्त उनके द्वारा संपादित हिन्दी
विश्वकोश तथा अन्य कई ग्रंथों में सम्मिलित उनके लगभग सौ छोटे बड़े निबंध हैं,
साथ ही साथ उनके कुछ रेडियो वार्ताएं हैं । लेखन के अतिरिक्त वह कई महत्त्पूर्ण
संस्थाओं से उचित रूप में मानक थे । वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, काशी नागरी प्रचारिणी सभा और बेल्जियन रॉयल अकादमी के सम्मानित
सदस्य थे । बुल्के को अपनी
विद्वत्ता और श्रेष्ठ मानवीय गुणों के कारण 1974 ई. में गणतंत्र दिवस के अवसर पर उन्हें
पद्मभूषण से सम्मानित किया गया । फिर 1981 में उन्हें बिहार राष्ट्रभाषा
परिषद् ने वयोवृद्ध साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 1982 में
उन्हें राँची एक्सप्रेस ( दैनिक ) द्वारा संचालित राधाकृष्ण पुरस्कार उन्हें
मरणोपरांत पदान किया गया ।
बुल्के की गिनती उन विदेशी संन्यासियों में होती है, जो भारत आकर भारतवासियों से अधिक भारतीय हो गये । उन्होंने
यहाँ आकर यहां की जनता से एकाकार हो गए । भारत के लोगो से मिले स्नेह और ज्ञान को
उन्होंने कभी न भूला सके, इसलिए वे यही बस गए और भारतवासिओं को हिंदी सिखने तथा
उनके अन्य कामों में प्रेरित करने का काम करने लगे। लोक सेवा उनके जीवन का मूल
साधना थी साथ ही इसमें उन्होंने हिंदी को भी जोड़ लिया । वह अपनी जिज्ञासा हेतु
प्रत्येक तथ्य की प्रामाणिकता के लिए घंटों परिश्रम करते रहते थे ।
हिंदी भाषा को भारतवासियों से भी अधिक
चाहने वालों में बुल्के अद्वितीय रहे है। इसके स्नेह और प्रचार प्रसार के लिए वे
आजीवन प्रयासरत रहै ।धीरे धीरे बुल्के अस्वस्थ होते आ रहे थे । किन्तु वे अपनी
रोगों की चिंता किये बिना निरंतर हिंदी के प्रचार प्रसार के कार्य में कार्यरत थे
। जीवन के अंतिम अवस्था में वे सोच रहे थे कि बाइबिल का अनुवाद- कार्य पूरा करगें
फिर तुलसी - संबंधी अपने चिंतन को विस्तार से शब्दबद्ध करेंगे किन्तु उसी समय उन्हें
गैंग्रीन हो गया । इलाज अस्पताल में चला, किन्तु उनकी हालत दिन व दिन बिगड़ती चली गयी । और, 17 अगस्त
के सवेरे साढ़े आठ बजे उनकी प्राणवायु उड़ गयी।
फादर कामिल बुल्के हमारे अंदर अपनी निस्वार्थ हिंदी सेवा के लिए हमेशा अमर
रहेंगे।
संदर्भ-- डॉ. कामिल बुल्के विशेषांक : जुलाई, चेतना हिन्दी प्रचारिणी सभा, कैनेडा। अंक 43, जुलाई
2009।
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