नदी के द्वीप
हम नदी के द्वीप हैं ।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय ।
वह हमें आकार देती है ।
हमारे कोण , गलियाँ , अन्तरीप , उभार , सैकत कूल ,
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं ।
माँ है वह । है , इसी से हम बने हैं ।
किन्तु हम हैं द्वीप । हम धारा नहीं हैं ।
स्थिर समर्पण है हमारा । हम सदा से द्वीप है स्रोतस्विनी के ।
किन्तु हम बहते नहीं है । क्योंकि बहना रेत होना है ।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं ।
पैर उखड़ेंगे । प्लवन होगा । ढहेंगे । सहेंगे । बह जायेंगे ।
और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते ?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गॅदला ही करेंगे
अनुपयोगी ही बनायेंगे ।
द्वीप हैं हम , यह नहीं है शाप । यह अपनी नियति है ।
हम नदी के पुत्र हैं । बैठे नदी की क्रोड़ में ।
वह बृहद् भूखण्ड से हमको मिलाती है ।
और वह भूखण्ड अपना पितर है ।
नदी तुम बहती चलो ।
भूखण्ड से जो दाय हमको मिला है , मिलता रहा है ।
माँजती , संस्कार देती चलो
यदि ऐसा कभी हो
तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से , अतिचार से
तुम बढ़ो , प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे
यह स्रोतस्विनी कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर
काल - प्रवाहिनी बन जाय
तो हमें स्वीकार है वह भी । उसी में रेत होकर
फिर छनेंगे हम । जमेंगे हम । कहीं फिर पैर टेकेंगे ।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार ।
मात : उसे फिर संस्कार तुम देना । " ( ' हरी घास पर क्षण भर ' से )
प्रस्तुत कविता नवीन प्रतीकों को समाहित किये हुये है । नदी - सामाजिक चेतना प्रवाह को प्रतीक , भूखण्ड समाज का प्रतीक तथा द्वीप व्यक्ति चेतना का प्रतीक है । ' कलगी बाजरे को कविता के समान यह ' नदी के द्वीप ' भी ' अज्ञेय ' की अत्यन्त प्रसिद्ध कविता है । ' नदी के द्वीप ' कविता में व्यक्ति - चेतना के अस्तित्व तथा संरक्षण का प्रश्न , परन्तु इस कविता में स्वेच्छा से अपने जागृत तथा दीप्त ' व्यक्ति ' का व्यापक समष्टि को अर्पण है । यह द्वीप सामान्य द्वीप नहीं , जन , पनडुब्बा , समिधा , मधु , गोरस , अंकुर तथा अनेक रूपों में कवि ने उसको विशिष्टता एवं अद्वितीयता का उल्लेख किया है , उसे ब्रह्म , प्रकृति , स्वयंभू कहा है । अपने ऐसे तेजस्वी , एवं विश्वास ' दीप्त व्यक्ति का यह स्वेच्छा से किया गया समाज के प्रति अर्पण है । ' द्वीप ' कवि के तेजस्वी व्यक्ति - बोध का प्रतीक तथा ' पंक्ति ' समाज या समष्टि का प्रतीक है । व्यक्तिबोध के माध्यम से समष्टि - बोध की अनुभूति स्पष्ट की गयी है । विश्व वेदना की पूरित दो आँखें ही कवि को समष्टि - वेदना से परिचित करा देती है । हमारा व्यष्टि - बोध ही हमें समष्टि बोध तक पहुँचा सकता है , बशर्ते वह इतना प्रशस्त हो कि समष्टि उसमें प्रतिबिम्बित हो सके । प्यार और दुलार की नई अनभूतियों को लिए ऋतुराज का आगमन हो गया है । ऋतुराज के आगमन के सहज उल्लास समूचे परिवेश का अत्यन्त आवेगपूर्ण चित्रण किया गया है । दर्द मनुष्य को माँजता है । उसका नया संस्कार करता है । उसे उदार एवं शुभ - चेता बनाता है । दर्द पाप नहीं है । दर्द के वैशिष्ट्य का आकलन , पीड़ा भोग के महत्त्व का आकलन इस कविता में हुआ है । सागर तट की साँझ , चन्द्रमा की किरणें , नीला अपलक आकाश कवि का दर्द के वैशिष्ट्य की सही अनुभूति देते हैं । अत्यन्त मार्मिक , भावपूर्ण एवं सशक्त प्रस्तुत कविता है । विधाता द्वारा सूर्य समूची धरती को जीवन देता है , परन्तु मनुष्य के रचे हुए सूर्य ( अणु बम ) ने समूची मनुष्यता को भाप बनाकर सोख लिया । हीरोशिमा की धरती पर मानव की जली छायाएँ लिखी हुई हैं । प्रस्तुत कविता ' अज्ञेय ' की अत्यन्त प्रसिद्ध एवं चर्चित कविता है ।
No comments:
Post a Comment