आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी//हिंदी साहित्य// आलोचना//ugc//net jrf//
आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी भावयित्री और कवयित्री प्रतिभा से सम्पन्न कलाकार थे । एक ही
व्यक्ति में इन दोनों प्रतिभाओं के दर्शन विरल होते हैं या तो कोई व्यक्ति
शास्त्रों का ज्ञाता होता है या फिर साहित्य का रचयिता। किन्तु दोनों गुण जिस
व्यक्ति में विद्यमान होते हैं, वही श्रेष्ठ साहित्यकार माना जाता है।
सौभाग्य से डॉ ० हजारी प्रसाद द्विवेदी को ये दोनों गुण प्राप्त हुए ।
आधुनिक हिन्दी
साहित्य में इस दृष्टि से उनके समकक्ष केवल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आते हैं । वे
भी सिद्धान्तों के नियामक और साहित्य सृष्टा दोनों ही थे । यही विशेषता द्विवेदी
जी में रही । '
साहित्य का साथी ' तथा ' साहित्य का
मर्म ' यदि उनकी
आलोचना- पद्धति में निरर्थक बने तो 'बाणभट्ट की आत्मकथा' 'चारुचन्द्र लेखा' 'पुनर्नवा' 'अशोक के फूल' 'कुटज' आदि ग्रन्थ
उनके श्रेष्ठ रचनाकार होने के प्रमाण हैं ।
आचार्य शुक्ल
ने अपनी प्रतिभा,
चिन्तन और पांडित्य द्वारा हिन्दी आलोचना के जिस भव्य पथ का
निर्माण किया था,
उसे और अधिक प्रशस्त बनाने का कार्य द्विवेदी जी ने किया ।
उनके सिद्धान्त और मान्यताएँ शुक्ल जी के विरुद्ध नहीं थी, अपितु उन्होंने
शुक्ल जी द्वारा अधूरे छोड़े गए कार्य को पूरा किया । हिन्दी समीक्षा को उन्होंने
एक नई उदार और वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की ।
डॉ० बच्चन सिंह
ने आचार्य द्विवेदी की हिन्दी साहित्य की भूमिका ' को उनके
सिद्धान्तों की बुनियादी पुस्तक कहा है । इसके एक वर्ष पश्चात् ' कबीर ' का प्रकाशन हुआ
। ' सूर साहित्य ' पहले से ही सन्
1934 ई ० में प्रकाशित हो चुकी थी । इन पुस्तकों ने सम्पूर्ण हिन्दी संसार का
ध्यान आकर्षित किया । '
सूर-साहित्य में भावुकता का रंग कुछ प्रगाढ़ हो गया है , किन्तु शेष
दोनों पुस्तकें द्विवेदी जी के विचारों की परिपक्वता की द्योतक है। उनका
मानवतावादी द ष्टिकोण तथा ऐतिहासिकता पद्धति इनमें उभरकर सामने आई । उन्होंने
बताया कि किसी साहित्य को व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए । इसके
लिए आवश्यक है कि आलोचक को अपनी सांस्कृतिक विरासत का पूर्ण ज्ञान हो । मानवतावाद
डॉ ० हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य के मर्म मानवतावाद को माना है । उनका कहना है-
"मैं साहित्य को मनुष्य की द ष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल
मनुष्य को दुर्गति ,
दीनता और परमुखोपेक्षिता से बचा न सके , जो उसकी आत्मा
को तेजोद्दीप्त न बना सके,
उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।" अतएव
स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि मानवतावादी है । उनका मानवतावाद उपनिषदों से प्रभावित है, उसमें मनुष्य -
मनुष्य में भेद नहीं माना जाता । इसका प्रतिपादन ‘ साहित्य का
मर्म ' बड़े विशुद्ध
और वैज्ञानिक रूप में हुआ है । इसी मानवतावाद की अभिव्यक्ति ' हिन्दी साहित्य
की भूमिका '
और ' कबीर ' में इतिहास का
आश्रय लेकर हुई हैं ,
तो ' साहित्य का मर्म ' में विविध
ज्ञान - विज्ञान के माध्यम से हुई है ।
द्विवेदी जी
साहित्यकार का लक्ष्य मनुष्य का हित साधन करना मानते हैं । वे ' कला कला के लिए
' के सिद्धान्त
के समर्थक नहीं हैं । उनका इतिहासकार रूप उनके समीक्षक रूप में इस प्रकार घुल -
मिल गया है कि उन्हें परस्पर पथक् करके अध्ययन करना संभव नहीं है । इसलिए उनके
आलोचनात्मक साहित्य को मोटे रूप में यदि हम दो भागों में बाँटे- ( 1 ) इतिहास
सम्बन्धी तथा ( 2 ) समीक्षा सम्बन्धी । तो ये दोनों रूप हमें परस्पर घुले - मिले
दिखाई देंगे ।
अभी तक हिन्दी
साहित्य के भक्तिकाव्य के सम्बन्ध में शुक्ल जी द्वारा निर्दिष्ट मान्यता ही चल
रही थी कि मुसलमानों के सामने पराजित होने पर हिन्दू जाति के निराश और भग्न हृदय
के सम्मुख ईश्वर की शरण में जाने के अतिरिक्त कोई उपाय न था , इसलिए इस
साहित्य में भक्ति भावना विद्यमान है । द्विवेदी जी ने हिन्दी के साहित्य को
हतदर्य पराजित हिन्दू जाति की संपत्ति नहीं माना । काव्यरूप का विकास द्विवेदी जी
की समीक्षा के क्षेत्र में एक अन्य महत्त्वपूर्ण देन यह है कि उन्होंने हिन्दी के
काव्यरूप के विकास की ओर ध्यान दिया । यह कार्य उनसे पूर्व अन्य किसी आलोचक ने
नहीं किया ।
हिन्दी साहित्य
के साथ उन्होंने अन्य प्रांतों के साहित्य का सम्बन्ध जोड़कर काव्य रूपों में
तुलनात्मक विवेचन की दशा में भी कार्य किया है । आलोचना शैली द्विवेदी जी की
आलोचना शैली के अनेक रूप मिलते हैं । विवेचनापूर्ण व्याख्यात्मक शैली में उन्होंने
जो आलोचनाएँ लिखी हैं ,
उनमें विषय प्रतिपादन के लिए उद्धरण दिए हैं । अपने गहन
अध्ययन द्वारा विषय का समर्थन करने के लिए उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । उनकी आलोचना
शैली का दूसरा भावात्मक है , जिसमें किसी कवि की विशेषताओं की
प्रशंसा की है । मध्ययुगीन साहित्य और संस्कृति द्विवेदी जी का प्रिय क्षेत्र है ।
उन्होंने सांस्कृतिक गतिविधि लोक - जीवन आदि के बीच से साहित्य का परीक्षण करने की
जिस वैज्ञानिक पद्धति को जन्म दिया , उसके लिए हिन्दी समीक्षा उनकी चिर ऋणी
रहेगी । एक आलोचक ने ठीक ही लिखा है कि- " ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समीक्षा पद्धति
का आदर्श रूप पं ० हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचनाओं से प्रस्फुटित हुआ है ।"
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