Monday, 17 May 2021

UGC/NET/JRF/HINDI/हिंदी सूफी काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ/—

सूफी शब्द की व्युत्पत्ति - व्युत्पत्ति की दृष्टि से ' सूफी ' शब्द को विभिन्न शब्दों से उत्पन्न बताया गया है । एक मत के अनुसार ' सफी ' शब्द की उत्पत्ति ' सफ ' से हुई है , जिसका अर्थ है - जो अग्रिम पंकिा में खड़े होंगे , वे सूफी होंगे । कुछ लोगों के अनुसार मदीना की मस्जिद के समक्ष ' सूफा ' ( चबूतरे ) पर बैठने वाले फकीरों को सूफी कहते हैं ।

कुछ लोगों के अनुसार सूफी ' शब्द ' सोफिया ' का रूपान्तरण है , जिसका अर्थ ज्ञान होता है । ज्ञान के कारण ही उन्हें सूफी कहते हैं । कुछ लोगों ने ' सूफी ' शब्द का सम्बन्ध ' सफा ' से जोड़ा है । जिसका अर्थ पवित्रता अथवा शुद्धता है । इनके मतानुसार सूफी पवित्र और शुद्ध आचरण करने वाले व्यक्ति हैं । कुछ लोगों के अनुसार ' सूफी ' शब्द सूफा ( अरब की एक जाति - विशेष ) या सुपफाह ( भक्ति - विशेष ) का रूपान्तरण है ।

------उपर्युक्त सभी मत किसी न किसी अनुमान पर आधारित हैं । ' सूफी ' शब्द का सम्बन्ध ' सूफ ' ( ऊन ) से है । यह मत अत्यधिक तर्कसंगत लगता है । ' सूफी ' शब्द मूलत : अरब और इराक के उन व्यक्तियों को सूचित करता है जो मोटे ऊनी वस्त्रों का चोगा पहनते थे । इनका विरक्तों और संन्यासियों जैसा साधनापूर्ण जीवन था और कदाचित इसी कारण ये लोग मुस्लिमों की अग्रिम पंक्ति में खड़े होने अधिकारी थे सूफी मत के सिद्धान्त - सूफी मत के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं—

(1) निर्विकारता - सूफी सम्प्रदाय में आध्यात्मिक सिद्धान्तों के विषय में थोड़ा - थोड़ा अन्तर पाया जाता है । सबके अनुसार ईश्वर निर्विकार तथा निर्विकल्प है । ईश्वर के साथ एकीकरण के लिए प्रेम - रूपी पीड़ा का उदय होना आवश्यक है । अहंभाव की समाप्ति ही साधना की सफलता की कुन्जी है । आत्मसमर्पण से ही ईश्वर का साक्षात्कार सम्भव है । मनुष्य में जब इच्छाएँ लुप्त हो जाती हैं तो वह ब्रह्म ( अल्लाह ) में मिल जाता है । यानी ' अन् - अलहक ' ( अहम् ब्रह्मास्मि ) है । यही सूफी दर्शन की पराकाष्ठा है । ईश्वर के साथ तादात्मय का एकमात्र उपकरण प्रेम है ।

(2) ईश्वर - हजादिया सम्प्रदाय ( एकेश्वरवाद ) , सुदूरिया सम्प्रदाय ( प्रतिविष्ववाद ) तथा बुज़दिया भक्ति काल | 75 सम्प्रदाय के अनुसार संसार की सभी वस्तुओं में ईश्वर की झलक है या उपस्थिति मिलती है । यही प्रधान एवं मान्य मत है । इनके अनुसार ईश्वर निराकार है । इनमें प्रत्येक धर्म के प्रति पर्याप्त सहानुभूति मिलती है ।

(3) ईश्वर और जगत् का सम्बन्ध सूफी ईश्वर को जगत् से परे मानते हुए भी उसे जगत् में लीन मानते हैं । कुछ सूफी सन्तों ने ईश्वर और जगत् को भिन्न - भिन्न मानकर एकेश्वरवाद का समर्थन किया है । अधिकांश सूफी ईश्वर को जगत के बाहर भी समझते हैं और जगत् जगत् के बाहर भी है और अन्दर भी । ईश्वर ही संसार की सभी वस्तुओं में छाया है । अन्दर लीन भी समझते हैं अर्थात ईश्वर

(4) सृष्टि की उत्पत्ति ईश्वर ने अपने गूढ रहस्य को अभिव्यक्त करने के लिए सृष्टि रची है । जिली के अनुसार ईश्वर चन्द्रकांत मणि के रूप में था । सृष्टि की कामना से उसने अपने स्वच्छ तत्व पर दृष्टिपात किया और द्रवीभूत होकर पानी के रूप में हो गया , जिससे स्थूल द्रव्य फेन की भांति ऊपर छा गया । उसी से स - पृथ्वी की रचना की गई । उसके सूक्ष्म तत्वों से सप्तलोक और फरिश्ते बने । अधिकांश सूफियों का विश्वास है कि ईश्वर ने सर्वप्रथम मुहम्मदी आलोक की सृष्टि की । यह आलोक बीज में बनाया । उसी से पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि की उत्पत्ति हुई । फिर आकाश और तारे बने , तत्पश्चात सप्त - भुवन , धातु पदार्थ , जीव जन्तु एवं मानवौं आदि की रचना हुई ।

(5) मानव सृष्टि में सर्वोपरि - मानव ईश्वर के रूप की पूर्ण अभिव्यक्ति है । मानव - शरीर में जड़ - अंश और आध्यात्मिक - अंश दोनों नफस ( जड़ आत्मा ) मनुष्य को पाप की ओर ले जाती है और रूह ( आत्मा ) मनुष्य को ईश्वरीय शक्ति का दर्शन हृदय के स्वच्छ दर्पण में कराती है और प्रियतम के साथ मिलन कराती है । अतः नफस को मारना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है ।

(6) पूर्ण मानव को मान्यता पूर्ण मानव ईश्वर की एकमात्र पूर्ण अभिव्यक्ति है । प्रत्येक मनुष्य में परिपूर्णता का बीज सुप्तावस्था में रहता है । उसमें प्रस्फुटन की सम्भावना रहती है । मुहम्मद सर्वश्रेष्ठ पूर्ण मानव है । अतः उनके ज्ञान का विशेष महत्व है । सूफी साधुओं को भी पूर्ण मानव माना जाता है और उन्हें बलिया पीर कहा जाता है । ईश्वरीय साक्षात्कार के लिए सूफी मत में पीर या सतगुरु की अपार मान्यता है । सूफियों ने फना और बका को माना है । फना मानवीय गुणों का नाश है और वका ईश्वरीय गुणों की प्राप्ति है ।

(7) साधना के सोपान - साधना के सात सोपान माने गये हैं - अनुताप , आत्म - संयम , वैराग्य , दारिद्रय , धैर्य , विश्वास तथा सन्तोष ( प्रेम ) । इसमें प्रेम ( सन्तोष ) की बड़ी महत्ता है । प्रेम के अभाव में साधना की सिद्धि नितान्त असम्भव है । ईश्वर को 70,000 पदों के पीछे माना जाता है । इन सोपानों से मानव अन्धकार के पदों को छिन्न - भिन्न करता हुआ प्रकाशमय पर्दे की ओर बढ़ता है । इस साधना से मानवीय दुर्गुणों का ह्रास और ईश्वरीय गुणों का आविर्भाव होता है । इनके अतिरिक्त एक उच्चतर सोपान है जिसे मुक्तावस्था कहा गया है ।

(8) हाल की चार अवस्थाएँ - ईश्वर में अपने आपको अर्पण करना ही हाल है । इस स्थिति में साधना की प्रथम अवस्था नासूत कहलाती है , जिसमें वह ( भक्त , साधक ) सरीयत का अनुसरण करता है । साधना की दूसरी अवस्था मल्कत है , जिसमें साधक कर्मकाण्ड एवं तरीकत ( उपासना ) में प्रवृत्त होता है । साधना की तीसरी अवस्था आरिफत अर्थात जलरूप है जहाँ साधक आरिफ ( ईश्वर का बंदा ) बन जाता है । साधना की चौथ अवस्था लाभूत है जहाँ पहुँचकर साधक को हकीकत ( परमतत्व ) की उपलब्धि होती है ।

(9) शैतान - यह शंकराचार्य की माया के समान नहीं है । यह साधक के मार्ग में कठिनाइयाँ उत्पन करके उसके प्रेम की परीक्षा लेता है और साधक इन कठिनाइयों को पार करके भी निरन्तर प्रेम के माध्यम ईश्वर तक पहुंचने का प्रयास करता है , जिसे प्रेम की पराकाष्ठा कहा जाता है । इस प्रकार शैतान ईश्वर - प्रेम बाधक बनकर , प्रेम की परीक्षा में सहायक है ।

(10) पीर का महत्व - इनके यहाँ पीर या सतगुरु का बहुत उच्च आसन है । बिना सतगुरु या पीर के कृपा के प्रेम - स्वरूप ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है ।

(11) प्रेम - ईश्वर - प्राप्ति का एकमात्र साधन प्रेम है । यह प्रेम इश्कमजाजी ( लौकिक प्रेम ) इश्कहकीकी ( अलौकिक प्रेम ) की ओर उन्मुख होता है । यह प्रेम एकमात्र निष्काम और निःस्वार्थ है । सूफियों ईश्वर की पत्नी के रूप में कल्पना की है और साधक की पति के रूप में । साधक अपनी प्रियतमा के हाथ दिये गये मधुपान को सदा लालायित रहता है , अतएव उसकी प्राप्ति के लिए अनेक यत्न करता है । कि भारतीय साधना में ईश्वर को पति तथा साधक को पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया है । यही भारतीय सा और सूफी साधना में विशेष भेद है ।

 

 

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