रासो की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में रासो को प्रामाणिक मानने वाले विद्वानों का मत--
रासो काव्य ग्रन्थ है इतिहास नहीं,
अतः
ऐतिहासिक सत्य को रासो में खोजना तथा उसके आधार पर रासो की प्रामाणिकता पर सन्देह
करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है । इन विद्वानों का मत है कि रासो एकदम जाली
पुस्तक नहीं है । प्रक्षिप्त अंशों की अधिकता होने के कारण इसका रूप विकृत अवश्य
हो गया है , किन्तु इसमें कुछ सार अंश भी है । रासो के लघुतम संस्करण
में प्रक्षिप्त अंश बहुत कम है , अतः उसमें अनैतिहासिक तथ्य भी कम
हैं । ' पुरातन प्रबन्ध संग्रह ' नामक ग्रन्थ में रासो
के चार छन्द ऐसे मिले हैं , जो रासो की लघुतम प्रतियों में भी
हैं । यह प्रति लगभग 15 वीं शती की मानी गयी है , अतः रासो की रचना
निश्चित रूप से 15 वीं शती से बहुत पहले हो चुकी होगी ।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इन्हीं छन्दों के
आधार पर चन्द को पृथ्वीराज का दरबारी कवि मानते हुए लिखा है- “
इन
पद्यों के प्रकाशन के बाद अब इस विषय में किसी को कोई सन्देह नहीं रह गया है कि
चन्द नामक कवि पृथ्वीराज के दरबार में अवश्य थे और उन्होंने ग्रन्थ भी लिखा है ।
सौभाग्यवश रासो में भी ये छन्द कुछ विकृत रूप में प्राप्त हो गये हैं । इस पर यह
अनुमान किया जा सकता है कि वर्तमान रासो में चन्द के मूल छन्द अवश्य मिले हुए हैं
। "
रासो की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में बाबू श्यामसुन्दर दास ,
मिश्रबन्धुओं
एवं उनके अन्य समर्थकों ने जो तर्क दिये हैं , वे इस प्रकार हैं---
(1) चन्द ने अपने आश्रयदाता के प्रताप का अतिशयोक्तिपूर्ण
वर्णन किया है । रासो में जो घटनायें असम्भव सी जान पड़ती हैं ,
वे
अतिशयोक्ति का ही परिणाम हैं , अतः इनके आधार पर ग्रन्थ को
अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता ।
(2) जो ऐतिहासिक प्रान्तियाँ मालूम पड़ती हैं वे प्रक्षिप्त
अंशों के कारण हैं , परन्तु इस प्रकार के क्षेपक तो
अन्य काव्यग्रन्थों में भी पाये जाते हैं । प्रक्षिप्त अंशों के आधार पर पूरी
पुस्तक को जाली ग्रन्थ कह देना तर्कसंगत नहीं है ।
(3) ऐतिहासिक प्रान्तियों के सम्बन्ध में मिश्रबन्धुओं का
तर्क है कि रासो काव्य ग्रन्थ है , इतिहास नहीं । रासोकार ने अपनी
कल्पना शक्ति के बल पर अनेक नवीन घटनाओं की योजना अपने आश्रयदाता के शौर्य
प्रदर्शन के लिए कर ली है , जिसका उसे पूरा अधिकार भी था ,
अतः
इन घटनाओं में इतिहास की खोज करना और उसके आधार पर ग्रन्थ को अप्रामाणिक घोषित कर
देना उपयुक्त नहीं है ।
(4) रासो में दी गई तिथियाँ इतिहास से 90-91 वर्ष पीछे की
हैं । पण्डित मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या ने अनन्द संवत् की परिकल्पना करके अधिकतर
तिथियों को इतिहास के अनुरूप ला दिया है ।
(5) रासो में प्रयुक्त अरबी - फारसी के शब्दों के आधार पर
इसे परवर्ती काल की रचना घोषित कर अप्रामाणिक कह देना भी उचित नहीं है ,
क्योंकि
महमूद गजनवी , शहाबुद्दीन गोरी से पहले भारत पर आक्रमण कर चुका था। उससे
भी पहले मुसलमानों ने मुल्तान पर अधिकार कर लिया था तथा वे भारत में अपना व्यापार
करने लगे थे । इस प्रकार पंजाब मुस्लिम संस्कृति से प्रभावित हो चुका था । अन्ततः
चन्द लाहौर का निवासी था , अतः उसकी कविता में अरबी - फारसी
शब्दों का आना स्वाभाविक है ।
(6) पृथ्वीराज विजय ' नामक जयानक रचित
संस्कृत काव्य में चन्दबरदाई का उल्लेख न होने से भी रासो की अप्रामाणिकता सिद्ध
नहीं होती । कदाचित् जयानक ने कवि सुलभ सहज ईर्ष्यावश ऐसा किया रासो को अर्द्ध - प्रामाणिक
मानने वालों के तर्क विद्वानों का एक वर्ग ऐसा भी है ,
जो
रासो को न तो पूरी तरह प्रामाणिक मानता है और न ही अप्रामाणिक । इनमें प्रमुख हैं
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , नरोत्तम स्वामी और डॉ . दशरथ
शर्मा। इनका मत है कि रासो अर्द्ध - प्रामाणिक रचना है ।
इन विद्वानों के तर्को को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता
है ( 1 ) आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि रासो की रचना पद्धति दसवीं
शताब्दी के साहित्य से मेल खाती है । इसमें जिस संवाद शैली का सहारा लिया गया है
वह कीर्तिपताका और सन्देश रासक से मेल खाती है ।
( 2 ) रासो में सभी प्राचीन कथानक रूढ़ियों का पालन किया
गया है , जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इस ग्रन्थ की रचना आदिकाल
में ही हुई थी ।
( 3 ) पृथ्वीराज रासो की भाषा में 12 वीं शताब्दी की भाषा
की संयुक्ताक्षरमयी अनुस्वारान्त प्रवृत्ति मिलती है ,
जिससे
यह 12 वीं शती की रचना सिद्ध होती है ।
( 4 ) द्विवेदीजी का यह भी कहना है कि रासो की रचना शुक -
शुकी संवाद के रूप में हुई थी , अतः जिन सर्गों का प्रारम्भ शुक -
शुकी संवाद से हुआ है , वे ही प्रामाणिक हैं । इस आधार पर
उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित ' संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो '
में
इन प्रसंगों को ही स्थान दिया है- ( i ) आरम्भिक अंश . ( ii
) इक्षिणी
विवाह , ( iii ) शशिवता विवाह ,
( iv ) तोमर
पाहार का शहाबुद्दीन को पकड़ना , ( ४ ) संयोगिता विवाह ,
( vi ) कैमास
वध , ( vi ) गोरी बध ।
( 5 ) आचार्य द्विवेदी ने रासो को अर्द्ध - प्रामाणिक रचना
मानते हुए यह स्वीकार किया है कि इसमें इतिहास और कल्पना का मेल किया गया है- “
सभी
ऐतिहासिक कहे जाने वाले काव्यों के समान इसमें भी इतिहास और कल्पना का ( फैक्ट और
फिक्शन का ) मिश्रण है । सभी ऐतिहासिक मानी जाने वाली रचनाओं के समान इसमें भी
काव्यगत और कथानक प्रथित रूढ़ियों का सहारा लिया गया है । इसमें भी रस सृष्टि की
ओर अधिक ध्यान दिया गया है , सम्भावनाओं पर अधिक जोर दिया गया है
और कल्पना को महत्त्वपूर्ण रूप से स्वीकार किया गया है । "
( 6 ) उदयपुर के कविराज मोहनसिंह ने रासो के प्रामाणिक
अंशों को खोजने का एक अलग उपाय बताया है । उनके अनुसार रासोकार ने अपने द्वारा
प्रयुक्त छन्दों के बारे में स्वयं ही लिखा है....
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