Tuesday, 25 May 2021

फ़ादर कामिल बुल्के//हिन्दी के सच्चे भक्त//हिंदीअंग्रेज़ी कोश//

 

फ़ादर कामिल बुल्के ( 1909-1982 )

शिक्षा - एम.ए. , पीएच.डी. ( हिंदी )

प्रमुख कृतियाँ - रामकथा : उत्पत्ति और विकास , रामकथा और तुलसीदास , मानस - कौमुदी , ईसा - जीवन और दर्शन , अंग्रेज़ी - हिंदी कोश

1974 में पद्मभूषण से सम्मानित


बेलजियम के रम्सकपैले नामक गाँव में जन्में डॉ.फ़ादर कामिल बुल्के हिन्दी के सच्चे भक्त एवं सन्त साहित्यकार थे। हिंदी को अपने मातृभाषा से भी अधिक चाहनेवालों और प्रयोग करने वालों में इनका नाम श्रेष्ठ  हैं। 1909 में जन्में बुल्के एक प्रतिष्ठित परिवार के बेटे थे,परंतु आर्थिक परिस्थिति क्रमशः दिन व दिन खराब होते जाने के कारण वे अपने गाँव में ही जीविका के लिए संघर्ष करते रहे । इस कठिन परिस्थिति में उनके चाचाजी ने उनकी खुब मदद की। वह बहुत व्यवहारकुशल व्यक्ति थे। उन्होंनें बुल्के को काम दिया और काम के बाद के समय में उन्हे पढ़ने में मदद भी की। अब उनकी परिवार की हालत धीरे धीरे वातावरण बदल गया। उस समय उनके गाँव में एक नियम प्रचलित था कि जो परिवार प्रितिष्ठित हो जाते थे,उन्हें फ्रेंच फैमिली में गिना जाता था, इनकी गिनती भी अब उसमें होने लगी।

बुल्के एक बहुमिखी प्रतिभा वाले व्यक्ति थे। उन्होंने संघर्ष करते हुए अपनी पढ़ाई पुरी की। उनके शिक्षा जीवन में वे एक ऐसे व्यक्ति से मिले जो उन्हें बेहद प्रभावित किया। वे थे मदर गेस्टूड। वे हमेशा इनको कहते थे कि"भगवान् से संन्यासी बनने का वरदान माँगना ।" जब बुल्के परीक्षा पास हुए , तो उनसे फिर बोलीं - "इतना परिश्रम क्यों करते हो ? तुम्हें तो संन्यासी बनना है ।" यह सोच उनके अंदर तक घर कर गयी थी। और एक दिन सच में जब वे सच में संन्यासी हो गये, तो उनके सामने मदर गेस्टूड के इन शब्दों का रहस्य अचानक उद्घाटित हो गया । मदर गेस्टूड एक समाज सेविका थी। उनको सभी मानते थे। वह अन्याय से समझौता नहीं करती और लोकसेवा के लिए अपनी संपूर्ण जीवन उत्सर्ग कर देती हैं।, जो बुल्के को बेहद प्रभावित करती है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पास करन के बाद वे भी अपने गाँव में समाज सेवा से सक्रिय रूप से जुड़ गए उनका कहना था कि -मुझे सबसे अधिक संतोष तब मिलता है, जब मैं दूसरों के लिए कुछ कर पाता हूँ ।    

फिर 1928 ई. में फ़ादर बुल्के ने लूवेन विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग कॉलेज में अपना नामांकन किया । यह विश्वविद्यालय यूरोप के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक था । फ़ादर बुल्के के जीवन काल में इस विश्वविद्यालय का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। यहाँ आते ही उन्हें एक आन्दोलन में सम्मिलित होना पड़ा और शीघ्र ही उनकी गणना एक अग्रणी छात्र नेताओं में होने लगी । उस समय एक बात स्पष्ट थी कि बेल्जियम के फ्रेंचभाषी लोग फ्लेमिश-भाषियों के शोषक हैं, न केवल बेलजियम की फ्रेंचभाषी अहंमन्य जनता फ्लेमिश भाषा को असंस्कृत और तुच्छ माना जाता है वरन् फ्रैंच भाषा और संस्कृति का भक्त फ्लेमिश अभिजात वर्ग भी उसे इसी दृष्टि से देखता है और दोनों की मिली भगत से फ्लेमिश जनता अपने ही देश में परदेशी होते जा रहे थे । हर फ्लेमिश गाँव की तरह लिस्सेवेगे में भी इन सब बातों की चर्चा शुरू हुआ। बुल्के का परिवार भी मातृभाषा भक्त था । इसलिए लूवेन विश्वविद्यालय के फ्लेमिश आन्दोलन कर्त्ताओं की तरह फ़ादरबुल्के भी फ्लेमिश जनता पर सरकार द्वारा फ्रेंच थोपे जाने के कट्टर विरोधी थे । वह इस आंदोलन की गतिविधियों में भाग लेने के लिए अपनी कक्षाएँ तक छोड़ देते थे और यदि उनकी कक्षाओं में कोई अध्यापक फेंच में व्याख्यान देता, तो वह जब तक बोलता रहता, फ़ादर बुल्के अपने सहपाठियों के साथ जोर जोर से फ्लेमिश गीत गाते रहते।

जीवन का समय पलता और भारत आए । यहाँ आकर वे अपनी असाधारण मेधा प्रवृत्ति से हजारीबाग के सीतागढ़ में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिन्दी और संस्कृत की प्रारंभिक शिक्षा ली । जल्द ही उन्होंने हिन्दी और संस्कृत पर इतना अधिक अधिकार कर लिया कि वह सरलतापूर्वक पंचतंत्र, वाल्मीकि रामायण और तुलसी साहित्य का अर्थ निरूपण करने लगे । उनके इस भाषा के विस्तृत ज्ञान के कारण उन्हें शास्त्री जी उन्हें 'चलता फिरता शब्दकोश' कहने लगे । फिर वे  1939 में कर्सियांग आ गये यहाँ उस समय भारत का येसुसंघियों का एकमात्र धर्मशिक्षा कॉलेज था। यहाँ विविध प्रातों से संन्यासी धर्म-विज्ञान की शिक्षा पूर्ण करने आते थे और यही फ़ादर बुल्के चार वर्ष रहे और फ़ादर बायार्त और वोल्कार्ट- जैसे योग्य गुरुओं की दीक्षा पायी। फ़ादर बार्यात के निर्देशन में ही उन्होंने न्याय वैशेषिक के ईश्वरवाद पर लघु शोध प्रबंध लिखा, जो बाद में द थीम ऑफ न्याय वैशेषिक के नाम से कलकत्ता के ओरियेण्टल इन्स्टीट्यूट से 1947 ई. में प्रकाशित हुआ ।

दूसरी ओर फ़ादर वोल्कार्ट के परामर्श और सहयोग से उन्होंने द सेवियर नामक पुस्तक लिखी, जो उनकी मौलिक कल्पना की उपज थी । इस 'द सेवियर' में नया विधान के चार सुसमाचारों में उपलब्ध ईसा की जीवनी संबंधी सामग्री का व्यवस्थापन किया गया है । फिर बुल्के ने कर्सियांग में 'मुक्तिदाता' के नाम से इसका हिन्दी अनुवाद भी किया, जो 1940 ई. में प्रकाशित हुआ । 'द सेवियर' और 'मुक्तिदाता के कई संस्करण प्रकाशित हुए और लाख से अधिक इसके प्रतियाँ बिकी। ' मुक्तिदाता ' का प्रथम संस्करण इस बात का प्रमाण है कि फ़ादर बुल्के ने थोड़े समय के भीतर ही हिन्दी का कितना अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया था । वे क्रमशः हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन करते रहे और 1940 ई. में उन्होंने हिन्दी साहित्य - सम्मेलन की विशारद परीक्षा भी उत्तीर्ण कर लिया । यही उनकी भेंट काका कालेलकर से हुई, वहाँ बुल्के की अध्यक्षता में एक बड़ी सभा हुई , जिसमें उनका हिन्दी भाषण सुनकर काका साहब भाव विह्वल होकर बोले फ़ादर बुल्के हम लोगों में से एक बन गये हैं...इससे न केवल उनका हिन्दी प्रेम बढ़ा वरन् हिन्दी के उच्चतर अध्ययन का संकल्प भी सुदृढ़ हुआ ।


आगे पढ़ने के लिए---यहाँ क्लिक करे <= 

No comments:

Post a Comment

HINDI UGC NET MCQ/PYQ PART 10

HINDI UGC NET MCQ/PYQ हिन्दी साहित्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी-- " ईरानी महाभारत काल से भारत को हिन्द कहने लगे थे .--पण्डित रामनरेश त्रिप...