Wednesday, 12 May 2021

UGC/NET/JRF/PYQ/MCQ..आचार्य शुक्ल के कथन---

 UGC/NET/JRF/PYQ/MCQ..आचार्य शुक्ल के कथन---

हिन्दी साहित्य का आदिकाल संवत् 1050 से लेकर संवत् 1375 तक अर्थात महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है ।  मोटे हिसाब से वीरगाथाकाल महाराज हम्मीर की समय तक ही समझना चाहिए ।

आदिकाल के नामकरण का आधार... इन कालों की रचनाओं की विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया है ।

डिंगल.. अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह ' डिंगल ' कहलाता था ।

हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक। हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को -विशेषतः श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधर पांडेय को समझना चाहिए ।

आचार्य शुक्ल ने छायावाद को अभिव्यंजनावाद का विलायती संस्करण माना है । छायावाद को चित्रभाषा या अभिव्यंजन-पद्धति कहा है ।  छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए । एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु से होता है अर्थात जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है ।

छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य - शैली या पद्धति विशेष की व्यापक अर्य में हैं ।  पन्त, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीक - पदधति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए ।  अन्योक्ति-पदधति का अवलम्बन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ । छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृतात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था । लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की काव्य - शैली की असली विशेषता है ।

छायावाद की प्रवृति अधिकतर प्रेमगीतात्मक है । छायावाद नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र , वस्तुविन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साध्य मानकर चले । शैली की इन विशेषताओं की दूरारूद साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही । विभावपक्ष या तो शून्य अथवा अनिर्दिष्ट रह गया । इस प्रकार पसरोन्मुख काव्यक्षेत्र बहुत कुछ संकुचित हो गया ।  

जिस प्रकार आत्मा की मुक्त अवस्था ज्ञान दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की मुक्त अवस्था रस दशा कहलाती है । ( कविता क्या है ) हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द - विधान करती है  उसे कविता कहते हैं । ( कविता क्या है । )

शुक्ल ने काव्य को कर्मयोग एवं ज्ञानयोग के समकक्ष रखते हुए भावोग कहा , जो मनुष्य के हृदय को मुक्तावस्था में पहुँचाता है । कविता का उद्देश्य, कविता का उद्देश्य हदय को लोक - सामान्य की भावभूमि पर पहुँचा देना है । कविता देवी के मंदिर कविता देवी के मंदिर ऊँचे, खुले, विस्तृत और पुनीत हृदय हैं । सच्चे कवि राजाओं की सवारी, ऐश्वर्य की सामग्री में ही सौंदर्य नहीं ढूँढा करते , वे फूस के झोपड़ों, धूल - मिट्टी में सने किसानों , बर्ची के मुँह में चारा डालते पक्षियों , दौड़ते हए क्तों और चोरी करती हुई बिल्लियों में कभी - कभी ऐसे सौंदर्य का दर्शन करते हैं , जिसकी छाया महलों और दरबारों तक नहीं पहुँच सकती । रस दशा मुक्त हदय मनुष्य अपनी सत्ता को लोक सता में लीन किए रहता है । लोक हदय के लीन होने की दशा का नाम रस दशा है ।

(रस मीमांसा ) भाव और कल्पना ।

काव्य के सम्बन्ध में भाव और कल्पना- ये दो शब्द बराबर सुनते - सुनते कभी - कभी यह जिज्ञासा होती है कि ये दोनों समकक्ष हैं या इनमें कोई प्रधान है । यह प्रश्न या इसका उत्तर ज़रा टेढ़ा है , क्योंकि रस - काल के भीतर इनका युगपद अन्योन्याश्रित व्यापार होता है । ( चितामणि , भाग -2....

प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की शिक्षित जनता की चित्तवृति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चितवृति के परिवर्तन के साथ - साय साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है । आदि से अंत तक इन्हींचित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य - परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही हिन्दी साहित्य का इतिहास कहलाता है । ( हिन्दी साहित्य का इतिहास ) अपभंश कविता की धाराएँ ?

डिंगल कवियों की वीर - गाथाएँ निर्गुण सन्तों की वाणियों , कृष्ण भक्त या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों के पद , राम - भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ , सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिन्दू कवियों के रोमांस और रीति - काव्या - ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है भक्ति ? भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है । ? कालदर्शी भक्त कवि जनता के हृदय को सम्भालने और लीन रखने के लिए दबी हई भक्ति को जगाने लगे । क्रमशः भक्ति का प्रवाह ऐसा विकसित और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल हिन्दू जनता ही नहीं आई , देश में बसने वाले सहृदय मुसलमानों में से भी न जाने कितने आ गए ।)

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