हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद उद्भव की पृष्ठभूमि :UGC/NET/JRF/PYQ
हिंदी काव्य-साहित्य में सामाजिक चेतना से मुक्त, एक आंदोलन के रुप में 1936 में जिस काव्यधारा का छायावाद की
क्रोड से ही जन्म हुआ उसे प्रगतिवादी या प्रगतिशील आंदोलन कहते है । जिसकी प्रेरणा
मार्क्सवाद में रही है । यह आधुनिक किसी साहित्य में यथार्थवाद के लेकर आया । विषय
सामाजिक स्थितियों पर पहार करते हुए साहित्य का संबंध जीवन निर्माण से इसी समय
जोड़ा गया । छायावाद से ही तात्काल पंतजीने छायावाद के 'युगान्त' की घोषणा कर ' युगवाणी ' को जाना , अपनाया यह ' युगवाणी ' कृषकों , दलितों , श्रमीकों सर्वहरा बहुजनों की वाणी का सुगपात था। अगाज था ।
पंतजी ने ही कहा था "प्रगतिवाद वर्ग वैषम्य को दूर कर
श्रमिकों तथा कृषकों की मंगल भावना से प्रेरित है । उसमें पूँजीपतियों तथा शोषकों
के विरुध्द क्रांति का आह्वान करनेवाला विद्रोह का स्वर है ' महापंडित राहूल सांस्कृत्यायन ने भी कहा था-"
प्रगतिवाद कोई संकीर्ण संप्रदाय नहीं है । प्रगतिवाद कला की अवहेलना नहीं करता ।
यह तो कला और उच्च साहित्य के निर्माण में बाधक रुढ़ियों को हटाकर सुविधा प्रदान
करता है । यह रुढ़िवाद और कूपमांडूकता विरोधी है ।" युग की आवश्यकता के रुप
में प्रगतिवाद को देखा गया अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय युगीन परिस्थितियों ने इसे
विचार के क्षेत्र में स्थापित किया । बाद में यह राजनीतिक गलीयों से होते हुए
साहित्यिक क्षेत्र में आयी ।
भारत में स्वतंत्रता संग्राम गांधीजी के नेतृत्व में जोरों
पर था किन्तु गांधी की ' अहिंसा ' क्रांतीवीरों के लिए अपर्याप्त लग रही थी । परिणामता
विद्रोह , क्रांती स्वरों को तात्काल मार्क्सवाद के रुप में गांधी
विरोधी तथा गांधीवाद में कसम खाने वालों ने स्विकारा ।
काँग्रेस और गांधी ने किसान मजदूरों में एकता पैदा की थी ।
उसके शोषण को भी जाना था परंतू उसे दूर करने के कारगर उपाय वाली कोई व्यवस्था उनके
पास नहीं थी । मार्क्सवाद ने वही विकल्प उसे दिया था तो वह स्पष्ट नहीं था ।
पुंजीवाद , साम्राज्यवाद और सामंतवाद को एक साथ विरोध कर उसे मिटाने का
,
ध्वस्त करने का भाव
क्रांति भावना के रूप में मार्क्सवाद ने दिया ।
भारतीय सामाजिक , धार्मिक क्षेत्र में सढ़ी गली परंपराएं , कुरीतियाँ , रुढीवाद , अंधविश्वास एवं मनुष्य को पूर्ण रुपेन गुलाम बनाये रखनेवाली
भावना , ब्राह्मणी
विचारधारा व्यवस्था ने स्त्री एवं दलित को प्रताडित किया था । आर्य , ब्राह्मो समाज के आंदोलन केवल सुधारवादी थे परिवर्तनकामी
नहीं । ' द्विवेदीयुग
में भी यही आदर्श मानवता का रहा । परिणामतः उसके विरुध्द भी प्रगतिवाद ने अगाज
किया । उनके दुःख , दर्द , पिड़ा को अभिव्यक्ति साहित्य के क्षेत्र में पहली बार मिली
। प्रस्थापित मनुष्यता विरोधी व्यवस्था के विरुध्द क्षुब्ध भावनाओं , चेतनाओं को व्यक्त करने का अवसर प्रगतिवाद ने ही दिया ।
पहली बार साहित्य सर्वसामान्य की प्रगति के लिये लेखन कर रहा था ।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1917 में रुस की क्रांती हो चुकी थी
उसने साम्राज्यवाद का खात्मा किया था । सत्ता सर्वहारा के हाथों आयी इस क्रांती के
मुल में मार्क्स के विचार रहे थे । वर्गहीन समाज रचना के आदर्श को लेकर रुस , साम्राज्यवादी तथा केवल पुंजी के । श्रेष्ठ मानकर उसके जरिए
शोषण करने वाली ताकतों का विरोध करनेवाले नये विश्व का पाथेय बना हुआ था । "
राजनीति के क्षेत्र में द्वितीय विश्वयुध्द और फासिज्म का नग्न रुप बडा भयावह हो
उठा था इसका विरोध करने के लिये मार्क्सवाद का स्वागत हुआ । " दुसरे महायुध्द
के परिणाम स्वरूप उभरा राजनीतिक संकट , सन 1930-32 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी , बेरोजगारी , पुंजीवाद के कारण बढ़ता शोषण , दरिद्रता का फैलता साम्राज्य , बढ़ती आर्थिक विषमता ने वर्ग संघर्ष को तीव्र बनाया इसके
विरोध में किमान मजदूरों ने उनके शोषण के लिये कारण - भूत प्रवृत्तियों , व्यवस्था के विरुध्द में आंदोलन चलाया ।
भारत में भी सर्वहारा के सामने कुछ ऐसे ही संकट थे ।
ब्रिटिश और भारतीय विषमता - मुलक समाजव्यवस्था ने दलित, पीडीत , कृषक , मजदूरों की हालत खस्ता हो रही थी । वे निरंतर दरिद्रता , भुख से तड़प रहे थे , बिलबिला रहे थे । उनका आर्थिक और सामाजिक शोषण हो रहा था
उन्हे विपन्नावस्था में रखने के धार्मिक , ईश्वरीय अस्त्र - शास्त्र का उपयोग किया जा रहा था । ऐसे
में ' धर्म
अफीम की गोली है ' का विचार उनके विद्रोह का कारण बना , '
क्रांती ही परिवर्तन ' ला सकती की भावना पर उन्हें विश्वास हुआ । रुस क्रांती का
आदर्श उसके सामने था । विश्व उसकी और तेजी से बढ़ रहा था ।
भारतीय सर्वहारा - बहुजन अभिजनों के विरुध्द खड़े हो चुके
थे । वे भी एक ऐसी व्यवस्था की तलाश में थे जहाँ मनुष्य का शोषण न हो , मनुष्य - मनुष्य में अंतर न हो , सभी समाज स्तर , सुख , आनंद से जीयेंगे का भाव ' प्रगतिवाद ने भारतीय जनमानस में पैदा किया । उसकी शुरूवात
साहित्य में ' ग्राम्या ' से होती है , ग्रामीणों से होती है , सर्वहारा से होती है । विश्व साहित्यकार भी जनवाद को अपना
रहा था । इसी समय अंग्रेजी साहित्य में ' प्रोग्रेसिव लिटरेचर ' का बोलबाला गुंज रहा था । सन 1935 के आस - पास ही ई.एम.
फाटर की अध्यक्षता में पेरिस में , " प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसियशन ' नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का पहला अधिवेशन हुआ । जिसमें
भारत से डॉ . मुल्कराज आनंद और सज्जाद जहीर शामिल थे । उन्होंने लंदन में ' भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ ' की स्थापना की थी । जब वे भारत आये 1936 में ही प्रेमचंद की
अध्यक्षता में ' प्रगतिशील साहित्य ' का प्रचार प्रसार करने के लिए लखनऊ में पहला अधिवेशन संपन्न
हुआ । इसी साहित्य आंदोलन और अधिवेशन के दुसरे अध्यक्ष रविन्द्रनाथ ठाकूर थे ।
परिणामतः ' प्रगती ' का भाव भारतीय भाषा में सज्जाद जहीर द्वारा ' उर्दू ' और रविन्द्रनाथ द्वारा ' बंगाल ' में आया । बंगाल की लहर देश भर में फैली । और हिन्दी में वह
'
प्रगतिवाद ' के नाम से 1936 में
ही आया । प्रगतिवाद ऐसा पहला साहित्यिक आंदोलन है जो सामाजिक , राजनीतिक क्रोड में से आंदोलन के रुप में ही उभरकर आया।
उसके साहित्यविषयक मानदंड पहले ही स्थापित थे । जीवनाश उनके सामने था दलतित्व उसके
अनुरुप उभरकर आया । उसकी श्रेष्ठता के संबंध में डॉ . हजारीप्रसाद दिवेदी ने कहा-
समष्टि मानव की मुक्ति के लिए , उसको प्राधान्य देते हुए प्रगतिवाद आया । जब - जब ऐसे बड़े आदर्श
के साथ मनुष्य का योग होता है तब - तब वह साहित्य नये काव्य रुपों की उद्भावना
करता है । इस बार भी ऐसा ही हुआ ।
"प्रगतिशील साहित्य ने संसार के भौतिक स्वरूप को , उदात्त स्वरूप को , चेतनमय स्वरूप को हमारे सामने लाया । तर्क द्वारा उसके
विकास की प्रत्येकावस्था को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया । इसलिए वह रहस्यवाद , ईश्वर , भाग्यवाद का विरोध करता है । विश्व परिवर्तनिय होने की बात
करता है " परिवर्तन सृष्टि का नियम है , यही परिवर्तन , साहित्य में , मानवता के विकास में , सनातन रूढ़ियों के विरोध में , सनातन धर्म , ईश्वर के विरोध में प्रगतिवाद स्थापित करता है ।
डॉ. नामवर सिंह ने बड़ी सजगता एवं गहराई से उसकी जाँच -
पड़ताल की है । कुछ विचार निम्न है जो ' प्रगतिवाद ' के महत्त्व, आवश्यकता और सुनहले , सुखमय भविष्य के जरूरी है—
ð "प्रगतिवाद के इन बीस वर्षों का इतिहास साहित्य में
स्वस्थ सामाजिकता, व्यापक भावभूमि और उच्च विचार के निरन्तर का विकास इतिहास
है, जो
केवल राजनीतिक जागरण से आरंभ होकार क्रमशः जीवन की व्यापक सम्स्याओं की ओर
आदर्शवाद से आरंभ होकर
क्रमशः स्वस्थ सामाजिक यथार्थवाद की और अग्रसर होता जा रहा है ।'
ð "प्रगतिशील साहित्य कोई स्थिर मतवाद नहीं है , बल्कि यह एक निरंतर विकासशील साहित्य - धारा है । यह
साहित्य लेखक की स्वयंभू अन्तःप्रेरण से उद्भूत नहीं होता, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के क्रम में वह भी परिवर्तित
और विकसित होता रहता है ।"
ð "प्रगतीवाद का आरम्भ साहित्य में आर्थिक और राजनीतिक
आंदोलन के रूप में हुआ ।
ð "छायावाद यदि इस सर्दी के सांस्कृतिक पुनर्जागाण की
उपज था तो प्रगतीवाद १६६ राजनीतिक जागरण की।"
ð भक्ति आंदोलन के बाद फिर उस तरह का अखिल भारतीय
साहित्य संगम प्रगतिवाद के ही युग में संभव हो सका।"
ð "प्रगतिशील लेखकों ने अपने समकालीन साहित्य में भी
फैले हुए आध्यात्मिक कुहासा , कुंठावादी गानों और यौनसंदर्भ को साफ करने में बड़ा कार्य
किया । "
ð "यदि प्रगतिवादी समीक्षा प्रणाली न होती तो ये अस्वस्थ
साहित्यिक प्रवृत्तियाँ साहित्य के विकास में कितनी बाधा पहुँचाती , यह कहना कठिन है । ''
ð श्रेष्ठ रचना करने
के लिये साहित्यकार को अनिवार्य रुप जनता का पक्षधर होना ही पडेगा ।
ð "जिन साहित्यकारों ने पीड़ित , दलित और सताए हुए का पक्ष लिया था और इसी तरफदारी के कारण
उनमें उच्चकोटि की मानवतावादी भावनाएँ थी । जब कि समाज में स्वार्थों का संघर्ष हो
तो मानवता दलित लोगों के पक्ष में होती है, तटस्थता में नहीं होती । "
ð "श्रेष्ठ साहित्यकार रोज नहीं पैदा होते और न श्रेष्ठ
कृतियाँ हर क्षण लिखी जाती है । ये सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास का परिणाम होती है ।
उनके पीछे जातीय उत्थान की शक्ति होती है । "
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