वीरगाथा-काल के प्रतिनिधि कवि का परिचय दीजिए ।
पृथ्वीराज चौहान के समकालीन,
सामन्त और दरबारी कवि
चन्दवरदायी वीरगाथा काल के प्रतिनिधि कवि थे । विद्वानों के अनुसार ये भी
पृथ्वीराज के जन्म के सं . 1206 वि. में पैदा हुए थे । ये जगात गोत्र के भट्ट ब्राह्मण थे ।
इनका जन्म - स्थान लाहौर था । इन्हें षड् भाषा व्याकरण ,
काव्य ,
साहित्य आदि का ज्ञान
था । ये सभा , युद्ध , आखेट तथा यात्रादि में सदा महाराज पृथ्वीराज के साथ ही रहते
थे । जब शहाबुद्दीन गौरी पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर गजनी ले गया तो चन्दवरदायी भी '
पृथ्वीराज रासो '
का रचना कार्य अपने
पुत्र जल्हण को सौंपकर उन्हीं के साथ गजनी चल दिये " पुस्तक जल्हण हत्थ दै
चलि गज्जनि नृप काज । " रचना - हिन्दी के प्रथम प्रबन्ध - काव्य '
पृथ्वीराज रासो '
की रचना चन्दवरदायी
ने की , जिसकी
प्रामाणिकता आज भी विद्वानों के लिए विवाद का विषय बना हुआ है ।
आदिकाल के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ का परिचय दीजिए ।
वीरगाथा - काल के प्रतिनिधि कवि चन्दवरदायी द्वारा रचित
हिन्दी का प्रथम महाकाव्य ' पृथ्वीराज रासो ' वीरगाथा - काल की सर्वश्रेष्ठ रचना है । इसकी प्रामाणिकता भले
ही विद्वानों के बीच विवादग्रस्त रही हो , किन्तु इस महाकाव्य का काव्य सौन्दर्य सभी ने एकमत से
स्वीकार किया है । इस महाकाव्य के चरितनायक पृथ्वीराज चौहान हैं । संयोगिता
स्वयंवर के प्रसंग में शृंगार रस की अविरल धारा बही है ,
तो चरित - नायक
द्वारा लड़े गये युद्धों में वीर रस मूर्तिमान हो उठा है । रासोकार ने अपने इस
काव्य ग्रन्थ में प्रायः सभी अलंकारों का प्रयोग किया है और 68
प्रकार के छन्द
प्रयुक्त किये हैं । इसकी भाषा हिन्दी , गुजराती तथा राजस्थानी का मिला - जुला रूप है । यह रासो -
ग्रन्थ हिन्दी की अमूल्य निधि है ।
निर्गुण भक्ति काव्य धारा के प्रमुख कवियों के नाम एवं उनकी
रचनाओं के नाम लिखिये ।
निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ इस
प्रकार हैं ( 1 ) नामदेव - नामदेव के पद । ( 2
) कबीर - '
साखी '
, ' सबद '
, ' रमैनी '
, ' बीजक '
। ( 3
) धर्मदास - पदों की
रचना । ( 4 ) दादूदयाल – ' हरडेवाणी ' एवं ' अंग - वध ' । ( 5 ) सुन्दरदास – ' सुन्दर - ग्रन्थावली ' तथा ' सुन्दर - विलास अथवा सवैया '। ( 6 ) मलूकदास – ' रतनखान ' और ' ज्ञान - बोध ' । ( 7 ) नानक - ' गुरु ग्रन्थसाहब ' । ( 8 ) संत रैदास – ' रैदास की बानी ' ।
वीसलदेव रासो - वीसलदेव रासो के रचयिता नरपति नाल्ह ने इस
ग्रन्थ की रचना सं . 1212 विक्रमी में की थी । इस ग्रन्थ के चरितनायक विग्रहराज
चतुर्थ एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं , किन्तु अन्य रासो काव्यों की भाँति इसमें भी अनेक ऐतिहासिक
भ्रान्तियाँ हैं जो यह प्रमाणित करती हैं कि इस ग्रन्थ में तथ्य कम हैं और कल्पना
अधिक है । वीसलदेव रासो की रचना यद्यपि आदिकाल में हुई है तथापि अन्य रासो काव्यों
की भाँति यह वीरगाथात्मक कृति न होकर एक विरह काव्य है ,
जिसका मूलरूप वस्तुतः
'
गेय काव्य '
का था । गेय काव्य
होने के कारण ही इसका स्वरूप परिवर्तित होता रहा । वीसलदेव रासो आदिकाल की एक
श्रेष्ठ काव्यकृति है , जिसे चार खण्डों में विभक्त किया गया है । प्रथम खण्ड में
अजमेर के राजा विग्रहराज चतुर्थ ( वीसलदेव ) का परेमारवंशी राजा भोज की कन्या
राजमती से विवाह दिखाया गया है । द्वितीय खण्ड में रानी के व्यंग्य से रुष्ट राजा
के उड़ीसा चले जाने की कथा है । बारह वर्ष तक वीसलदेव उड़ीसा में रहता है और उसके
विरह में रानी राजमती अत्यधिक वेदना का अनुभव करती है । रानी का यह विरह वृत्तान्त
तृतीय खण्ड में अलंकृत किया गया है । चतुर्थ खण्ड में इन दोनों के पुनर्मिलन का
वृत्तान्त है । वीसलदेव रासो 125 छन्दों की एक प्रेमपरक रचना है जिसमें सन्देश
रासक की भाँति विरह की प्रधानता है । विरह के स्वाभाविक चित्रण के साथ - साथ संयोग
के मर्मस्पर्शी चित्र भी इसमें अंकित किये गये हैं । कवि ने प्रकृति के रमणीय
चित्र अंकित करके इस काव्यकृति के महत्त्व को द्विगुणित कर दिया है । आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने वीसलदेव रासो की भाषा को ‘
राजस्थानी '
माना है जिसका
व्याकरण अपभ्रंश के अनुरूप है ।
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