दलित साहित्य और मुर्दहिया-
दलित साहित्य आन्दोलन के इतिहास में आत्मकथाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। दलित
आत्मकथाएँ केवल आत्मविश्वेषण या आत्मवृत्तान्त नहीं हैं, अपितु 'स्व' का सामूहिक एवं सामाजिक रूपान्तरण हैं। डॉ.तुलसीराम द्वारा
रचित मुर्दहिया मात्र एक आत्मकथा नहीं है, बल्कि लेखक के व्यक्तिगत पारिवारिक जीवन के साथ साथ आस पास के सभी वर्गों
जातियों के नामाजिक मांस्कृतिक सम्बन्धों और उनकी जटिलताओं की भी रचनात्मक
अभिव्यक्ति है।
मुर्दहिया और दलित जीवन की त्रासदी मुदक्षिया दलित समाज की त्रासदी और भारतीय
समाज की विडम्बना का सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक आख्यान है। यह कृति
नमाज, संस्कृति, इतिहास और राजनीति की उन पतों को खोलती है, जो अभी तक अनकहा, अनछुआ था; जहाँ न तो ठीक से साहित्य
पहुंच सका था और न ही अन्य कोई पद्धतिशास्त्र। यह आत्मकथा वह पन्ना पलटती है,
जहाँ किसी साहित्यकार, इतिहासकार और समाजशास्त्री की दृष्टि नहीं पहुंच सकी थी। इस
अर्थ में मुर्दहिया नाहित्य, इतिहास और
समाजशास्त्र के अधूरेपन एवं एकांगीपन को संवर्द्धित कर खालीपन को सम्पूरित करती है।
वह कृति हिन्दू व्यवस्था की जड़ता एवं विद्रूपता के तह तक ले जाती है। भाषा,
साहित्य एवं संस्कृति विकान में मुर्दहिया की
महत्वपूर्ण भूमिका है।
हिन्दू समाज और घर परिवार में उपेक्षा, अनादर और अपमान झेलते एक बालक की त्रासद जीवन स्थिति की यह कृति यथार्थ रचती
है। हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त जातिगत भेदभाव, अपमान, उत्पीडन, घृणा, धार्मिक जड़ता,
कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास की बारीक परतों को मुर्दहिया उघाड़ती है। तमाम सामाजिक आर्थिक
विषमताओं एवं जटिलताओं की सच्चाइयों से गुंथी हुई यह आत्मकथा समता, मैत्री, प्रेम और करुणा का
मानस रखती है। ज्योतिबा फुले और डॉ भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा पर आधारित दलित
साहित्य के मुख्य मरोकारों से यह कृति इन्हीं मन्दीं से गुड़ जाती है। अपमान,
घृणा, उपेक्षा और विपन्नता की वेदना से गुजरते दलित के बालक की मनोदशाओं की सच्ची कहानी है मुर्दहिया। अपने ही देश
में विभिन्न जातियों में भेंट हए समाज की वाइयों और मनुष्य में मनुष्य के बीच की
दूरियों का चित्रण करती मुर्दहिया जन्म से लेकर मृत्यु तक के अपमानबोध की मार्मिक
कथा है।
मुर्दहिया जैसी रचनाएँ विषमतापरक समाज को समता में बदलने की पृष्ठभूमि तैयार
रही हैं। हिन्दू समाज में व्याप्त हिंसा, घृणा, शोषण एवं वर्चस्व को
मुर्दहिया बेपर्दा करती है। साथ ही दलित वर्ग की जटिलताओं एवं विसंगतियों का
सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य भी उद्घाटित करती है यह आत्मकथा दलित जीवन संघर्ष
की सिर्फ वेदनामयी गाथा ही नहीं है, अपितु हिन्दू जाति व्यवस्था की जहता, अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड, धर्मान्धता तथा तमाम विभेदकारी शोषणयुक्त विषम परिस्थितियों
के घेरे को तोड़कर उगते सूरज के मानिन्द बालक तुलसीराम की मपर्ण यात्रा है।
मुर्दहिया लोकरंग की
पच्चीकारी से सराबोर मुर्दहिया वेदना और पीड़ा की विविध छवियों को उद्घाटित करती
है इन छवियों की भाषा और सौन्दर्यबोध परम्परागत साहित्य से भिन्न है। लोकसंगीत के
विविध रूप और लोकनृत्य के विविध रंग मुर्दहिया की अमूल्य घाती है, जिसमें पूरी आत्मकथा मुंजायमान है। इसमें पन्द्रह सदस्यीय
घुमन्तू नटों के झुण्ड को लेखक ने बड़ी आत्मीयता मे याद किया है। 'आल्हा' गाने और ढोल बजाने
में पारंगत नट समाज के जीवन और शोपण की कहानी भी है मुर्दहिया। करताल बजाते हुए
जयश्री यादव का 'विरहा गायन' और उस गायन की समकालीनता का सम्बन्ध अद्भुत दंग से प्रस्तुत
किया गया है। इन्हीं प्रसंगों के बीच दलितों को अपमानित करने वाली कहाचता का भी
जिक्र आत्मकथा के सरोकारों को और सार्थक रूप देता है।
डॉ.तुलसीराम लिखते हैं लोग अकाल से उत्पन्न दुःख दर्द को भूल गए थे। धान की
अच्छी फसलों के बाद चैत वैसाख के दिनों में तक जौ, गेहूँ, चना, मटर आदि फसलों की कटाई से दलितों के बीच काफी खुशहाली छा गई
थी। इसका कारण था कुछ महीनों के लिए उचित भोजन व्यवस्था, इस सन्दर्भ में हमारे पूरे क्षेत्र ब्राह्मण तथा अगि
जमीन्दारों के बीच चमारों को लेकर एक काव्यात्मक मुहावरा प्रचलित था- ' भादो भैसा बैत चमार; इससे कबहूँ लग न पार इस निरादरपूर्ण
अमानवीय अभिव्यक्ति में चमारों की पेट भर खाने की खिल्ली उड़ाई जाती थी। यह इस
आत्मकथा की वह सच्चाई है जिसे इतने प्रामाणिक ढंग से किसी भी परम्परागत साहित्य
में शायद ही वर्णन किया गया हो।
'जाति कैसे, कब और क्यों गाली का पर्याय
बन गई ? यह आत्मकथा इस तथ्यान्वेषण
के लिए प्रेरित करती है। यह वृति जाति के मूल में मौजूद अपमान और अनादर कारणों की
तह तक ले जाती है इस अर्थ में यह कृति एक शोध पुस्तक भी है। भोजपुरी क्षेत्र के
लोकजीवन में बहुप्रचलित बरसाती परिवेश का अद्भुत चित्र प्रस्तुत करती है महिमा।
अकाल के दिनों में जमीन में पड़ी दरारों में प्राकृतिक कलाकृति का आभास देना
दलित सौन्दर्यबोध का नमूना है, पानी की कमी के कारण
धान के खेत, जिन्हें कियारा कहा जाता,
की जमीन फटकर चारो तरफ विभिन्न प्रकार की दरारों
में बदल जाती थी। कियारों के इन फटे दरारों से अनेक जगहों पर तरह तरह की प्राकृतिक
कलाकृतियाँ बन जाती थी गार खेत रेखागणित क नमूने लगते थे। कई दरारों में तो
विड़ियों की जाँच, ऊँट की गर्दन समेत मुंह तथा
हाथी के सूंड नजर आते थे। उस अफाल का यह एक अनोखा मौन्दर्य था, जिसमें मानव की भुखमरी और असीम पीड़ा का साम्राज्य था। यह
पीड़ा का सौन्दर्य है, जिसे मुर्दहिया ने नया
साहित्यिक अर्थ दिया है।
मुर्दहिया में बालक तुलसीराम की चिट्ठी पढ़ने की कहानी से लेकर उनकी उपेक्षा,
अपमान और गरीबी की संघर्षरूपी दास्तों के बीच
जोगी बाबा के गाने, चुनिहारिन के गीत, नटनिया का नृत्य और सौंदर्य, विभिन्न जातियों के बीच प्रचलित लोकगीत और लोकनृत्य, लोकनाट्य, मरे हुए जानवरों के
मॉस पर जूझते मराते चीलों का सौन्दर्यबोधीय चित्रांकन, वियों का अपने पतियों से दूरियों के बीच प्रेम और वियोग चा
वर्णन माहित्य की अमूल्य धरोहर है। इस आत्मकथा में राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय
राजनीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य और कला का
प्रसंगवश विशद वर्णन और बुद्धमय भारत की आकांक्षा की अनुगूंज आप्त है। यह अनुगूंज
मामाजिक परिवर्तन और समतापरक भारत के सपने की अनुगूंज है जातिविहीन, अहिंसापरक, प्रेम और मैत्रीपूर्ण
समाज की स्थापना ही डॉ. तुलसीराम जी का सपना रहा है दलित साहित्य आन्दोलन के
इतिहास में आत्मकथाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
डॉ.तुलसीराम द्वारा रचित मुर्दहिया मात्र एक आत्मकथा नहीं है, बल्कि लेखक के व्यक्तिगत पारिवारिक जीवन के साथ साथ आस पास
के सभी वर्गों जातियों के सामाजिक सांस्कृतिक सम्बन्धों और उनकी जटिलताओं की भी रचनात्मक
अभिव्यक्ति है। हिन्दू समाज और घर परिवार में उपेक्षा, अनादर और अपमान झेलते एक बालक की त्रासद जीवन स्थिति की यह
कृति यथार्थ रचती है। तमाम सामाजिक- आर्थिक विषमताओं एवं जटिलताओं की सच्चाइयों से
गुथी हुई यह आत्मकथा समता, मंत्री, प्रेम और करुणा का मानम रचती है। ज्योतिबा फुले और
डॉ.भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा पर आधारित दलित साहित्य के मुख्य सरोकारों से यह
कृति इन्हीं सन्दर्भो से जुड़ जाती है।
मुर्दहिया और दलित जीवन की त्रासदी मुर्दहिया दलित समाज की त्रासदी और भारतीय
समाज की विडम्बना का सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक आख्यान है। यह कृति
समाज, संस्कृति, इतिहास और राजनीति की उन पतों को खोलती है, जो अभी तक अनकहा, अनछुआ था, जहाँ न तो ठीक से साहित्य
पहुंच मका था और न ही अन्य कोई पद्धतिशास्त्र। यह आत्मकथा वह पन्ना पलटती है,
जहाँ किसी साहित्यकार, इतिहासकार और समाजशास्त्री की दृष्टि नहीं पहुंच सकी थी। इस
अर्थ में मुर्दहिया गाहिन्य, इतिहाग और
समाजशास्त्र के अधूरेपन एवं एकांगीपन को संवर्द्धित कर खालीपन को सम्पूरित करती है।
यह कृति हिन्दू व्यवस्था की जनता एवं विद्रूपता के तह तक ले जाती है। भाषा,
साहित्य एवं संस्कृति के विकास में महिषा की
महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
हिन्दू समाज में व्याप्त हिंसा, घृणा, शोषण एवं वर्चस्व को
मुर्दहिया बेपर्दा करती है। साथ ही दलित वर्ग की जटिलताओं एवं विसंगतियों का
सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य भी उद्घाटित करती है। यह आत्मकथा दलित जीवन
संघर्ष की सिर्फ वेदनामयीं गाथा ही नहीं है, अपितु हिन्दू जाति व्यवस्था की जहता, अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड, धर्मान्धता तथा तमाम विभेदकारी शोषणयुक्त विषम परिस्थितियों
के घेरे को तोड़कर उगते सूरज के मानिन्द बालक तुलसीराम की संघर्ष यात्रा है।
अपने ही देश में विभिन्न जातियों में वेटे हुए समाज की बाइयाँ और मनुष्य से
मनुष्य के बीच की दूरियों का चित्रण करती मुर्दहिया जन्म से लेकर मृत्यु तक के अपमानबोध
की मार्मिक कथा है । हिन्दू व्यवस्था की जड़ता और वैषम्य जीवन मुदहिया हिन्दू धर्म
और संस्कृति की विद्रूपता और क्रूरता का दस्तावेजीकरण है। जाति पांति, ऊँच नीच, घृणा और द्वेष से
गुथा हुआ श्रेणीबद्ध समाज कौन से तथा किस प्रकार का राष्ट्र निर्मित करेगा ?
यह प्रश्न आत्मकथा में आद्यन्त बना रहता है।
डॉ.तुलसीराम को मिला जातिवादी माहौल, विद्रूप सामाजिक मान्यताएँ तथा देवी देवताओं एवं अन्धविश्वास से भरे हुए विषम
जीवन, आजाद भारत की कौन सी तस्वीर
प्रस्तुत करता है ? जिस विषमतापरक सामाजिक परिवेश
और सीमाओं से घिरा हुआ डॉ. तुलसीराम का गाँव है, वह किस राष्ट्र का बोध कराता है? आत्मकथा में लेखक की जाति की अवस्थिति का कारण सहित वर्णन है, " इन्हीं सीवानों से घिरे हमारे गाँव के सबसे उत्तर में अहीर
बहुल बस्ती थी, जिसमें एक घर कुम्हार,
एक घर नोनिया, एक घर गड़ेरिया तथा एक घर गोंड ( भभूजा ) का था । बीच में बभनाटी ( ब्राह्मण
टोला ) तथा तमाम गाँव की परम्परा के अनुसार सबसे दक्षिण में हमारी दलित बस्ती। एक
हिन्दू अन्धविश्वास के अनुसार किसी गाँव में दक्षिण दिशा से ही कोई आपदा, बीमारी या महामारी आती है इसलिए हमेशा गाँवों के दक्षिण में
दलितों को बसाया जाता है। जाति आधारित ऐसी व्यवस्था जहां मनुष्य की पहली पहचान
जाति हो, इस विभेद को मुर्दहिया में
अंकित करते हुए लेखक ने दलित जीवन की त्रासदी को विस्तार से लिखा है।
No comments:
Post a Comment